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सस्ती हो मेडिकल शिक्षा

यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद वहां मेडिकल शिक्षा ग्रहण कर रहे हजारों भारतीय छात्रों का भ​विष्य अधर में लटक गया है।

02:41 AM Mar 02, 2022 IST | Aditya Chopra

यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद वहां मेडिकल शिक्षा ग्रहण कर रहे हजारों भारतीय छात्रों का भ​विष्य अधर में लटक गया है।

सस्ती हो मेडिकल शिक्षा
यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद वहां मेडिकल शिक्षा ग्रहण कर रहे हजारों भारतीय छात्रों का भ​विष्य अधर में लटक गया है। उनके भारत लौटने से परिवारों को राहत मिली है लेकिन अगर यह लड़ाई लम्बी चलती है और अस्थिरता का वातावरण बना रहता है तो फिर इन छात्रों की पढ़ाई का क्या होगा? फिलहाल भारतीय छात्रों की जिदंगियां बचाना और उनकी सुरक्षित वापसी ही प्राथमिकता है, क्योंकि ‘जान है तो जहान है।’ एक सवाल हमारे सामने है कि यदि अपने देश में मेडिकल शिक्षा सस्ती और सहज उपलब्ध होती तो छात्रों को यूक्रेन जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। देश में प्राइवेट शिक्षा संस्थानों ने मेडिकल शिक्षा को बाजार बना डाला है।
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मेडिकल शिक्षा ही क्यों देश में पूरी शिक्षा व्यवस्था का बाजारीकरण हो चुका है। यद्यपि यूक्रेन की एमबीबीएस की डिग्री हमारे देश में सीधे मान्य भी नहीं है फिर भी छात्र अपने देश के संस्थानों को छोड़ कर यूक्रेन क्यों जाते हैं। दरअसल यूक्रेन जैसे देशों में दाखिला लेना कहीं ज्यादा आसान है और फीस के मामले में भी कहीं ज्यादा सस्ता है। अगर उत्तर प्रदेश के ​शिक्षण संस्थानों से तुलना की जाए तो यहां की एक साल की फीस में यूक्रेन में पूरा एमबीबीएस हो जाता है। भारत में कई कालेजों में छात्रों को पांच साल में एक करोड़ से भी ज्यादा फीस देनी पड़ती है। इसके अलावा अभिभावकों को बच्चों के खानपान का खर्चा भी उठाना पड़ता है। यूक्रेन और  चीन में 15 से 20 लाख में भी छात्र डाक्टर बन जाते हैं लेकिन पढ़ाई की गुणवत्ता की कोई गारंटी नहीं है। यूक्रेन और चीन से एमबीबीएस करने वालों को देश में सीधे प्रैक्टिस करने पर रोक है। इसके लिए नैशनल मेडिकल कौंसिल हर साल परीक्षा आयोजित करता है। वहां से ​डिग्री पूरी करने के बाद छात्रों को यह परीक्षा पास करने पर ही उन्हें यहां प्रैक्टिस की अनुमति ​मिलती  है। स्थिति यह है कि ज्यादातर छात्र यह परीक्षा पास ही नहीं कर पाते। आधे से ज्यादा स्टूडैंट तो परीक्षा देते ही नहीं वह दूसरे देशों में जाकर प्रैक्टिस तो कर लेते हैं क्योंकि वहां ऐसी परीक्षा की बाध्यता नहीं होती।
भारत में यूक्रेन की ​डिग्री सीधे मान्य हो न हो लेकिन उसकी मान्यता पूरे विश्व में है। भारत में एमबीबीएस में दाखिला लेने के लिए नीट की परीक्षा ली जाती है और परीक्षा में मिले अंकों के हिसाब से छात्रों को सरकारी और प्राइवेट कालेज में एडमिशन दिया जाता है। भारत में दाखिलों के लिए अंकों को काफी महत्व दिया जाता है जबकि यूक्रेन में छात्रों का नीट में सिर्फ क्वालीफाई करना ही काफी होता है। इसलिए छात्र एमबीबीएस के लिए यूक्रेन की तरफ आकर्षित हैं। भारत में समस्या यह भी है कि यहां के कालेजों में एमबीबीएस की जितनी  सीटें हैं उससे कहीं अधिक छात्र नीट की परीक्षा में बैठते हैं। इन्फ्रास्ट्रक्चर के मामले में भी यूक्रेन भारत से कहीं अधिक सुविधाजनक है। अंकों के खेल में पिछड़ने वाले छात्रों के लिए यूक्रेन एक बेहतर विकल्प बना हुआ है। यूक्रेन से लौटने वाले भारतीय छात्र-छात्राओं में ​किसी का पांचवां वर्ष है तो किसी का पहला और दूसरा। ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि क्या ऐसे छात्रों के लिए भारत में मेडिकल शिक्षा  की कोई व्यवस्था हो सकती है। भारत में शिक्षा के बाजारीकरण के चलते अभिभावकों के लिए अपने बच्चों को नर्सरी में दाखिला दिलाने  के लिए संग्राम लड़ना पड़ता है। मध्यम वर्ग के परिवारों के लिए अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में दाखिला दिलवाना अपने बूते से बाहर की बात हो चुका है, तो आप इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि मेडिकल शिक्षा  के लिए  कितना संघर्ष करना पड़ता होगा। यह जगजाहिर है कि प्राइवेट मेडिकल कालेजों की सीटें लाखों में बिकती हैं। हमारे देश में डाक्टरों और अन्य स्वास्थ्यकर्मियों की बड़ी कमी है। कोरोना महामारी के दौरान हमारी स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति खुलकर सामने आ गई जब कोरोना संक्रमित पीड़ितों ने 6-7 लाख रुपए खर्च कर प्राइवेट अस्पतालों में बैड हासिल किए और अनेक लोग पैसे लेकर घूमते रहे लेकिन अस्पतालों में बैड उन्हें नसीब नहीं हुआ। इन सब परिस्थितियों को देखकर केन्द्र सरकार ने कुछ वर्षों में स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च को लगभग दोगुणा करने का लक्ष्य निर्धारित किया है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में यह परामर्श दिया था कि ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि छोटे देशों में मेडिकल शिक्षा हासिल करने की बजाय हमारे छात्र अपने ही देश में दाखिला लें। हाल ही में सरकार ने यह निर्देश जारी किया कि प्राइवेट मेडिकल कालेजों में 50 फीसदी सीटों की फीस सरकारी कालेजों के बराबर होगी। देश में ऐसी नीतियां बनाने की जरूरत है कि देश के हर जिले में मेडिकल कालेज हो। सीटों की संख्या बढ़े और छात्र कम फीस में डाक्टर बन सकें। यदि मेेडिकल समेत हर तरह की पढ़ाई की व्यवस्था देश में सस्ती और सहज हो तो  ही प्रतिभाओं का प्लायन रुक सकेगा और हमें मौजूदा संकटों का सामना नहीं करना पड़ेगा।
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आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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