भाई-बहन की जोड़ी
‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर लंबे समय से प्रतीक्षित बहस अंततः संसद में हुई, हालांकि यह बिना बाधा के नहीं रही। विपक्ष ने पहले बहस की मांग को लेकर सदन की कार्यवाही रोक दी और जब सरकार ने चर्चा के लिए समय निर्धारित किया तो ऐन मौके पर एक नया मुद्दा उठाकर फिर से व्यवधान पैदा किया।
मानसून सत्र के पहले दिन ही लोकसभा की कार्यवाही उस समय स्थगित करनी पड़ी, जब विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के उस बयान पर जवाब मांगा जिसमें उन्होंने दावा किया था कि भारत और पाकिस्तान के बीच शांति अमेरिका के हस्तक्षेप के बाद संभव हुई। सदन में “प्रधानमंत्री जवाब दो” के नारे लगे और लोकसभा की कार्यवाही शुरू होने के बीस मिनट के भीतर ही स्थगित कर दी गई।
बाद में सरकार ने बहस के लिए सहमति दी और लंबी चर्चा के लिए समय भी तय कर दिया गया लेकिन अंतिम क्षणों में विपक्ष ने मुद्दा बदलते हुए बिहार की मतदाता सूची में एसआईआर रिपोर्ट पर चर्चा की मांग कर दी। इससे एक बार फिर कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी। केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने इसे ‘यू-टर्न’ बताते हुए कहा-कांग्रेस और अन्य दल अब उस चर्चा से क्यों भाग रहे हैं, जिसकी वे दो महीने से मांग कर रहे थे, यह देश के साथ धोखा है। बहस से बचने के लिए बहाने खोजे जा रहे हैं।
विवादों और पेचीदगियों के बावजूद बहस संसद में हुई लेकिन उसमें नाटकीयता की पूरी झलक थी,चर्चा से पहले भी और उसके दौरान भी। चर्चा से पहले कांग्रेस सांसद शशि थरूर और मनीष तिवारी पर विशेष ध्यान केंद्रित रहा, जिन्हें पार्टी ने अपने चुने हुए वक्ताओं की सूची में शामिल नहीं किया था। ध्यान देने योग्य है कि थरूर और तिवारी, दोनों ही ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद सरकार द्वारा गठित उस सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा थे जिसने विभिन्न देशों का दौरा किया था। यह सैन्य अभियान पहलगाम आतंकी हमले के जवाब में किया गया था, जिसमें 26 लोग मारे गए थे।
इन दोनों सांसदों की भूमिका एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न रही। खबरों के अनुसार थरूर से बोलने का आग्रह किया गया था लेकिन उन्होंने इन्कार कर दिया। वहीं मनीष तिवारी स्वयं बोलना चाहते थे लेकिन उन्हें अनुमति नहीं दी गई। थरूर ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि वह पार्टी लाइन का अनुसरण नहीं करेंगे। उनके अनुसार ‘ऑपरेशन सिंदूर’ एक सफल सैन्य कार्रवाई थी और इसकी आलोचना करना उचित नहीं होगा।
इसके बावजूद थरूर चर्चा के केंद्र में बने रहे, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस पर तंज कसते हुए कहा-कुछ नेताओं को लोकसभा में बोलने से इसलिए रोका गया क्योंकि कांग्रेस को भारत के पक्ष में रखे गए रुख से पीड़ा थी। कुछ वर्षों पूर्व जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्यसभा में विपक्ष के तत्कालीन नेता गुलाम नबी आज़ाद को विदाई दी थी तो वह दृश्य भावुकता से भरा हुआ था। प्रधानमंत्री ने नम आंखों से आज़ाद को ‘सच्चा मित्र’ बताया था और कहा था कि वे आगे भी उनसे परामर्श लेते रहेंगे। आज़ाद ने भी प्रधानमंत्री की प्रशंसा करते हुए कहा था कि वे हर विषय में एक ‘व्यक्तिगत स्पर्श’ लेकर आते हैं।
