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गुजरात में नागरिक संहिता

भारत के सभी धर्मों व वर्गों के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक आचार संहिता लागू करने की मांग आजादी के बाद से ही उठती रही है।

01:07 AM Nov 01, 2022 IST | Aditya Chopra

भारत के सभी धर्मों व वर्गों के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक आचार संहिता लागू करने की मांग आजादी के बाद से ही उठती रही है।

भारत के सभी धर्मों व वर्गों के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक आचार संहिता लागू करने की मांग आजादी के बाद से ही उठती रही है। इस मांग के समर्थन में शुरू से ही भारतीय जनसंघ (भाजपा) अपनी स्थापना के बाद से रहा जबकि अन्य प्रमुख राजनैतिक दलों ने इसे खास तवज्जो नहीं दी। भारतीय जनसंघ हिन्दू कोड बिल या आचार संहिता के भी खिलाफ था जबकि संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर इसके पक्षधर थे और तत्कालीन संसद में इसके पारित न होने से रुष्ट होकर ही उन्होंने नेहरू मन्त्रिमंडल से 1951 में इस्तीफा दे दिया और बाद में पं. नेहरू ने इस विधेयक को कई टुकड़ों में 1952 के पहले आम चुनाव होने के बाद बनी नई संसद में पारित कराया। परन्तु पं. नेहरू यदि चाहते तो संसद के माध्यम से कानून बना कर ही सभी नागरिकों के लिए एक समान आचार संहिता लागू कर सकते थे क्योंकि उस समय उनकी आम जनता में लोकप्रियता का कोई मुकाबला नहीं था और डा. अम्बेडकर का बनाया गया संविधान भी अपने अनुच्छेद 44 के दिशा निर्देशक सिद्धान्तों में यह ताईद करता था कि सरकार पूरे भारत में एक समान नागरिक आचार संहिता लागू करने के कर्त्तव्य से बंधी हुई है। परन्तु पं. नेहरू ने अपनी पार्टी कांग्रेस के कराची में हुए 1931 के महाधिवेशन में पारित उस प्रस्ताव से ही बंधे रहना उचित समझा जिसमें कहा गया था कि भारत की सत्ता की बागडोर संभालने के बाद कांग्रेस पार्टी भारत के अल्पसंख्यकों विशेष तौर पर मुसलमानों के निजी धार्मिक घरेलू कानूनों के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं करेगी और उन्हें अपने कानून ‘शरीया’ के मुताबिक घरेलू मामलों जैसे परिवार व उत्तराधिकार व विवाह और आनुवांशिक सम्पत्ति आदि के मामलों में छूट देगी जबकि फौजदारी कानून के मामले में एक समान नियम लागू होंगे।
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1931 का कराची कांग्रेस अधिवेशन बहुत महत्वपूर्ण था। इस अधिवेशन की अध्यक्षता स्वतन्त्र भारत के प्रथम गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने की थी और यह अधिवेशन शहीदे आजम सरदार भागत सिंह को फांसी दिये जाने के बाद हुआ था। इस अधिवेशन में कांग्रेस ने भारत के नागरिकों को बिना किसी स्त्री पुरुष या धार्मिक भेदभाव के निजी मौलिक व मानवीय अधिकार व स्वतन्त्रता दिये जाने का आश्वासन दिया था जो मुस्लिम पर्सनल कानून के लिए अवरोधकारी हो सकते थे। दूसरे उस समय तक मुस्लिम लीग ने 1930 में प्रयागराज (इलाहाबाद) में अपना सम्मेलन करके मुसलमानों के लिए पंजाब व इससे मिले राज्यों में पृथक स्वतन्त्र मुस्लिम राज्य या पाकिस्तान बनाये जाने की मांग उठा दी थी। मुस्लिम लीग का यह सम्मेलन प्रख्यात उर्दू पंजाबी शायर अल्लामा इकबाल की सदारत में हुआ था। मगर पं. नेहरू ने 1947 में मुसलमानों के लिए पृथक पाकिस्तान बन जाने के बावजूद कराची अधिवेशन में पारित प्रस्ताव को नहीं छोड़ा।
