भारत के सामने जलवायु परिवर्तन की बड़ी चुनौती
जलवायु परिवर्तन से भारत में कृषि और अर्थव्यवस्था पर गहरा असर
मानवीय गतिविधियों और क्रियाकलापों के कारण दुनिया का तापमान बढ़ रहा है और इससे जलवायु में होता जा रहा परिवर्तन अब मानव जीवन के हर पहलू के लिए खतरा बन चुका है। जलवायु परिवर्तन अब केवल चर्चा का विषय नहीं, बल्कि एक वास्तविक संकट है, इसका प्रभाव देशभर में गहराई से महसूस किया जा रहा है। आज अमेरिका जैसे विकसित देश भी इस संकट से अछूते नहीं हैं। 19वीं सदी की तुलना में धरती का तापमान लगभग 1.2 सेल्सियस अधिक बढ़ चुका है और वातावरण में कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा में भी 50 फीसदी तक वृद्धि हुई है।
जलवायु परिवर्तन का अर्थ है पृथ्वी की जलवायु में हो रहे दीर्घकालिक बदलाव, जो मुख्य रूप से मानवीय गतिविधियों और प्राकृतिक प्रक्रियाओं के कारण होते हैं। यह परिवर्तन तापमान में वृद्धि, वर्षा के पैटर्न में बदलाव, समुद्र स्तर में वृद्धि और ‘एक्स्ट्रीम वेदर कंडीशन’ के रूप में देखा जाता है।
औद्योगिक क्रांति के बाद से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में भारी वृद्धि हुई है जिससे दुनिया का तापमान लगातार बढ़ रहा है। कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड जैसी गैसें वायुमंडल में एक परत बना लेती हैं जो सूर्य से आने वाली गर्मी को रोककर पृथ्वी को अधिक गर्म कर देती है। इस प्रक्रिया को ग्रीन हाउस प्रभाव कहते हैं। हाल के वर्षों में हमने देखा है कि देश में बेमौसम बारिश, भीषण गर्मी और लंबे सूखे का असर बढ़ा है। कभी राजस्थान की तपती रेत में अचानक आई बाढ़ हो या हिमाचल प्रदेश के हरे-भरे पहाड़ों पर आए भूस्खलन हों। जलवायु परिवर्तन अब दूर की चेतावनी नहीं, बल्कि एक रोज़मर्रा की हकीकत बन चुकी है। यह बदलाव केवल पर्यावरण को ही नहीं, बल्कि हमारी अर्थव्यवस्था, खेती और जीवन जीने के तौर-तरीकों को भी प्रभावित कर रहा है।
भारतीय कृषि, जो बड़े पैमाने पर मानसूनी बारिश पर निर्भर करती है, जलवायु परिवर्तन के कारण सबसे ज्यादा प्रभावित हो रही है। असामान्य बारिश और तापमान में बढ़ोतरी ने किसानों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। महाराष्ट्र, पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में फसल चक्र प्रभावित हुआ है जिससे उत्पादन में गिरावट आई है और किसानों को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा है। पिछले एक महीने में अचानक बढ़ी गर्मी ने किसानों की चिंता बढ़ा दी है। असामयिक जलवायु परिवर्तन से कृषि विज्ञानी भी चिन्तित हैं। रबी की अच्छी पैदावार के लिये इन दिनों तापमान 10 से 12 डिग्री सेल्सियस ही रहना चाहिए लेकिन तापमान 26 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चढ़ रहा है इससे रबी फसलों की बढ़वार प्रभावित होगी। फसल ठिगनी रह जाएंगी। उसमें समय से पहले फूल-फल लग जाएंगे। गेहूं, दलहन एवं तिलहन फसलों में रोग व्याधि भी लगेगा। कीट एवं लाही का प्रकोप बढ़ जाएगा।
फरवरी 2025 का महीना 125 साल (1901-2025) के इतहिास में सबसे गर्म रहा। भारत मौसम विज्ञान विभाग यानी आईएमडी ने एक वर्चुअल प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान बताया कि आगामी गर्मी के सीजन (मार्च-मई) के दौरान देश के अधिकांश हिस्सों में सामान्य से अधिक गर्मी पड़ेगी। इस दौरान लू के दिनों की संख्या अधिक होगी। वर्ष 2025 के दोनों महीने, जनवरी, फरवरी तीन सबसे गर्म महीनों में शामिल हैं, क्योंकि जनवरी 1901 के बाद से तीसरा सबसे गर्म महीना था। इससे पहले 1901 के रिकॉर्ड में 2024 को सबसे गर्म वर्ष घोषित किया गया था। आईएमडी ने यह भी बताया कि सर्दी के मौसम में तापमान बढ़ने की वजह से रबी फसलों का उत्पादन प्रभावित हो सकता है। सबसे ज्यादा प्रभाव गेहूं की पैदावार पर देखने को मिल सकता है।
