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बोतल तोड़ जनप्रतिनिधि

भारत की संस्कृति में लोकतंत्र की भावना हजारों सालों से मौजूद रही है। सफल लोकतंत्र में यह अपेक्षा हमेशा से रही है

10:52 AM Oct 23, 2024 IST | Aditya Chopra

भारत की संस्कृति में लोकतंत्र की भावना हजारों सालों से मौजूद रही है। सफल लोकतंत्र में यह अपेक्षा हमेशा से रही है

बोतल तोड़ जनप्रतिनिधि

भारत की संस्कृति में लोकतंत्र की भावना हजारों सालों से मौजूद रही है। सफल लोकतंत्र में यह अपेक्षा हमेशा से रही है कि इसमें भाग लेने वाले निर्वा​िचत जनप्रतिनिधि अलग-अलग विचारधाराओं के पक्षधर होने के बावजूद संसदीय व्यवहार में शालीनता, सद्भाव, संयम और संवाद बनाए रखें। हिन्दी साहित्य के महान लेखक मुंशी प्रेमचंद की कालजयी कहानी ‘पंच परमेश्वर’ भारत की राजधर्म पालन की परम्परा को स्पष्ट ढंग से दिखाती है। राजधर्म की परम्परा ही आज तक हमें राह दिखाती आई है। संसदीय प्रणाली में राजनीतिक दल पक्ष और विपक्ष के रूप में काम करते हैं। विचारों की भिन्नता लोकतंत्र की एक खूबसूरती की तरह है। मतभेदों के बावजूद लोकतंत्र में मर्यादाएं बनीं रहनी चाहिए।

सभी माननीय सांसद देश के लिए नीतियां, नियम और कानून बनाते हैं। सारा देश, विशेषकर युवा पीढ़ी उनकी ओर देखती है, उनके आचार-विचार-व्यवहार का सूक्ष्म अवलोकन और निरीक्षण करती है और उनका अनुकरण करने को उद्धृत रहती है। ऐसे में यदि संसद और सांसदों, विधान सभाओं के सदस्यों तथा पंचायत के ‘पंच परमेश्वरों’ की साख में कमी आए, सत्ता-पक्ष और विपक्ष के बीच का व्यवहार शालीनता पूर्ण और पारस्परिक सम्मान का न हो, तो सारे देश को चिंता तो करनी ही होगी। इसे यह कह कर छोड़ा नहीं जा सकता है कि ऐसा तो अनेक वर्षों से हो रहा है, यह नहीं बदलेगा।

वक्फ संशोधन अधिनियम पर संयुक्त संसदीय समिति की बैठक में तृणमूल सांसद कल्याण बनर्जी ने भाजपा सांसद से बहस के दौरान कांच की बोतल तोड़कर और उसके टुकड़े समिति के अध्यक्ष जगदंबिका पाल की तरफ फैंक कर जो अमर्यादित आचरण दिखाया वह लोकतंत्र को शर्मसार करने वाला है। बोतल तोड़ने पर कल्याण बनर्जी खुद भी चो​िटल हुए। उन्हें अपने इस व्यवहार के लिए संसदीय समिति से एक दिन के लिए निलंबित भी कर दिया गया है। जनप्र​ितनिधियों का ऐसा व्यवहार कोई नया नहीं है। विधान सभाओं से लेकर संसद तक में जनप्रतिनिधियों के बीच माइक तोड़ने, एक-दूसरे पर फैंकने और हाथापाई के दृश्य हम पहले भी कई बार देख चुके हैं। कल्याण बनर्जी का तो विवादों से पुराना रिश्ता रहा है। 2009 में कल्याण बनर्जी पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य पर आलोचनात्मक टिप्पणी करने के बाद चर्चा में आए। उसके बाद कभी किसी सांसद से उलझने पर किसी से तीखी बहस करने पर अखबारों में छाए रहे। नोटबंदी के बाद उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ विवादित टिप्पणी की थी। भगवान राम और सीता पर भी उनकी विवादित टिप्पणी पर सियासत में खूब बवाल मचा था। पिछले साल के अंत में संसद सत्र के दौरान उन्होंने उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की मिमिक्री की थी। तब उनकी काफी निंदा की गई थी। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहते हुए भी कल्याण बनर्जी की जगदीप धनखड़ के साथ जबरदस्त बहस हुई थी। चौ​थी बार सांसद बने कल्याण बनर्जी से ऐसे व्यवहार की उम्मीद नहीं की जा सकती।

कल्याण बनर्जी सुप्रीम कोर्ट और कलकत्ता हाईकोर्ट में वरिष्ठ वकील हैं। वह टीएमसी की ओर से कलकत्ता हाईकोर्ट में कई बड़े मामलों में दलील रख चुके हैं। कल्याण बनर्जी ने बी. कॉम से स्नातक और एल.एल.बी. की पढ़ाई की है। कल्याण बनर्जी 1981 से लगातार कलकत्ता हाईकोर्ट में प्रैक्टिस कर रहे हैं। रिजवानुर रहमान केस, नंदीग्राम से संबंधित प्रकरण, छोटा अंगारिया केस, भिखारी पासवान केस, सिंगुर में धारा-144 लगाने और कई भूमि अधिग्रहण मामलों में टीएमसी की तरफ से केस लड़ चुके हैं।

कभी वह दौर था जब देश में राजनी​ितज्ञों का जबरदस्त सम्मान था। हमने देश में अनेक ऐसे नेताओं को देखा है जो सार्वजनिक जीवन में ​िवनम्रता के मार्ग पर चले। कभी उनमें अहंकार भी नहीं देखा गया। वे हमेशा जनता से जुड़े रहे। उनके सुख-दुख में भागीदार बने। अपनी गलतियां स्वीकार करने में भी उन्होंने कभी परहेज नहीं किया। यही कारण रहा कि उनके ताउम्र लाखों लोग समर्थक बने रहे। आज की सिसायत में हम अहंकारी, आत्ममुग्ध, बात-बात पर धमकाने वाले और दूसरों पर हमेशा हावी होने की कोशिश करने वाले वुल्फ स्टीरियो टाइप नेताओं को देख रहे हैं। समाज में जनप्रतिनिधि ही परिवर्तन के संवाहक होते हैं। वे चाहे तो समाज में अंतिम छोर पर खड़े लोगों के जीवन को मानवीय गरिमा प्रदान कर सकते हैं ले​िकन आज के नेताओं के गिर​िगटी रंगों, उनकी नौटंकी, खुदगर्जी और स्वार्थ को देखकर उनसे बेहतरी की उम्मीद करना ही अर्थहीन लगता है। संसद में पूछे जाने वाले सवालों के बदले धन लेने, समर्थन हासिल करने के लिए वोट के बदले नोट के खेल हम पहले भी देख चुके हैं। सांसदों की छवि बहुत संवेदनशील होती है। सांसदों का आचरण सार्वजनिक ​वाद-विवाद का मुद्दा बनता है। जनप्रतिनिधियों को देश के समक्ष अनुकरणीय आचरण प्रस्तुत करना होगा और अपनी छवि को अनुभव, ज्ञान और प्रतिभा से सम्पन्न और ईमानदार दिखाना होगा तभी उनका सम्मान और साख बचेगी। अगर ऐसा होगा तो लोकतंत्र में मानवीय मूल्य बचे रहेंगे।

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Aditya Chopra

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