चीन की चोरी और सीना जोरी
चीन जिस तरह भारतीय क्षेत्र में घुस कर उल्टे भारत पर ही शर्तें लादना चाहता है उसे यह देश कभी स्वीकार नहीं कर सकता।
12:05 AM Aug 25, 2020 IST | Aditya Chopra
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चीन जिस तरह भारतीय क्षेत्र में घुस कर उल्टे भारत पर ही शर्तें लादना चाहता है उसे यह देश कभी स्वीकार नहीं कर सकता। इस बारे में रक्षामन्त्री श्री राजनाथ सिंह का सन्देश बहुत स्पष्ट है कि किसी भी तरह भारत के स्वाभिमान से समझौता नहीं किया जा सकता, लद्दाख के क्षेत्र में खिंची नियन्त्रण रेखा को चीन जिस चालाकी के साथ बदलना चाहता है भारत ने उसे मानने से साफ इनकार कर दिया है और रक्षामन्त्री ने वचन दिया है कि भारत की एक इंच जमीन पर भी विदेशी अतिक्रमण स्वीकार नहीं होगा, मगर चीन अपनी हठधर्मिता से बाज नहीं आ रहा है और पेगोंग झील के इलाके में आठ कि.मी. भीतर तक घुस कर भारतीय सैनिक चौकी चार से लेकर आठ तक पर हमारे सैनिकों की गश्त में व्यवधान पैदा कर रहा है।
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दोनों देशों के बीच सामरिक व कूटनीतिक स्तर की वार्ता में बार-बार तनाव कम करने का अहद तो चीन करता है मगर हर बार वार्ता के बाद पुरानी स्थिति को बदलना नहीं चाहता और कोई न कोई नया बहाना बना देता है, सैनिक चौकी चार से अपने सैनिकों को पीछे हटाने के लिए अब उसने नई शर्त लगाई है कि नियन्त्रण रेखा से भारत भी उतना ही पीछे हटे जितना वह हटेगा।
यह सरासर सीना जोरी है क्योंकि चीन की सेनाएं 2 मई के बाद से भारतीय क्षेत्र में नियन्त्रण रेखा के पार कई स्थानों पर घुसी हुई हैं। जिसमें अक्साइ चिन के करीब का देपसंग पठारी क्षेत्र भी शामिल हैं। इस इलाके में चीनी सेनाएं नियन्त्रण रेखा के 18 कि.मी. तक भीतर आ गई हैं। दरअसल चीन से यह बर्दाश्त नहीं हो रहा है कि भारत ने काराकोरम दर्रे के निकट तक लद्दाख में नियन्त्रण रेखा के अपनी तरफ सड़क का निर्माण कर लिया है? डबचोक से दौलतबेग ओल्डी तक की यह सड़क पेगोंग झील के किनारों से भारतीय क्षेत्र में होते हुए ही जाती है, इसमें व्यवधान पैदा करने के लिए ही चीन अतिक्रमण कर रहा है और भारतीय क्षेत्र में अपने सैनिक निर्माण तक कर रहा है चीन कह रहा है कि भारत पेगोंग झील इलाके में बनी सैनिक चौकी नम्बर एक तक पीछे हट जाये तो वह चौकी नम्बर आठ पर चला जायेगा।
दरअसल भारत यह चाहता है कि चीनी फौजें चौकी नम्बर आठ पर जायें जिससे भारत चौकी नम्बर चार से लेकर आठ तक की गश्त बिना किसी बाधा के कर सके और उसकी सड़क सुरक्षित रहे। मगर इसके बदले चीन भारत से कह रहा है कि वह चौकी नम्बर एक पर चला जाये।
इससे यही जाहिर होता है कि चीन की मंशा तनाव कम करने की बिल्कुल नहीं है और वह भारत को वार्ताओं में उलझा कर रखना भर चाहता है। जिस प्रकार पूरे लद्दाख क्षेत्र में उसने अपनी सेनाओं का जमावड़ा बढ़ाया है उसे देखते हुए यही लगता है कि वह इस स्थिति को लम्बे समय तक बरकरार रखने की रणनीति पर चल रहा है। इस सन्दर्भ में इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है कि चीन ऐसा क्यों कर रहा है? क्योंकि लद्दाख के क्षेत्र में खिंची नियन्त्रण रेखा पर 1967 के बाद से कभी विवाद नहीं रहा।
कुछ विशेषज्ञों के अनुसार चीन भारत के उस फैसले से बिफरा हुआ है जिसमें जम्मू-कश्मीर प्रान्त से लद्दाख को अलग करके केन्द्र शासित राज्य का दर्जा दिया गया और जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को समाप्त कर दिया गया। यह भारत का पूरी तरह अन्दरूनी मामला है मगर चीन ने इस बाबत पिछले वर्ष राष्ट्रसंघ में भी सवाल उठाया था औऱ कहा था कि इससे भारत-चीन के बीच हुए विभिन्न सीमा समझौतों पर असर पड़ेगा।
सोचने वाली बात यह है कि चीन एक तरफ भारत के आन्तरिक मामलों मे दखल दे रहा है और दूसरी तरफ 1963 से पाक अधिकृत कश्मीर का 540 वर्ग कि-मी. वह इलाका कब्जे में किये हुए हैं जो पाकिस्तान ने उसे तोहफे में देकर उसके साथ नया सीमा समझौता किया था। काराकोरम से लगे दौलत बेग ओल्डी इलाके में भारत ने हैलीपैड का निर्माण केवल पाकिस्तान और चीन दोनों से अपनी सुरक्षा करने की गरज से किया था।
चीन की निगाहें देपसंग पठारी क्षेत्र से अब इस हैलीपैड पर ही हैं। पाकिस्तान के साथ मिलकर वह भारत पर दबाव बनाना चाहता है क्योंकि पाकिस्तान का रुख भी जम्मू-कश्मीर के बारे में यही है, जबकि हकीकत यह है कि पाक अधिकृत पूरा कश्मीर भारतीय संघ का इलाका है और चीन इसी क्षेत्र में अपनी सी पैक परियोजना चला रहा है, चीन की यह सीनाजोरी अब साफ तौर पर बता रही है उसकी मंशा भारत के आन्तरिक मामलों में दखल करने की है और इसके लिए वह सामरिक रास्तों का इस्तेमाल कर रहा है।
उसकी कूटनीति में सामरिक ताकत का प्रयोग निश्चित रूप से चिन्तनीय है क्योंकि भारत के साथ दौत्य सम्बन्द और पूर्ण वाणिज्यिक सम्बन्ध होने के बावजूद इस प्रकार की हरकतें किसी सभ्य देश की नहीं हो सकती। भारत को भी अब उसी की भाषा में जवाब देना सीखना होगा। मगर दुर्भाग्य से हमारे हाथ पहले से ही बन्ध चुके हैं क्योंकि 2003 में ही हमने तिब्बत को चीन का अंग स्वीकार कर लिया था और अक्साई चिन का जिक्र तक नहीं किया था।
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