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सीबीआई : जांच की छांव में!

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09:00 AM Oct 26, 2018 IST | Desk Team

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देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने जब एक अप्रैल 1963 को दिल्ली विशेष पुलिस संस्थान का विस्तार करके अपने गृहमंत्रालय के जरिये जारी आदेश के तहत इसे केन्द्रीय जांच अन्वेषण ब्यूरो का नाम देते हुए एेलान किया था कि यह संस्था देश के समस्त क्षेत्रों में राज्य सरकारों की सहमति से विभिन्न उच्च पदों पर व्याप्त भ्रष्टाचार के मामलों की जांच का काम निष्पक्ष तरीके से बिना किसी राजनीतिक हस्तक्षेप के करेगी तो भारतीय लोकतन्त्र में यही भाव जगा था कि आम जनता जिन लोगों के हाथ में पांच वर्ष के ​िलए सत्ता अपने एक वोट के अधिकार के आधार पर सौंपती है वे इस मुल्क की जनता के एेसे नौकर हैं जिनके हाथ में इसकी सम्पत्ति की देखभाल बिना किसी नुक्सान के पूरी मुस्तैदी के साथ हो सकेगी और शासन-व्यवस्था चलाने में वे किसी प्रकार की सौदेबाजी नहीं करेंगे और न ही किसी भी लालच में पड़कर अपने पद के अधिकारों का दुरुपयोग करेंगे। इस सीबीआई (केन्द्रीय जांच अन्वेषण ब्यूरो) का काम आसान नहीं था।

पं. नेहरू जैसे युगदृष्टा राजनेता के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए किसी पुलिस अधिकारी के नियन्त्रण में शासन की शुचिता की जिम्मेदारी देने का मतलब बहुत सीधा था कि लोकतन्त्र की शुचिता किसी भी रूप में राजनीतिक दांवपेंचों के पेंचोखम में उलझ कर नहीं रहनी चाहिए और मंत्री से लेकर सन्तरी तक को यह डर रहना चाहिए कि कोई एेसी ताकत है जिसकी नज़रों में उसकी कारगुजारियां आ सकती हैं परन्तु यह अधिकार संसद या विधानसभा की शक्ति से ऊपर नहीं था। इसी वजह से जांच की नियमावली इस प्रकार तय की गई जिससे उच्च पदों पर बैठे व्यक्तियों के विरुद्ध संस्थानगत-व्यक्तिगत मतभेदों या मनमुटाव के आधार पर फर्जी शिकायतों को जरिया न बनाया जा सके परन्तु जाहिर है कि आज के दौर की राजनीति नेहरू दौर की राजनीति से पूरी तरह उलट है जिसमें लोकलज्जा से चलने वाले लोकतन्त्र के लिए कोई स्थान शायद ही बचा है। नई सदी में हमारी नौकरशाही भी पूरी तरह बदल चुकी है और राजनीति के तेवर तो हम देख ही रहे हैं जो रात को दिन और दिन को रात की तरह पेश करने में माहिर हो चुकी है।

सीबीआई में चल रहा गृहयुद्ध इसी हताशा और निराशा का परिणाम कहा जा सकता है जिसमें यह पता ही नहीं चल रहा है कि गवाही किसके हक में हो रही है। असली सवाल यह है कि जब किसी संस्थान का प्रमुख अपने किसी मातहत अफसर के खिलाफ लगे हुए आरोपों की जांच के लिए अपने अधिकारों का प्रयोग करता है तो उसका मातहत अफसर भी उसके खिलाफ आरोप लगाकर किस तरह अपने पाक-साफ होने का सबूत दे सकता है? यह प्राकृतिक न्याय का सवाल है कि कीचड़ को किस तरह कीचड़ से साफ किया जा सकता है? संभवतः पं. नेहरू का वह कथन आज सर्वाधिक प्रासंगिक है जो उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के बारे में दिया था और कहा था कि सरकार को सभी प्रकार के मतों को खुलकर प्रकट होने देना चाहिए और किसी भी तथ्य या बात को पर्दे में करने का विकल्प नहीं चुनना चाहिए क्योंकि इससे विभिन्न प्रकार की अफवाहें जन्म लेती हैं और लोगों में भ्रम पैदा होता है जिससे शासन या सत्ता अथवा राजनीतिक प्रतिष्ठान के प्रति अविश्वास का भाव जन्म लेता है। यह अविश्वास लोकतन्त्र में आस्था को कम करने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाता है। अतः वाजिब सवाल यह है कि क्या हम सीबीआई को उसके प्राथमिक दायित्व से भटकाने का कोई माहौल बनते देखना चाहते हैं ? कोई भी संस्था अनुशासन से ही चल सकती है और अनुशासन कायम रखने की पूरी प्रणाली स्थापित रहती है। हमने 2003 में केन्द्रीय सतर्कता आयोग कानून बनाकर इसे स्वतन्त्र संवैधानिक दर्जा दिया। हालांकि यह पद 1968 में ही सृजित किया जा चुका था और सीबीआई के भीतर तक की भ्रष्टाचार की शिकायतों की सुनवाई का दरवाजा खोला।

संसद से कानून बनकर यह आयोग गठित किया गया। इसके बावजूद सीबीआई में इसके प्रमुख की इच्छा के विरुद्ध दूसरे नम्बर के समझे जाने वाले कथित आरोपों में फंसे अफसर की नियुक्ति हो गई और बाद में हालत यह हो गई कि उसके खिलाफ स्वयं सीबीआई प्रमुख ने ही कानूनी कार्रवाई करने का आदेश दिया तो संस्थागत अनुशासन को हम किस पैमाने में रखकर तोलेंगे। हमने जो भारी कवायद की थी कि सीबीआई प्रमुख के पद पर नियुक्ति भारत के प्रधानमन्त्री, मुख्य न्यायाधीश व लोकसभा में विपक्ष के नेता मिलकर करेंगे उसकी विश्वसनीयता और पवित्रता क्या रहेगी? परन्तु भारत का लोकतन्त्र इतना मजबूत और गतिशील है कि इसकी सर्वोच्च अदालत ने मनमोहन सरकार के कार्यकाल के दौरान केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर विवादित श्री पी.जे. थामस की नियुक्ति को अवैध करार दे दिया था जबकि सतर्कता आयुुक्त को पद की शपथ संविधान के संरक्षक भारत के राष्ट्रपति ही दिलाते हैं।

अतः भारत में कोई भी निर्णय संविधान की समीक्षा से परे नहीं है लेकिन सीबीआई के मामले में सवाल केवल आपस में उलझने वाले दो अफसरों अालोक वर्मा व राकेश अस्थाना का नहीं है बल्कि सर्वोच्च जांच एजैंसी की उस अस्मिता का है जो देश में फैले भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी साख के बूते पर ही विदेशों तक में भारत का प्रतिनिधित्व करती है। यह प्रतिनिधित्व लोकतन्त्र की उस प्रतिष्ठा का भी होता है जिसके बूते पर भारत हर अपराधी तक को अपना पक्ष कानून की बेबाकी के साथ रखने की इजाजत देता है। अतः सीबीआई की साख किसी साख का पतझड़ी फूल नहीं है कि अगले मौसम में वह फिर खिल उठेगा। किसी भी संस्था को बनाने में पी​िढ़यां गुजर जाती हैं तब जाकर उस पर फूल खिलने शुरू होते हैं। अतः देश के सभी राजनीतिक दल इस हकीकत को नजरंदाज न करें। लोकतन्त्र में दल बदलते रहते हैं मगर संस्थान नहीं बदला करते।

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