अब टूट चुका है छज्जू का चौबारा
कभी पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में एक कहावत हर भारतीय की विरासत होती थी।
'जो सुख छज्जू के चौबारे
ओह बलख न बुखारे’
जी हां, वही छज्जू का चौबारा अब टूट चुका है और उसके खण्डहर ही शेष बचे हैं। यह लाहौर के मेयो अस्पताल के पास स्थित था और इसे लाहौर का एक ऐतिहासिक स्थल माना जाता रहा है। यह चौबारा छज्जू भगत नामक व्यक्ति का था जो मुगल बादशाह शाहजहां के समय में रहते थे। उन्होंने अपना व्यापारिक जीवन छोड़कर भक्ति और वैराग्य का जीवन अपना लिया था। बाद में उनके अनुयायियों ने लाहौर में उनकी समाधि स्थल को चौबारे के नाम से प्रसिद्ध किया जो पूरे लाहौर में चर्चित हुआ। महाराजा रणजीत सिंह ने अपने शासनकाल में चौबारे के महत्व को समझते हुए छज्जू भगत का मंदिर, यात्रियों के लिए कमरे, तालाब और सुंदर बाग बनवाकर इसकी शोभा बढ़ाई थी। आज भी छज्जू का चौबारा एक चर्चित स्थल तो है मगर अब इसके खण्डहर ही बचे हैं जो लाहौर के मेयो अस्पताल के पास स्थित है।
एक तरफ हो जाओ !
लाहौर में यह चौबारा था। उसका नाम था ‘छज्जू का चौबारा’। पंजाबी जीवनशैली में लोकोक्ति चर्चित हुई कहावत थी- ‘जो सुख छज्जू दे चौबारे, न बलख न बुखारे’ अर्थात छज्जू के चौबारे के सुख के आगे बल्क व बुखारे का सुख भी फीका पड़ जाता हे। छज्जू भगत का असली नाम छज्जू राम भाटिया था। वे लाहौर के रहने वाले थे। मुगल बादशाह जहांगीर के समय वे सोने का व्यापार किया करते थे। सन् 1640 में उनके निधन के बाद जब भंगी मिसल के सरदारों का वक्त आया तो उनकी दुकान और विशाल डेरे की जगह पर मंदिर व धर्मशाला बनवाई गई। इस समय निर्माण को नाम मिला ‘छज्जू का चौबारा’ महाराजा रणजीत सिंह ने अपने शासनकाल में यहां पर यात्रियों के लिए नए कमरे, तालाब और सुंदर बगीचे बनवाकर उसकी शोभा में चार चांद लगा दिए।
छज्जू भगत की कहानी भी बेमिसाल है। वह व्यापारी थे। मगर उनका व्यापार में मन अधिक नहीं लगता था। वैराग्य प्रवृत्ति के थे। एक दिन गली में से जा रहे थे। मेहतर गली साफ करती हुई चलने वालों से कह रही थी ‘एक तरफ हो जाओ’ उनका कहना ठीक था। अन्यथा कूड़े में पैर पड़ जाएगा। उनकी बात सुनकर छज्जू को आत्मबोध हुआ। एक वैराग्यवान के लिए व्यापार और ईश्वर भक्ति एक साथ नहीं चल सकती। उसने अपना कारोबार बेटों को सौंपा और चौबारे पर बैठकर भक्ति करने लग गया। दूर-दूर से लोग उसके सत्संग में आने लगे। उसका चौबारा पूरे लाहौर में प्रसिद्ध हो गया। इसका मुख्य कारण एक ही था। छज्जू सांसारिक मोह त्याग कर एक तरफ हो गया था। सांसारिक मोह के चक्कर में फंस कर वह अपने आत्मा के साथ न्याय नहीं कर पा रहा था। आज भी छज्जू के यह जीवनी संदेश हम आर्यों के लिए इतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने उस काल में थे।