थरूर को लेकर प्रधानमंत्री की हालिया टिप्पणी उसी भावनात्मक लहजे की याद दिलाती है। दिलचस्प बात यह है कि उस घटना के एक वर्ष के भीतर ही गुलाम नबी आज़ाद ने कांग्रेस छोड़ अपनी पार्टी बनाई, जो ज्यादा प्रभाव नहीं छोड़ सकी। जहां तक शशि थरूर की बात है, उनके लिए इस बहस का प्रमुख शब्द रहा- मौनव्रत। मनीष तिवारी ने भी कुछ ऐसा ही रुख अपनाया। उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा “यदि आप मेरी चुप्पी नहीं समझ सकते तो मेरी बातें कभी नहीं समझ पाएंगे।” दिन की शुरुआत में ही तिवारी ने संकेत दिया था कि वे पार्टी के बजाय भारत की बात करेंगे। इसे सिद्ध करते हुए उन्होंने मनोज कुमार की देशभक्ति पर बनी फिल्म ‘पूरब और पश्चिम’ का गीत उद्धृत किया “भारत का रहने वाला हूं, भारत की बात सुनाता हूं।” थरूर की बेरुखी और तिवारी की काव्यात्मक प्रतिक्रिया से आगे बढ़ें तो संसद की बहस में भाषण, नाटकीयता और आत्मविश्वास से भरे वक्तव्य अवश्य थे, हालांकि गुणवत्ता के लिहाज से वे कुछ खास नहीं कहे जा सकते।
कांग्रेस की ओर से बहस की शुरुआत उपनेता गौरव गोगोई ने की लेकिन चूंकि वे एक मध्य स्तरीय नेता हैं और वक्तृत्व कौशल के लिए विशेष रूप से पहचाने नहीं जाते, उनकी शुरुआत फीकी रही। उनके ऊंचे स्वर ने जरूर ध्यान खींचा और उद्घाटन वक्ता होने का लाभ मिला लेकिन यहीं तक। इस भूमिका के लिए गोगोई का चयन कांग्रेस में ऊर्जावान और प्रभावशाली वक्ताओं की कमी को दर्शाता है।
इसके बाद जिस ओर सबकी निगाहें थीं, वे थे राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। ये तीनों इस बहस के प्रमुख किरदार रहे। प्रधानमंत्री मोदी के भाषण की मुख्य बातें थीं, किसी भी अंतर्राष्ट्रीय नेता ने भारत-पाकिस्तान संघर्ष विराम में मध्यस्थता नहीं की, अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस से कहा कि यदि पाकिस्तान हमला करेगा तो भारत और अधिक तीव्रता से प्रत्युत्तर देगा, पंडित नेहरू पर पाकिस्तान को बांध निर्माण के लिए वित्तीय सहायता देने का आरोप और यह कि पहलगाम हमले में धर्म के आधार पर लोगों को निशाना बनाया गया।
इसी अंतिम बिंदु पर प्रियंका गांधी ने हस्तक्षेप किया और भावनात्मक प्रभाव छोड़ा। उन्होंने संसद में उन 25 भारतीयों के नाम पढ़े, जो आतंकियों की गोलियों का शिकार बने। जैसे ही उन्होंने पहला नाम पढ़ा, सत्ता पक्ष की ओर से ‘हिंदू’ का नारा लगा, जिस पर प्रियंका ने दो टूक जवाब दिया ‘भारतीय’। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि उनकी प्राथमिकता धर्म नहीं, देश है। हंगामे के बीच भी प्रियंका गांधी ने अपने संदेश को मजबूती और संवेदनशीलता से रखा। उन्होंने यह भी संकेत दिया कि कांग्रेस सांप्रदायिक राजनीति से ऊपर है। अपने पूरे भाषण में प्रियंका ने संवेदना और तथ्य को संतुलित रूप से पिरोया। कोई नाटकीयता नहीं, कोई दिखावटी शैली नहीं सिर्फ दिल से निकली बातें जो सीधे दिल तक पहुंचीं। उन्होंने अपनी मां के आंसुओं और अपने पिता की आतंकवादियों द्वारा हत्या का ज़िक्र करते हुए पहलगाम पीड़ित परिवारों के दर्द से खुद को जोड़ा।