कुछ इतिहासकार इसे उनकी ऐतिहासिक गलती मानते हैं जिसकी वजह से स्वतन्त्र भारत में भी मुसलमान नागरिकों की राष्ट्रीय पहचान उनके मजहब के दायरे से बाहर नहीं निकल सकी। परन्तु वर्तमान में जिस प्रकार विभिन्न राज्य सरकारें अपने-अपने प्रदेशों में समान नागरिक आचार संहिता लागू करने के लिए राज्य स्तर पर विशिष्ट समितियों का गठन कर रही हैं उसे लेकर भी यह भ्रम बना हुआ है कि यह कार्य सीधे केन्द्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है क्योंकि भारतीय संविधान इसका निर्देश राष्ट्रीय सरकार को ही देता है। इस सन्दर्भ में यह महत्वपूर्ण है कि परिवार व उत्तराधिकार का विषय संविधान की समवर्ती सूचि में आता है। अर्थात राज्य सरकारों को भी यह अधिकार प्राप्त है कि वे अपने राज्य नागरिकों के लिए इस सन्दर्भ में एक समान कानून बना सकती हैं। इसी वजह से पहले उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने एक विशेष समिति गठित की और अब गुजरात सरकार ने भी ऐसी ही एक समिति उच्च न्यायालय के रिटायर न्यायाधीश की अध्यक्षता में गठित करने का फैसला लिया है। परन्तु जहां तक केन्द्र सरकार का सम्बन्ध है तो उसने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दायर करके कहा है कि आचार संहिता का मामला 22वें विधि आयोग के विचारार्थ सौंपा जायेगा। इसने अपने हलफनामे में यह भी कहा कि संविधान सरकार को सभी धर्मों व समुदायों के लिए विवाह व उत्तराधिकार से लेकर अभिभावक व तलाक आदि के एक समान कानून बनाने के लिए अधिकृत करता है। अलग-अलग धर्मों व समुदायों में इस सन्दर्भ में अलग-अलग कानून व नियम होने के कारण राष्ट्रीय एकता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। मगर कोई भी संस्था या व्यक्ति विधायिका को विशिष्ट कानून बनाने के लिए बाध्य नहीं कर सकता क्योंकि यह दायित्व चुने हुए प्रतिनिधियों का ही होता है और नीतिगत मामला होता है।
भारत में फिलहाल हिन्दू, जैन, सिख व बौद्ध समुदाय की आचार संहिता 1955 के हिन्दू विवाह कानून से बन्धी हुई है और मुसलमानों पर 1937 का शरीया कानून लागू होता है, जबकि पारसियों पर उनका 1936 का विवाह व तलाक कानून लागू होता है, मुसलमानों पर 1937 का शरीया कानून प्रभावी होता है जबकि इसाइयों पर 1872 का प्राचीन विवाह कानून लागू माना जाता है। एक भारत में इतनी अधिक आचार संहिताएं हैं। फिलहाल केवल गोवा ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां धार्मिक आग्रहों से परे एक समान आचार संहिता लागू है। मगर वह इस राज्य के 1961 तक पुर्तगाल का उपनिवेश रहने की वजह से है, यहां पुर्तगालियों द्वारा बनाया गया 1867 का कानून लागू है। सवाल यह है कि जब धर्म, लिंग, समुदाय, भाषा आदि को दरकिनार करके भारत का संविधान सभी नागरिकों को एक समान निजी अधिकार देता है तो उनकी आचार संहिता भी एक समान क्यों न हो? बेशक संविधान धार्मिक स्वतन्त्रता भी देता है मगर फौजदारी मामलों में यह सभी को एक तराजू पर रख कर तोलता है। घरेलू मामलों में हम बहुत से फौजदारी कानून लाये हैं, मगर पृथक आचार संहिता के चलते इन्हें भी धार्मिक पहचान के नीचे दबाने की कोशिश की जाती है ।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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