India WorldDelhi NCR Uttar PradeshHaryanaRajasthanPunjabJammu & Kashmir Bihar Other States
Sports | Other GamesCricket
Horoscope Bollywood Kesari Social World CupGadgetsHealth & Lifestyle
Advertisement

Sarfira Movie Review: आम आदमी की ऊंची उड़ान में सपनों का हवाई सफर कराने वाले सरफिरे की कहानी

09:12 AM Jul 12, 2024 IST
Advertisement

Sarfira Movie Review: अगर आप नॉन ब्रांडेड कपड़े पहनकर बिना महंगी बैग लिए फ्लाइट के फर्स्ट क्लास में बैठ जाते हो, तो कुछ लोग आपको नजरों से ये जताने की कोशिश जरूर करते हैं कि आप यहां बैठना डिजर्व नहीं करते. हालांकि अब फ्लाइट से ट्रेवल करना कोई बड़ी बात नहीं है. लेकिन आज से 20 साल पहले फ्लाइट में बैठना मिडिल क्लास परिवार के लिए किसी सपने से कम नहीं था. कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक आम आदमी हर जगह ट्रेन से ही घूमता था. अगर बीमारी के समय कोई बहुत सीरियस हो और उसे इलाज के लिए अर्जेंट शहर लेकर जाना हो तो, या फिर किसी अपने की मौत हुई हो और उनके अंतिम संस्कार के लिए पहुंचना हो, तब अपनी सेविंग इकट्ठा कर दिल पर पत्थर रखकर फ्लाइट की टिकट खरीदी जाती थी. मिडल क्लास परिवार की यही धारणा थी कि फ्लाइट हमारे लिए है ही नहीं और ये सोच बदली एक सरफिरे ने, जिनका नाम था जी आर गोपीनाथ और इन जी आर गोपीनाथ से प्रेरित है अक्षय कुमारी की ‘सरफिरा’. अगर आपने सूर्या की तमिल फिल्म ‘सोरारई पोटरु’ नहीं देखी है, तो आप ये फिल्म खूब एन्जॉय करेंगे और अगर वो फिल्म आपने देखी भी है तो भी ये फिल्म आपके दिल को छू जाएगी.

कहानी

वीर म्हात्रे (अक्षय कुमार) अहिंसा के रास्ते पर चलने वाले एक किसान का बेटा है. क्रांतिकारी विचारधारा वाले वीर की अपने पिता से बिलकुल भी नहीं बनती. एयरफोर्स में पायलट की नौकरी करने वाले वीर के साथ कुछ ऐसा हो जाता है, जिससे उसकी पूरी जिंदगी बदल जाती है. नौकरी छोड़कर एक नए जुनून के साथ वीर अपने गांव लौट आता है. ये जुनून है आम आदमी को ट्रेन की टिकट के किराए में हवाई जहाज में ट्रेवल कराने का. वीर का ये जुनून किस तरह से आम आदमी को हवा में उड़ने के पंख दे गया, कैसे उसकी वजह से बैलगाड़ी में बैठने वाला एक रुपये में हवाई जहाज की सैर करने लगा, ये जानने के लिए आपको अक्षय कुमार की ‘सरफिरा’ देखनी होगी.


कैसी है ये फिल्म

‘सरफिरा’ एक शानदार फिल्म है. थोड़ी सी लंबी जरूर है. लेकिन ये इस कदर आपको आखिर तक बांधे रखती है कि समय का पता नहीं चलता. दरअसल मैंने 2 साल पहले प्राइम वीडियो पर सूर्या की ‘उड़ान’ (सोरारई पोटरू का हिंदी डब वर्जन) देखी थी और मैं ये बात भूल भी गई थी. जब ‘सरफिरा’ में परेश रावल के साथ अक्षय कुमार का फ्लाइट के अंदर का सीन मैंने देखा तब मुझे ये एहसास हुआ कि ये सीन मैंने पहले भी कहीं देखा है.