लाला छज्जू राम का चौबारा पूरे महानगर की सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक बन गया था। यह चौबारा, इधर-उधर से आने व जाने वाले सूफी फकीरों की आरामगाह बन गया था। यह एक दो मंजिला मकान था। नीचे की मंजिल पर एक हिस्से में छज्जू राम की स्वर्णकारी की दुकान थी। दूसरे हिस्से में परिवार रहता था। छज्जू राम नाम का स्वर्णकार था, मगर उस काम में कुछ ज्यादा ही ईमानदारी की वजह से ज्यादा ग्राहक नहीं आ पाते थे लेकिन छज्जू राम भाटिया अपने सीमित काम से ही बेहद संतुष्ट था। लाहौर के बहुत से ऐसे परिवार थे, जो सोने के जेवरों व खरीद-बिक्री के मामले में उसी पर भरोसा करते। भरोसा करने वालों में बड़े-बड़े घरों की बेगमें भी शामिल थीं। बुर्का पहनकर आतीं थीं, मगर छज्जू राम की दुकान में प्रवेश करते ही बुर्का उतार देतीं। छज्जू राम का एक सेवक सबको सबसे पहले शरबत पेश करता और फिर पानदान उनके आगे सरका देता।
‘छज्जू का चौबारा’ इन दिनों एक बार फिर चर्चा में है। लाहौर के अनारकली बाज़ार के एक कोने में स्थित यह ‘चौबारा’ जो अब तक एक कहावत तक ही सीमित था, अब उस पर बाकायदा शोध कार्य हो रहे हैैं। अब इसे वहां का पुरातत्व विभाग संरक्षित स्थल घोषित करने जा रहा है। कहावत इतनी ही थी, जो सुख छज्जू दे चौबारे ओह न बलख, न बुखारे, अब नए शोध ने उस कहावत को जीवित कर दिखाया है।
पड़ौसी देश के चंद बुद्धिजीवियों की बदौलत लाहौर स्थित ‘छज्जू का चौबारा’ नए संदर्भ में ध्वस्त होने से बच गया है। मगर अब यह खण्डहरों में बदल चुका है। अब अनारकली बाजार लाहौर के अधिकांश लोग इस बात पर यकीन करने लगे हैं कि जिस शख्स ने शाहजहां के वक्त में सूफी फकीरों और दरवेशों की पूरे दिल से खिदमत की हो, उसके ऐतिहासिक ‘चौबारे’ को कैसे कुछ सनकी लोगों के विरोध के मद्देनज़र नष्ट किया जा सकता है। एक मुद्दत से पश्चिमी व पूर्वी पंजाब के लोग अक्सर यह कहावत दोहराते रहे हैं कि 'जो सुख छज्जू दे चौबारे, ओह न बलख न बखारे। नई नस्ल के दोस्तों के लिए यह दोहरा देना ज़रूरी है कि छज्जू राम कौन था?
छज्जू मूल रूप से एक जौहरी था। पूरा नाम था छज्जू राम भाटिया। उसका एक विशाल आवास था। यह अनारकली बाज़ार लाहौर के एक कोने पर उस हिस्से में था जहां अब एक मेडिकल कॉलेज व अस्पताल का निर्माण चल रहा है। विशाल हृदय वाला और अध्यात्म प्रवृत्ति वाला छज्जू राम भाटिया, अपनी दुकान के मुनाफे का दसवां भाग नियमित रूप से अलग रख देता था। इस दशमांश से छज्जू का चौबारा फकीरों, दरवेशों और संतों की टोलियों से बारौनक बना रहता था। अलग-अलग दरगाहों और दूरदराज़ के मंदिरों-गुरुओं के यात्री वही विश्राम करते थे।
लाहौर के अनारकली रोड पर इसी ‘छज्जू का चौबारा’ था। छज्जू उन दिनों लाहौर का एक प्रमुख जौहरी था। पूरा नाम था लाला छज्जू राम भाटिया। दो मंजि़ले-आवास की पहली मंजि़ल पर उसका कारोबार था। दूसरी मंजि़ल पर परिवार। उसी की छत पर उसने बनाया था 'छज्जू का चौबारा’। इस चौबारे को फकीरों के डेरे के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस चौबारे पर फकीरों की धूनी भी रमती थी और भजन-कीर्तन व सूिफयों का सेमा-नृत्य भी चलता था। छज्जू को अध्यात्म से ऐसी 'लौ’ लगी कि धीरे-धीरे ज़्यादा वक्त जप-तप में बिताने लगा। उसने अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा फकीरों, भक्तों व ज़रूरतमंद लोगों पर खर्च करना शुरू किया। शीघ्र ही उसे ‘छज्जू-भगत’ कहा जाने लगा। लोग अक्सर कहते, इस चौबारे पर आकर रूहानी सुकून मिलता था। सभी सुख मिल जाते। भूखे को रोटी, नंगे को कपड़ा और अगले सफर पर रवाना होने से पहले खाने-पीने की रसद और कुछ सिक्के ताकि 'बवक्ते ज़रूरत’ काम आएं।
