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बुलडोजर संस्कृति अमान्य

लोकतान्त्रिक भारत में बुलडोजर संस्कृति के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। इसका कारण यह है

10:11 AM Nov 07, 2024 IST | Aditya Chopra

लोकतान्त्रिक भारत में बुलडोजर संस्कृति के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। इसका कारण यह है

बुलडोजर संस्कृति अमान्य

लोकतान्त्रिक भारत में बुलडोजर संस्कृति के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि भारत संविधान से चलने वाला देश है और संविधान प्रत्येक नागरिक को जीवन जीने से लेकर व्यवसाय चुनने तक का अधिकार देता है। किसी के घर को तोड़ने से पहले कानूनी प्रक्रिया का पूरा होना जरूरी होता है। किसी भी नागरिक को वैध तरीके से अपना मकान बनाने का अधिकार भी कानून ही देता है और किसी भी परिवार में किसी एक व्यक्ति के खतावार होने की सजा परिवार के किसी दूसरे व्यक्ति को नहीं दी जा सकती। एक परिवार में बूढे़ मां- बाप से लेकर अबोध बच्चे तक रहते हैं अतः किसी एक सदस्य के खतावार होने की सूरत में परिवार के हर सदस्य का आशियाना कैसे तोड़ा जा सकता है। मगर उत्तर प्रदेश से शुरू हुई बुलडोजर संस्कृति कुछ दूसरे राज्यों में भी फैली और वहां की सरकारों ने भी उत्तर प्रदेश का अनुसरण किया। दुखद यह है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री को बुलडोजर बाबा तक का नाम दे दिया गया। इससे भी दुखद यह है कि उन्होंने बुलडोजर को अपना ‘ट्रेड मार्क’ बना लिया।

लोकतन्त्र में प्राकृतिक न्याय का बहुत महत्व होता है। प्राकृतिक न्याय कहता है कि किसी एक व्यक्ति के कर्मों की सजा किसी दूसरे व्यक्ति को नहीं मिल सकती। इस मामले में हिन्दू संस्कृति भी बहुत स्पष्ट रूप से निर्देश देती है कि हर व्यक्ति को अपने पापों की सजा स्वयं ही भुगतनी होती है। महृर्षि वाल्मीकि के डाकू होने से साधू होने की कहानी हमें बतलाती है कि किस प्रकार वह साधू बने। उनकी पूरी कहानी लिखने का यहां कोई अर्थ नहीं है क्योंकि प्रत्येक भारतीय जानता है कि वाल्मीकि के जीवन में आधारभूत बदलाव किस प्रकार आया। इसका कारण यह था कि उनके साधू बनने से पहले उनकी पत्नी सहित परिवार के हर सदस्य ने उन्हें टका सा जवाब दे दिया था कि वे उनके पाप कर्मों के सहभागी नहीं हैं। अतः 21वीं सदी में हम किस प्रकार किसी व्यक्ति के दुष्कर्मों की सजा उसके पूरे परिवार को दे सकते हैं। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय पहले ही फैसला दे चुका है कि किसी आरोपी की बात तो छोड़िये किसी दोषी के मकान पर भी बुलडोजर नहीं चलाया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस आशय का आदेश सभी राज्य सरकारों को दिया है मगर कल न्यायालय ने अतिक्रमण के नाम पर भी तोड़े गये मकानों के मामले में जो फैसला दिया है वह भारत में कानून के राज को ही स्थापित करता है।

2019 में उत्तर प्रदेश सरकार ने सड़कें चौड़ी करने के नाम पर जिस प्रकार अतिक्रमण को लेकर लोगों के मकान गिराये उस पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने नाखुशी जाहिर की है और कहा है कि मकान मालिकों को बिना विधिवत नोटिस दिये मकान नहीं तोड़े जा सकते। इस मामले में न्यायालय ने देश के सभी राज्यों व केन्द्र प्रशासित क्षेत्रों को निर्देश दिया कि वे अतिक्रमण हटाने के नाम पर केवल मुनादी करा कर किसी का मकान नहीं तोड़ सकते। लोकतन्त्र में सरकार किसी भूमाफिया की तरह व्यवहार नहीं कर सकती। हिन्दी फिल्मों में हम देखते हैं कि किस प्रकार भूमाफिया लोगों से जमीन खाली कराता है। लोकतन्त्र में कोई भी सरकार लोगों की अपनी सरकार होती है क्योंकि लोग ही अपने एक वोट की ताकत से उसे चुनते हैं और संविधान लोगों को मूलभूत अधिकार देता है अतः उनके जीवन जीने के अधिकार की रक्षा संविधान ही करता है। सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश के महाराजगंज जिले में सड़क चौड़ी करने के नाम पर जिस व्यक्ति का मकान तोड़ा गया था उसे 25 लाख रुपए मुआवजा देने का आदेश भी दिया क्योंकि उसका घर तोड़ने से पहले कोई कानूनी औपचारिकता पूरी नहीं की गई थी। उसका मकान सड़क चौड़ी करने की परियोजना के चलते रातोंरात गिरा दिया गया था। यह फैसला मुख्य न्यायाधीश श्री डी.वाई. चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने दिया। श्री चन्द्रचूड़ ने उत्तर प्रदेश सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि एेसा कैसे हो सकता है कि घर तोड़ने से पहले मुनादी करा दी जाये और रातोंरात बुलडोजर लाकर लोगों के मकान तोड़ दिये जायें। लोगों को घर खाली करने का समय भी नहीं दिया जाता।

सवाल यह है कि कोई भी व्यक्ति अपना घर बहुत मुश्किलों से बनाता है। उसकी पूरी जिन्दगी अपना घर बनाने में ही लग जाती है और जब उसे रातोंरात तोड़ दिया जाता है तो वह व्यक्ति अपने पूरे परिवार सहित खुले आसमान के नीचे आ जाता है। यह प्राकृतिक न्याय के पूरी तरह विरुद्ध है। भारत की न्याय संहिता कहती है कि चाहे सौ दोषी छूट जायें मगर किसी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए मगर घर तोड़ने के मामले में इसका ठीक उल्टा होता है। जहां तक सड़क चौड़ी करने की परियोजनाओं का सवाल है तो सर्वोच्च अदालत ने दिशा-निर्देश दिये कि राज्य सरकारें पहले मौजूदा सड़कों के मानचित्रों में देखें कि कहां पर अवैध अतिक्रमण है फिर तदनुसार कानूनी कार्रवाई करें अर्थात मकान मालिकों को नोटिस आदि दें और इसकी कानूनी पेचीदगियों में जायें। जाहिर है कि हमारे देश की सर्वोच्च अदालत प्राकृतिक न्याय के दायरे में ही इस समस्या का हल ढूंढ़ना चाहती है। दूसरी तरफ हमें यह भी देखना होगा कि भारत की आबादी अब बढ़ कर 140 करोड़ से अधिक हो चुकी है अतः आवास की समस्या लगातार और विकट होती जायेगी अतः एेसे माहौल में बुलडोजर संस्कृति का कोई स्थान नहीं हो सकता।

आदित्य नारायण चोपड़ा

Adityachopra@punjabkesari.com

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