विश्व मौसम संगठन (डब्ल्यूएम ओ) के अनुसार, इसके साथ ही, सूखा, लू, भारी बारिश जैसी मौसमी घटनाएं बढ़ सकती हैं जो बाढ़, बीमारियों और कीटों के हमलों को बढ़ावा देकर फसलों की पैदावार और गुणवत्ता पर असर डाल सकती हैं। पिछले तीन महीनों नवंबर 2024 से जनवरी 2025 तक के मौसम के आंकड़ों के आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि आगामी मौसम में उतार-चढ़ाव देखने को मिलेगा लेकिन गर्मी सामान्य से अधिक बनी रहेगी। डब्ल्यूएमओ की रिपोर्ट बताती है कि नवंबर 2024 से जनवरी 2025 के बीच ज्यादातर महासागरों में समुद्री सतह का तापमान (एसएसटी) सामान्य से अधिक था। भारत के शहरों में भी जलवायु परिवर्तन की मार साफ दिखाई देती है। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में गर्मी के दिनों की संख्या बढ़ रही है जिससे ऊर्जा की मांग बढ़ जाती है। बिजली की खपत में इज़ाफ़ा होता है जिससे कोयले जैसे जीवाश्म ईंधनों का अधिक उपयोग किया जाता है और यह एक दुष्चक्र बन जाता है।
वायु प्रदूषण जो पहले से ही एक गंभीर समस्या थी, जलवायु परिवर्तन के कारण और भयावह रूप ले रहा है। दिल्ली की जहरीली हवा जो साल के अंत में सुर्खियों में बनी रहती है, यह इस संकट की एक बानगी भर है। हिमालयी क्षेत्र भी इस बदलाव से प्रभावित है। हिमाचल और उत्तराखंड में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं जिससे नदियों में अस्थिर जल प्रवाह हो रहा है। यह न केवल वहां रहने वाले समुदायों के लिए संकट पैदा कर रहा है, बल्कि गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों पर निर्भर करोड़ों लोगों के भविष्य को भी खतरे में डाल रहा है। समुद्र तटीय राज्यों की स्थिति भी चिंताजनक है। बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में चक्रवाती तूफानों की संख्या और तीव्रता बढ़ रही है जिससे तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों को लगातार विस्थापन का सामना करना पड़ रहा है। सुंदरबन के द्वीपों पर रहने वाले हजारों परिवार हर साल जलस्तर बढ़ने की वजह से अपना घर छोड़ने को मजबूर होते हैं।
2015 में भारत सहित दुनिया के 200 से अधिक देशों ने जलवायु परिवर्तन को लेकर पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और दुनिया के तापमान को 1.5 डिग्री से अधिक ना बढ़ने देने की प्रतिबद्धता जाहिर की थी। इस प्रतिबद्धता के तहत ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम किया जाना था। प्रतिबद्धताओं की बात की जाए तो सरकार ने तय किया है कि भारत 2005 के स्तर के मुकाबले अपनी जीडीपी से होने वाले उत्सर्जन को 2030 तक 45 फीसदी तक कम करेगा। साल 2030 तक भारत अपने कुल बिजली उत्पादन का 50 फीसदी तक स्वच्छ ऊर्जा से हासिल करेगा। अतिरिक्त पेड़ और जंगल लगाकर भारत 2.5 से 3 अरब टन अतिरिक्त कॉर्बन को सोखेगा।
इस संकट से निपटने के लिए भारत सरकार ने कई कदम उठाए हैं। हालांकि यह चुनौती केवल सरकार की नहीं, बल्कि पूरे समाज की है। अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देना, कोयले पर निर्भरता कम करना और हरित तकनीकों को अपनाना इस दिशा में जरूरी कदम हैं। भारत ने 2070 तक नेट जीरो कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य रखा है लेकिन इसके लिए ठोस नीति और जन-भागीदारी आवश्यक होगी। व्यक्तिगत स्तर पर भी हम जलवायु परिवर्तन के खिलाफ अपनी भूमिका निभा सकते हैं। कम ऊर्जा खपत, पानी की बचत, प्लास्टिक का कम उपयोग और सार्वजनिक परिवहन को प्राथमिकता देने जैसे छोटे प्रयास मिलकर बड़े बदलाव का हिस्सा बन सकते हैं। जलवायु परिवर्तन की चुनौती हमें यह सिखा रही है कि प्रकृति के साथ संघर्ष नहीं, बल्कि समन्वय में जीना ही एकमात्र समाधान है।