दो मिनट के लिए मैं इतनी कन्फ्यूज हो गई कि मैंने अपने दिल्ली में बैठे कलीग को मैसेज करके पूछा कि क्या ये फिल्म पहले कही लीक हुई है? लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ी वैसे पता चला कि एक सीन नहीं पूरी फिल्म फ्रेम टू फ्रेम सोरारई पोटरू से मिलती है, फिल्म के 70 परसेंट एक्टर्स भी तमिल फिल्म से ही लिए गए हैं. लेकिन फिर भी ये फिल्म शानदार है. आप इसे देखते हुए भावुक हो जाते हैं. एक स्ट्रांग मेसेज देने के साथ-साथ ये फिल्म आपका खूब मनोरंजन भी करती है.

फिल्म का निर्देशन और कहानी

सुधा कोंगरा ने इस फिल्म का निर्देशन किया है. अपने 22 साल के करियर में उन्होंने दो नेशनल अवार्ड जीते हैं. पहला अवार्ड उन्हें ‘इरुधि सुत्रु’ के लिए मिला था, हिंदी में रिलीज हुई उनकी ‘साला खड़ूस’ उसी नेशनल अवार्ड विनिंग फिल्म का हिंदी वर्जन है. फिर उन्होंने ‘सोरारई पोटरु’ के लिए नेशनल अवार्ड जीता और 2 साल बाद हिंदी में सरफिरा बनाई, शिकायत सिर्फ यही है कि अगर वो इन फिल्मों को हिंदी में बनाते हुए कुछ सीन और प्लॉट में बदलाव लेकर आती तो ये फिल्म देखने में और मजा आता.

आज जब पैन इंडिया का जमाना है तब हर साउथ फिल्म लोग ओटीटी पर देख लेते हैं. बाहुबली से पहले ऐसे नहीं था, तब राउडी राठोड़ हो, बॉडीगार्ड हो या फिर भूल भूलैया, साउथ की फिल्मों से बनी ये फिल्में चल जाती थी. क्योंकि लोग पहले हिंदी फिल्म देखते थे और फिर जब कभी टीवी पर साउथ की हिंदी डब फिल्में रिलीज की जाती थी तब पता चलता था कि ये फिल्म हमने हिंदी में भी देखी है. वो तो भला हो ‘गोल्डमाइन’ (यूट्यूब चैनल) का जो हमें ये राज पता चला कि पहले साउथ में फिल्में बनती है और फिर उनके हिंदी रीमेक बनाए जाते हैं.

सुधा कोंगरा जैसी निर्देशक जब फिल्म बना रही है तब उनसे ये उम्मीद जरूर है कि वो फिल्म में कुछ तो ओरिजिनल कंटेंट रखें, उदाहरण के तौर पर बात की जाए तो जब मणिरत्नम ने रावण बनाई थी तब उन्होंने ये फिल्म हिंदी और तमिल दोनों भाषाओं में बनाई थी. तमिल फिल्म में रावण का किरदार (जो हिंदी में अभिषेक बच्चन ने निभाया था) विक्रम ने निभाया था और वो ही विक्रम हिंदी में ऐश्वर्या राय के पति का किरदार निभाते हुए नजर आए थे. फिल्म की स्क्रिप्ट में भी कई बदलाव किए गए थे, कुछ लोकेशन भी अलग थे. रोहित शेट्टी की सिंघम 1 भले ही सूर्या की सिंघम का रीमेक था कि लेकिन उन्होंने हिंदी फिल्म का क्लाइमेक्स पूरी तरह से बदल दिया था. अगर सुधा कोंगरा भी ‘सरफिरा’ में कुछ बदलाव करतीं तो उसे देखने में और मजा आ जाता. खैर, मैंने ‘सोरारई पोटरु’ देखी है इसलिए मैं सुधा कोंगरा से ‘सरफिरा’ का क्रेडिट नहीं छीनूंगी. उन्होंने स्क्रीनप्ले पर खूब मेहनत की है. पूरी शूटिंग रियल लोकेशन में करना आसान बात नहीं थी लेकिन उन्होंने वो कर दिखाया है और इसलिए फिल्म भी रिफ्रेशिंग लग रही है. ये कहानी भी उन्होंने लिखी है और स्क्रीनप्ले लिखते हुए इस बात का पूरा ख्याल रखा गया है कि ऑडियंस बोर न हो जाए. हालांकि इसका श्रेय सिर्फ राइटर और डायरेक्टर को नहीं बल्कि एक्टर्स को भी देना होगा.

