वर्षा के पानी में डूबते शहर
बाढ़ के चलते शहर डूब जाएं तो बात समझ में आती है। मान लिया जाता है कि प्रकृति पर किसी का वश नहीं है। लोग इसे प्रकृति की नियति मान कर सब कुछ सहन कर लेते हैं।
01:18 AM Aug 21, 2020 IST | Aditya Chopra
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बाढ़ के चलते शहर डूब जाएं तो बात समझ में आती है। मान लिया जाता है कि प्रकृति पर किसी का वश नहीं है। लोग इसे प्रकृति की नियति मान कर सब कुछ सहन कर लेते हैं। गत दिवस केवल कुछ घंटों की बारिश में दिल्ली ही नहीं डूबी बल्कि सैटेलाइट शहर गुरुग्राम भी डूब जाए तो बात समझ नहीं आती। कुछ घंटों की वर्षा में कुछ दिन पहले जयपुर डूबा था। उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारतीय शहरों की भी इसी तरह की दशा है। शहरों को डुबोने के लिए हम भले ही यह कहें कि वर्षा मूसलाधार हुई है परन्तु यह सच्चाई है कि शहर प्रकृति के कारण नहीं मानव द्वारा प्रकृति से खिलवाड़ के कारण डूब रहे हैं। पहले तो हम डूब चुके हैं, उसके बाद शहर डूबे हैं।
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वर्षा तो पहले भी होती थी, सात-सात दिन लगातार वर्षा होती थी। जब भी मानसून के दिनों में शनिवार को वर्षा शुरू होती थी तो लोगों के मुंह से यही शब्द सुनने को मिलते थे-‘शनि की झड़ी टूटे न लड़ी।’ लेकिन तब शहर बाढ़ की शोकांतिका में नहीं डूबते थे। वर्षा खत्म होते ही जनजीवन सामान्य हो जाता था। गुरुग्राम शहर की हालत देखकर बड़ी हैरानी हुई। मुख्य सड़कों पर इतना पानी भर गया कि कारें तैरती नजर आईं। कई जगह सड़कें धंस गईं। दिल्ली के पड़ोसी शहरों गाजियाबाद, नोएडा में भी हालात अच्छे नहीं दिखे। ऐसी स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है? सरकार, प्रशासन या फिर स्थानीय निकाय। हम हर साल व्यवस्था को कोसते हैं। वर्षाजनित हादसों में अनेक लोगों की मौत हो जाती है। हम हर वर्ष एक-दूसरे पर आरोप मढ़ते हैं। समाचार पत्रों में टकसाली शीर्षक वाली खबरें प्रकाशित होती हैं-‘‘पहली ही बारिश में प्रशासन की पोल खोली।’’ दरअसल हम तय ही नहीं कर पा रहे हैं कि विकास का भी एक तरीका होता है लेकिन हम कई वर्षों से अनियोजित विकास कर रहे हैं। यह विकास अपनी संस्कृति, अपनी सभ्यता और जीवन की जड़ों से कटकर किया गया है। कभी शहरों और गांवों में बड़े-बड़े तालाब, पोखर और कुएं होते थे और वर्षा का पानी इनमें धीरे-धीरे समा जाता था। जिससे भूजल का स्तर बढ़ता जाता था। हमारे देश में संस्कृति, मानवता और आबादी की बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ। सदियों से नदियों की अविरल धारा और उनके तट पर मानव जीवन फलता-फूलता रहा, लेकिन बीते कई दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वहां बस गई। दिल्ली में ही देख लीजिए, कभी यमुना नदी का कैचमैंट एरिया काफी विस्तृत था लेकिन अब वहां कालोनियां बस गई हैं। जब यमुना उफान पर होती है तो आबादी के लिए खतरा पैदा हो जाता है। बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और उज्ज्वल भविष्य की लालसा में लोग अपने पुश्तैनी घर छोड़ कर शहर की चकाचौंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृत्ति का परिणाम है देश में शहरों की आबादी बढ़ती जा रही है। दिल्ली, गुरुग्राम, कोलकाता, पटना, मुम्बई में जल निकासी की उचित व्यवस्था है ही नहीं। मुम्बई की मीठी नदी के उथले होने और सीवर की 60 वर्ष पुरानी व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ की स्थिति बनना सरकारें स्वीकार करती रही हैं। बेंगलुरु में पुराने तालाबों के मूल स्वरूप में अवांछित छेड़छाड़ को बाढ़ का कारण माना जाता रहा है। महानगरों में भूमिगत सीवर जल भराव का सबसे बड़ा कारण हैं। जब हम भूमिगत सीवर के लायक संस्कार नहीं सीख पा रहे तो फिर खुले नालों से काम चलाने लगे,लेकिन उनकी सफाई भी कागजों में ही होने के कारण वह भी जाम हो गए। पॉलीथीन और नष्ट न होने वाले अन्य कचरे की बढ़ती मात्रा सीवरों की दुश्मन है। दिल्ली की सड़कों पर वर्षा के पानी में कोरोना से बचने के लिए उपयोग में लाए गए मास्क बड़ी मात्रा में बहते नजर आए। ये मास्क भी कोरोना संक्रमण फैला सकते हैं, लेकिन लोगों को कोई परवाह ही नहीं। महानगरों में सीवरों और नालों की सफाई भ्रष्टाचार का बड़ा माध्यम है। महानगरों में कई-कई दिनों तक पानी भरने की समस्या सामने आएगी जो यातायात के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए गम्भीर खतरा होगा। महानगरों के डूबने का मतलब है परिवहन और लोगों का आवागमन ठप्प होना। वर्षा में दिल्ली का हाल तो दिल्लीवासी देख ही रहे हैं। थोड़ी सी बारिश हो तो वाहन रेंगने लगते हैं और सड़कों पर दिल्ली में बने ढेरों पुल के निचले सिरे, अंडरपास और सबवे हल्की बरसात में जलभराव के स्थाई स्थल बन जाते हैं, वैसा ही गुरुग्राम और अन्य शहरों में होता है। कोई जानने का प्रयास नहीं करता कि आखिर इन सबके निर्माण की डिजाइन में कोई कमी है या फिर इनके रखरखाव में। सरकारें शहरों को सिंगापुर जैसा बनाने का वादा करती हैं, कभी शहरों को पैरिस बनाने का वादा किया जाता है। हम यूरोपीय देशों की नकल तो मार लेते हैं मगर अक्ल से काम नहीं लेते। नतीजा आधी छोड़ पूरी को जावे, आधा मिले न पूरी पावे वाला होता है। हम अंधाधुंध खर्च करते हैं, फ्लाईओवर बनाते हैं लेकिन न सड़कों पर वाहनों की गति बढ़ती है और न ही जाम से मुक्ति मिलती है। काश! हम स्थानीय मौसम और परिवेश और जरूरतों को ध्यान में रखकर जनता की कमाई को लगाते। नालों के ऊपर किसी ठेकेदार या राजनीतिज्ञों के मकान नहीं बने, बनी है तो गरीबों की झुग्गियां। रेलवे लाइनों के किनारे हजारों झोंपड़ियां बसी हुई हैं। हर मार्ग अवरुद्ध है। जमीनों की जानकारी सरकारी फाइलों में तो है लेकिन वह जमीन अब दिखाई नहीं देती। सब कुछ अतिक्रमण ने निगल लिया है। जल भराव और बाढ़ मानवजनित समस्याएं हैं। शहरी नियोजनकर्ताओं को जान लेना चाहिए कि भविष्य की योजनाएं बनानी चाहिएं और जर्जर हो चुकी जल निकासी व्यवस्था को दुरुस्त करना होगा।
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