मालदीव में चीन को झटका लेकिन...
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मालदीव में चीन को करारा झटका लगा है। चीन समर्थक मौजूदा राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन गयूम को अन्ततः राष्ट्रपति पद छोड़ना पड़ेगा। मालदीव में हुए चुनावों में अब्दुल्ला यामीन अपने प्रतिद्वंद्वी मालदीव डैमोक्रेटिक पार्टी के नेता इब्राहिम मोहम्मद सोलिह से पराजित हो गए थे। इसके बावजूद वह पद पर बने रहने के लिए हथकंडे अपना रहे थे लेकिन मालदीव के सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव को वैध घोषित करते हुए चुनावों में धांधली के उनके आरोपों को खारिज करते हुए उनकी याचिका को खारिज कर दिया। अब इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के 11 नवम्बर को राष्ट्रपति पद की शपथ लेने का मार्ग प्रशस्त हो गया है। चुनावों के बाद इस बात की आशंका पहले से ही थी कि यामीन राष्ट्रपति पद पर बने रहने के लिए कोई न कोई साजिश रच सकते हैं। देश की जनता का जनादेश इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के पक्ष में था और लोकतंत्र में जनता ही सर्वोच्च होती है। इस तरह मालदीव में लोकतंत्र की ही जीत हुई। चीन समर्थक अब्दुल्ला यामीन के शासन में मालदीव पूरी तरह चीन की झोली में जाकर बैठ गया था। चीन ने मालदीव में 1.5 बिलियन डॉलर से भी ज्यादा धन का निवेश किया जो मालदीव की जीडीपी का लगभग 40 फीसदी है।
मालदीव भारत के लिए आर्थिक, कूटनीतिक और सामरिक लिहाज से बहुत ही महत्वपूर्ण है। हालांकि मालदीव बहुत छोटा सा देश है लेकिन भारत का ज्यादातर आयात और निर्यात का सामान मालदीव से होकर गुजरता है और विश्व के 40 प्रतिशत कच्चे तेल का आवागमन भी इसी रास्ते से होता है। मालदीव में भारतीय नौसेना के जहाजों की मौजूदगी भी भारत के लिए सामरिक लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण है। भारत इस बात के लिए तैयार था कि अगर अब्दुल्ला यामीन सत्ता नहीं छोड़ते तो भारत अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के साथ वहां लोकतंत्र की स्थापना के लिए हस्तक्षेप कर सकता है। मालदीव पर आर्थिक प्रतिबंधों के अलावा दूसरे विकल्पों पर भी अंतर्राष्ट्रीय समुदाय विचार कर रहा था लेकिन अब ऐसी गनीमत नहीं आएगी। भारत मालदीव में राजनीतिक अस्थिरता को लेकर चिन्तित रहा है। विद्रोह के बाद अपदस्थ किए गए पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद के देश छोड़ देने के बाद से ही राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरू हो गया था। अब्दुल्ला यामीन ने अपने शासनकाल में विपक्षी नेताओं को चुन-चुनकर निशाना बनाया।
इसी साल फरवरी में वहां की सर्वोच्च अदालत ने पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद पर चल रहे मुकद्दमे को असंवैधानिक करार दे दिया था आैर जेलों में डाले गए विपक्षी सांसदों को रिहा करने का आदेश जारी किया था लेकिन अब्दुल्ला यामीन ने इस आदेश को मानने से इन्कार कर दिया था। वहां संकट इतना गहरा गया था कि यामीन ने 15 दिन के लिए आपातकाल लगा दिया और संसद भंग कर दी। प्रधान न्यायाधीश अब्दुल्ला सईद और दूसरे जजों के साथ पूर्व राष्ट्रपति मोमून अब्दुल गयूम को गिरफ्तार कर लिया था। तब भी मोहम्मद नशीद ने भारत से हस्तक्षेप की मांग की थी। मालदीव और भारत के रिश्तों में तनाव का फायदा चीन ने उठाया। भारत को घेरने के मकसद से चीन वहां सैन्य अड्डा बनाने की राह पर चल पड़ा। मालदीव कुछ वीरान द्वीप चीन काे पट्टे पर दे चुका है। चीन की रणनीति यह है कि वह पहले देशों को ऋण देकर अपने जाल में फंसाता है और फिर वहां की जमीन हड़प लेता है। चीन पाकिस्तान, श्रीलंका और अन्य देशों में भी ऐसा कर रहा है। मालदीव से लक्षद्वीप की दूरी महज 1200 किलोमीटर है। ऐसे में भारत कतई नहीं चाहेगा कि चीन उसके सिर पर आकर बैठ जाए। मालदीव के चुनावों में न केवल विपक्ष के लिए बल्कि सत्तापक्ष के लिए सबसे बड़ा मुद्दा चीन का मालदीव में किया गया निवेश था। प्रचार के दौरान जहां विपक्ष इस निवेश की वजह से मालदीव के कर्ज में डूबने की बात कह रहा था वहीं अब्दुल्ला यामीन देश की प्रगति के लिए इसे सही ठहरा रहे थे। यह भी कहा जा रहा है कि मालदीव की नई सरकार चीन से पीछा छुड़ाकर अब फिर से ‘इंडिया फर्स्ट’ की नीति को तरजीह देगी लेकिन क्या मालदीव चीन से पीछा छुड़ा पाएगा?
यह महत्वपूर्ण प्रश्न है क्योंकि यह इतना आसान भी नहीं है। चीन ने मालदीव में 2015 में पांव फैलाना शुरू किया। अब्दुल्ला यामीन ने चीनी कम्पनियों को जमीन खरीदने की अनुमति भी दे दी थी। चीन ने मालदीव में बुनियादी ढांचा पिरयोजनाओं में बड़ा निवेश किया। मालदीव एयरपोर्ट के पुनर्निर्माण और एयरपोर्ट से लेकर राजधानी माले तक बनाया जा रहा पुल इन कम्पनियों को मिले सबसे बड़े प्रोजैक्ट हैं। मालदीव ने दो दर्जन से ज्यादा छोटे-छोटे द्वीप भी 50 वर्ष के लिए पट्टे पर दिए हुए हैं। मालदीव पर चीन का करीब 10 हजार करोड़ का कर्ज चढ़ चुका है, जो उस पर बाहरी कर्जों का 70 फीसदी है। क्या मालदीव एक झटके में इस सबको नजरंदाज कर सकता है। श्रीलंका में महिन्द्रा राजपक्षे की सरकार ने भी चीन को निवेश की खुली इजाजत दी थी। कर्ज न चुका पाने की वजह से हंबनटोटा बंदरगाह चीन को देना पड़ा था। मोहम्मद सोलिह की जीत से भारत और मालदीव के फिर से करीब आने की सम्भावनाएं तो हैं लेकिन भारत का मालदीव पर वह एकाधिकार पाना मुश्किल लगता है जो आज से 5 वर्ष पहले हुआ करता था क्योंकि तब यह समुद्री देश पूरी तरह से भारत पर ही निर्भर था। भारत को बहुत समझदारी से काम लेना होगा क्योंकि रातोंरात मालदीव में सारी चीजें भारत के पक्ष में नहीं होंगी। चीन की सैन्य गतिविधियों को रोकने के लिए भारत-अमेरिका को मिलकर काम करना होगा।