एक्टिंग

सरफिरा’ अक्षय कुमार के करियर के कुछ बेहतरीन फिल्मों में से एक हैं. इस फिल्म से वो साबित करते हैं कि उम्र सिर्फ एक नंबर है. 57 साल के अक्षय कुमार इस फिल्म में पापा के खिलाफ जाने वाले बिगड़ैल नौजवान बने हैं, देश के लिए जान कुर्बान करने वाले पायलट बने हैं, शादी न होने वाले अधेड़ उम्र के दूल्हे बने हैं और अपने सपने के लिए जमीन-आसमान एक करने वाले एक ‘सिरफिरे’ बिजनेसमैन भी बने हैं. कभी जुनून, कभी बेबसी, कभी दीवानापन, कभी बेचैनी, हर इमोशन अक्षय कुमार बड़ी ही ईमानदारी से हमारे सामने पेश करते हैं.

फिल्म में एक सीन है जहां पापा के अंतिम समय में उनके पास रहने के लिए वीर म्हात्रे हर मुमकिन कोशिश करता है लेकिन आखिरकार वो तब अपने घर पहुंचता है जब सब कुछ खत्म हो जाता है. देखा जाए तो ऐसे सीन हमने कई फिल्मों में देखे हैं, इसमें कोई नई बात नहीं है. लेकिन अक्षय कुमार ने जिस शिद्दत से ये सीन किया है, वो देखकर हमारी आंखों में आंसू आ जाते हैं. राधिका मदान भी अपने किरदार को न्याय देती हैं. लेकिन अपर्णा बालमुरली (सोरारई पोटरु) ज्यादा अच्छी थी. परेश रावल और सीमा बिस्वास का काम भी अच्छा है.

देखे या न देखें

सपना देखना और सपना सच करना, इन दोनों में कितना फर्क है, ये जानने के लिए ये फिल्म देखना जरूरी है. सपना जितना बड़ा उतनी उसे पूरा करने के रास्ते में आने वाली मुश्किलें बड़ी होती है, लेकिन अक्षय कुमार की ‘सरफिरा’ हमें सिखाती है कि इन मुश्किलों से हार नहीं माननी चाहिए. पता नहीं क्यों इस फिल्म को देखते हुए बार बार मुझे महाराष्ट्र में चल रहा एक केस याद आ रहा था.

दरअसल एक IAS इंटर्न इन दिनों काफी चर्चा में हैं. महाराष्ट्र कैडर की इस अधिकारी पर कुछ बड़े आरोप लगाए गए हैं. इन आरोपों में से एक है फर्जी दिव्यांगता और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) प्रमाण पत्र की मदद से IAS की नौकरी हथियाना. एक आरोप ये भी है कि करोड़पति मां बाप की इस बेटी ने पोस्ट मिलने से पहले अपनी ऑडी पर लाल नीली बत्ती, वीआईपी नंबर, बाथरूम वाला ऑफिस, प्राइवेट गाडी पर भारत सरकार की नंबर प्लेट की डिमांड की थी. फिल्म देखने के बाद ऐसा ख्याल आया कि एक बार फेल होने के बाद नई उम्मीद से एमपीएससी की तैयारी में जुटने वाले उन युवाओं के लिए भी ऐसे सरफिरे की जरूरत है.

ये उदहारण देकर रिव्यू की लंबाई बढ़ाने की वजह सिर्फ यही थी कि आम आदमी को कोई भी चीज आसानी से नहीं मिलती, फिर वो सिविल सर्विस में लगने वाली नौकरी हो या फिर आसमान में उड़ने का उनका सपना हो. जहां विजय माल्या और इस IAS इंटर्न जैसे लोग अपना सपना चुटकी में पूरा कर लेते हैं, वहां हम जैसे लोग एक सपने के लिए अपनी जिंदगी खर्च कर लेते हैं, लेकिन ये फिल्म बताती है कि हार नहीं माननी है. एक कोशिश ऐसी करो कि पीछे मुड़कर जब आप जिंदगी को देखें तब आपको ये पछतावा न हो कि हमने वो आखिरी कोशिश क्यों नहीं की. ये बात और बेहतर समझने के लिए थिएटर में जाकर जरूर देखें अक्षय कुमार की ‘सरफिरे’.

Advertisement
Next Article