साथ ही, वे आक्रामक, मुखर और स्पष्ट थीं। उन्होंने सरकार पर तीखा हमला बोलते हुए कहा कि वह पहलगाम हमले की ज़िम्मेदारी लेने के बजाय नेहरू और इंदिरा गांधी के दौर की ओर भाग जाती है। उन्होंने भरे हुए सदन में कहा-आप इतिहास की बात करते हैं, मैं वर्तमान की करूंगी।
वहीं राहुल गांधी, अपेक्षित रूप से अतीत में लौटे। उन्होंने इंदिरा गांधी और फिर यूपीए सरकार की उपलब्धियों को रेखांकित किया। प्रधानमंत्री मोदी पर सीधा निशाना साधते हुए उन्होंने कहा-अगर प्रधानमंत्री में इंदिरा गांधी की 50% भी हिम्मत है तो वे संसद में खड़े होकर कहें कि डोनाल्ड ट्रंप झूठ बोल रहे हैं। यह राहुल गांधी अब वह नहीं हैं जिन्हें पहले कभी ‘पप्पू’ कहकर उपहास उड़ाया जाता था, अब वे एक परिपक्व नेता के रूप में उभर रहे हैं। भारत की अंतर्राष्ट्रीय स्थिति पर राहुल ने कहा कि पहलगाम हमले के बाद किसी भी देश ने पाकिस्तान की निंदा नहीं की। “यूपीए सरकार के दौरान पाकिस्तान को आतंकवाद के लिए वैश्विक मंचों पर घेरा जाता था,” उन्होंने कहा, और सदन ने गंभीरता से उन्हें सुना। हालांकि उनके भाषण में ‘घूसा’, ‘थप्पड़’, ‘झापड़’ जैसे शब्द शामिल थे, जो शायद हटाए जा सकते थे परंतु यही राहुल गांधी की शैली है जो अक्सर संसद में भी सड़क की राजनीति का स्वर ला देते हैं।
मामले के तथ्यों की बात करें तो राहुल गांधी ने प्रियंका गांधी की तुलना में अधिक ठोस बिंदु रखे लेकिन दोनों ने मिलकर सरकार और विशेष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर जितना तीखा हमला इस बार किया, वैसा पहले कम ही देखा गया। राहुल बनाम प्रियंका की तुलना करना या ‘गांधी बनाम गांधी’ की बहस शुरू करना गलत होगा। राजनीतिक रूप से यह सवाल खड़ा किया जा सकता है कि कौन बेहतर है लेकिन उनके आपसी संबंध और तालमेल को देखते हुए यह कहना कि प्रियंका अपने भाई को पीछे छोड़ रही हैं, एक भ्रम मात्र है। इन्हें एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी के रूप में नहीं, बल्कि एक संयुक्त शक्ति के रूप में देखा जाना चाहिए और शायद यही भाजपा के सामने खड़ी तात्कालिक चुनौती भी है। भाई-बहन की जोड़ी जो एकजुट होकर प्रधानमंत्री मोदी और उनकी टीम को घेरने को तैयार है।
चुनावी स्तर पर गांधी परिवार की यह टीम अभी भाजपा को परास्त करने में सक्षम नहीं दिखती लेकिन राजनीतिक छवि और सार्वजनिक धारणा के लिहाज से इन्होंने निश्चित रूप से एक दूरी तय कर ली है लेकिन यहीं पर यह रुक जाता है, क्योंकि जब बात मोदी बनाम राहुल की तुलना की आती है तो सत्तर पार के इस नेता (मोदी) की जीत तय मानी जाती है। राहुल भले ही अपनी चुटीली बातों से सुर्खियां बटोर रहे हों लेकिन शासन देने की क्षमता को लेकर अब भी एक बड़ा सवाल बना हुआ है। अधिकांश विवेकशील भारतीय अब भी मोदी पर भरोसा करते हैं चाहे वह कितने ही विवादास्पद क्यों न हों। निचोड़ यह है कि राहुल गांधी ने काफी दूरी तय की है लेकिन केवल एक विपक्षी नेता के रूप में। नरेंद्र मोदी की जगह लेना फिलहाल उनके लिए एक सपना ही बना रह सकता है।