मन में जिज्ञासा थी। उस चौबारे को ढूंढा जाए। पुराने रिकार्ड, किताबें व पुराने लोगों को खंगाला तो दिलचस्प ऐतिहासिक गवाहियां खुल गईं। लाहौर में बहुत कुछ है जो हमें विरासत से जोड़ता है। शहर के मेयो अस्पताल के साथ ही मौजूद है इस चौबारे के खण्डहर।
छज्जू राम भाटिया उर्फ छज्जू भगत, दरअसल शाहजहां के समय में हुआ था। उसकी उम्र व जन्म वर्ष का तो पता नहीं चलता, लेकिन उसने आखिरी सांस 1696 में ली थी। उसकी मृत्यु भी रहस्यमय रही थी। किंवदंती यही है कि मृत्यु के कुछ क्षण पूर्व वह चौबारे के कोने में स्थित अपनी तप-गुफा में चला गया था और बाद में उसका कोई अता पता नहीं चला। उसका ‘चौबारा’ फकीरों का डेरा बन गया। फकीर दिन में वहां धमाल नृत्य करते और तालियों के बीच गाते, 'जो सुख छज्जू दे चौबारे, ओह बलख न बुखारे।’
प्राप्त ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के अनुसार महाराजा रणजीत सिंह अपने शासनकाल में यहां अक्सर फकीरों से मिलने आ जाया करते थे। वहां उन्होंने 'छज्जू भगत’ की स्मृति में एक मंदिर भी बनवा दिया था और मंदिर के लिए व फकीरों के लिए हर माह एक निश्चित राशि भी 'दरबार’ से भिजवाते रहे। अब भी उन बचे-खुचे खंडहरों के सामने शीश नवाने लोग हर मंगलवार और वीरवार आ जाते हैं।
लाहौर के मेयो अस्पताल के साथ ही बना है 'शम्स शहाबुद्दीन तीमारदारी घर’। खण्डहर कायम हैं। मेयो अस्पताल वालों ने फैसला किया कि इस खंडहर को तोड़ दिया जाए ताकि अस्पताल का विस्तार हो सके। मगर लोगों के विरोध और इतिहास व मीडिया से जुड़े लोगों की कड़ी आपत्तियों के बाद तोड़ने का फैसला स्थगित कर दिया गया। हालांकि अब जो भी प्रयास हो रहे हैं, सिर्फ खण्डहरों को बचाने के लिए हो रहे हैं। इस संबंध में एक इतिहासकार सुरेंद्र कोछड़ ने भारत सरकार से भी दखल देने की अपील की थी। उसकी दलील है कि यह ‘विरासत की सम्पदा’ है और इसे कानूनी रूप में भी तोड़ा नहीं जा सकता। पुराने लाहौर में इस जगह के खंडहर भी अब बोलने लगे हैं। अब पुराने चौबारे के काल्पनिक चित्र भी बनाए जाने लगे हैं और एक मुस्लिम इतिहासकार लतीफ ने इन चित्रों को पुरानी जानकारी के आधार पर छपाया भी है।
इस मंदिर बनाम दरगाह के साथ ही उदासीन सम्प्रदाय के एक संत बाबा प्रीतम दास का छोटा सा मंदिर भी था। बाबा प्रीतम दास वही संत थे, जिन्होंने अपने समय के चर्चित संत बाबा भुम्मन शाह को दीक्षा दी थी। बाबा भुम्मन शाह आज भी सिरसा, फाजि़ल्का, अबोहर, फतेहाबाद आदि में पूरे कम्बोज समुदाय में पूजे जाते हैं। कहा तो यह भी जाता है कि औरंगजेब के शासन में दो स्थानों को विशेष महत्व दिया जाता था। एक स्थान था 'पीर ऐन-उल-कमाल’ का मकबरा और दूसरा 'छज्जू भगत का मंदिर’। अब इस विलक्षण स्थान के आसपास अस्पताल के कर्मचारियों के आवास भी बन गए हैं। वहां तक पहुंचने के लिए इन क्वार्टरों के बीच संकरे रास्तों से गुज़रना होता है। मगर निस्बत रोड व रेलवे रोड के मध्य में स्थित इन खंडहरों पर अब इबादत होती रहती है। हालांकि वे दिन गए जब बात-बात पर कह दिया जाता था-
'जो सुख छज्जू दे चौबारे
ओह, बलख न बुखारे’
एक सुखद बात है कि छज्जू का नाम व 'कल्चर’ बचाने के लिए पाकिस्तान का सोशल मीडिया व वहां के कुछ बुद्धिजीवी पूरी तरह सतर्क रहे हैं और मोर्चे पर डटे रहे हैं, यह कहते हुए कि यह हमारा विरसा है।