चीन यकीन के काबिल नहीं
चीन की हठधर्मिता की मिसाल इससे बड़ी कोई दूसरी नहीं हो सकती कि वह कह रहा है कि दोनों देशों के बीच आपसी सम्बन्ध सीमा विवाद के हल से परे हैं। भारत के विदेशमन्त्री एस. जयशंकर और चीनी विदेशमन्त्री वांग-यी के बीच मास्को में हुई
12:33 AM Sep 13, 2020 IST | Aditya Chopra
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चीन की हठधर्मिता की मिसाल इससे बड़ी कोई दूसरी नहीं हो सकती कि वह कह रहा है कि दोनों देशों के बीच आपसी सम्बन्ध सीमा विवाद के हल से परे हैं। भारत के विदेशमन्त्री एस. जयशंकर और चीनी विदेशमन्त्री वांग-यी के बीच मास्को में हुई बैठक के बाद जारी संयुक्त वक्तव्य में चीन के तेवरों से पता चलता है कि उसके लिए लद्दाख में नियन्त्रण रेखा पर चल रहा उसका अतिक्रमण एकपक्षीय कार्रवाई नहीं है और भारत की गतिविधियां उसकी नजर में आपत्तिजनक हैं। संयुक्त वक्तव्य में दोनों देशों के विदेशमन्त्रियों ने इस बात पर सहमति जरूर जताई है कि असहमति के मुद्दे को विवाद की शक्ल नहीं लेनी चाहिए मगर इस बात का जिक्र नहीं है कि नियन्त्रण रेखा पर विगत मई महीने के शुरू से चीन ने घुसपैठिया रवैया अख्तियार किया है उसे पलटा जाये। चीन कूटनीतिक मोर्चे पर भारत को इस तरह घेरना चाहता है जिससे उसकी अतिक्रमणकारी कार्रवाइयों को असहमति की श्रेणी में रखा जा सके।
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दरअसल चीन की यह रणनीति रही है कि वह सीमा पर विवाद पैदा करके इस अवधारणा को गफलत में बदल देता है और बाद में इसे असहमति का स्वरूप देना लगता है। रक्षा विशेषज्ञों के अनुसार लद्दाख और इससे लगते क्षेत्र में चीन ने जिस तरह अपनी फौजों की स्थिति में बदलाव किया है उससे कम से कम एक हजार वर्ग कि.मी. भारतीय भूमि उसके कब्जे में है। संयुक्त वक्तव्य में दोनों देशों की सेनाओं के बीच संघर्षपूर्ण स्थिति को टालने और सैनिक संख्याबल में कमी करने हेतु आपसी बातचीत जारी रखने पर सहमति अवश्य व्यक्त की गई है मगर चीन अपने ऊपर नियन्त्रण रेखा को लांघने का दाग लेने को तैयार नहीं है और वह इस बात पर जोर दे रहा है कि दोनों देशों की सेनाओं को अपनी स्थिति में ढिलाई लानी चाहिए। इसका सीधा मतलब यह निकलता है कि चीन नियन्त्रण रेखा पर जिस सीमा तक आगे घुस गया है उससे पीछे हटने को तैयार नहीं है और उसकी निगाह में एेसे विवादों का आपसी सम्बन्धों पर कोई असर नहीं पड़ता है जबकि यह मसला भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा और उसकी भौगोलिक अखंडता का है।
भारत की एक इंच भूमि भी यदि चीन के कब्जे में रहती है तो भारतीय फौजें उसे वापस लेने के लिए कृतसंकल्प हैं। चीन के रक्षामन्त्री के साथ पिछले सप्ताह ही हमारे रक्षामन्त्री राजनाथ सिंह की बातचीत हुई थी जिसमें उन्होंने साफ कहा था कि चीन को भारतीय भूमि से अपना अतिक्रमण समाप्त करके पीछे हटना होगा परन्तु विदेशमन्त्रियों के बीच हुई बातचीत के बाद लीक से हट कर जारी संयुक्त वक्तव्य में इस बात का कोई जिक्र नहीं होना बताता है कि चीन की नीयत साबुत नहीं है और वह भारत को अपनी सामरिक शक्ति की धौंस के आगे इधर-उधर की बातें करके बहलाना चाहता है। दोनों देशों के बीच सीमा विवाद को समाप्त करने का जो वार्ता तंत्र पिछले डेढ़ दशक से कायम है वह लगातार अपना काम कर रहा है। इसके और आगे बातचीत जारी रखने पर सहमति व्यक्त करना सामान्य प्रक्रिया का ही हिस्सा है। असली मुद्दा तो चीनी सेनाओं के पीछे उस स्थान पर लौटने का है जहां वे अप्रैल महीने के आखिर में थी। चीनी फौजों ने जिस तरह हाल ही में पेगोंग झील के इलाके में भारतीय सैनिक चौकी तीन पर भी भारी जमावड़ा किया है उससे स्पष्ट है कि वह नियन्त्रण रेखा में अपनी मनमर्जी का बदलाव करना चाहता है। चौकी नम्बर चार से लेकर आठ तक के भीतर के आठ कि.मी. तक के इलाके को जिस तरह चीन ने पहले से ही घेेरा हुआ है उससे भारतीय सैनिकों के लिए अपनी सीमाओं की रक्षा करने में भारी अड़चनें आ रही हैं, परन्तु कूटनीतिक वार्ताओं में जिस प्रकार चीन असल मुद्दे से कन्नी काट कर आपसी सम्बन्धों के अन्य आयामों को छूने की कोशिश में रहता है उससे उसकी विस्तारवादी भूख का ही पता चलता है।
चीन का अभी तक का इतिहास भी यही रहा है कि यह दूसरे देशों की भूमि हड़प कर अपना विस्तार करता रहा है। इसलिए चीन पर विश्वास करके भारत स्वयं को धोखे में नहीं रख सकता। इसके अलावा चीन एेसा कोई देश भी नहीं है जिससे भारत कुछ सीख सके क्योंकि यह मूलतः एेसा कम्युनिस्ट देश है जिसकी नीयत में खोट आज पूरी दुनिया को दिखाई पड़ रहा है। चाहे अमेरिका हो या जापान अथवा आस्ट्रोलिया या यहां तक कि अफ्रीकी देश भी सभी को चीन की कथनी व करनी में साफ फर्क नजर आ रहा है।
भारत को तो उसकी हकीकत 1962 से पहले से ही पता है जब उसने तिब्बत पर अपना कब्जा किया था। वास्तव में तिब्बत ही भारत का असली पड़ोसी देश था और इससे भारतीयों का रोटी-बेटी का सम्बन्ध था। चीन इस देश को हड़प कर भारत का एेसा पड़ोसी देश बना जिसने उसकी भी 40 हजार वर्ग कि.मी. भूमि अक्साईचिन की हड़प कर ली। अब असली सवाल यह है कि चीन 1993 व 1996 के उन समझौतों का पालन करे जिनमें नियन्त्रण रेखा पर किसी भी असहमति को विवाद बनने से पहले ही समाप्त कर देने के प्रावधान हैं। दुनिया को कोरोना महामारी की सौगात बांटने वाले चीन को सोचना होगा कि उसकी बदनीयती अब जगजाहिर होती जा रही है।
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