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चुनाव के बीच ही गठबन्धन !

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10:05 AM May 08, 2019 IST | Desk Team

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मौजूदा लोकसभा चुनाव कई मायनों में इतिहासकारों के लिए महत्वपूर्ण निशान छोड़ रहे हैं। आगामी 23 मई को आने वाले चुनाव परिणाम तो निश्चित रूप से अपनी जगह तो इतिहास में बनायेंगे ही मगर इन चुनावों में चुनाव आयोग और मीडिया की भूमिका पर भी संभवतः स्वतन्त्र अध्याय लिखे जायेंगे। चुनाव की गर्मी में हम आज जिन चीजों को बहुत ‘हल्के’ में ले रहे हैं उनकी भूमिका भारत में लोकतन्त्र का इतिहास लिखने वाले मनीषियों के लिए संभवतः सबसे ‘भारी’ विषय हो सकता है। यह तय है कि चुनावी बाजी जो जीतता है अंत में वही सिकन्दर माना जाता है और इस जीत के लिए राजनैतिक दल जो माहौल बना रहे हैं उसमें सबसे ज्यादा फजीहत उसी आदमी के सिद्धान्तों की हो रही है जिसने हमें अंग्रेजों की गुलामी से छुड़ाकर यह लोकतान्त्रिक व्यवस्था दी।

जाहिर तौर पर वह व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ही थे जिन्होंने 1936 में ही ऐलान कर दिया था कि भारत की आजादी की शर्त प्रत्येक वयस्क को बिना किसी भेदभाव के बराबरी के एक वोट के अधिकार से बंधी होगी। तब अंग्रेजों ने ही इसे भारतीय नेताओं की ‘अन्धे कुएं में छलांग’ बताया था मगर गांधी ने इसके लिए ‘साधन और साध्य’ की शुद्धता को जरूरी शर्त बताया था और स्पष्ट किया था कि लोकतान्त्रिक युद्ध में यह जुमला नहीं चल सकता कि ‘मुहब्बत और जंग में सब जायज होता है।’ इसकी वजह यही थी कि संसदीय लोकतन्त्र किसी भी पार्टी के विचार या सिद्धान्त को आम लोगों की ताकत के बूते पर इस प्रकार ही परास्त करता है कि परास्त होने वाले राजनैतिक दल की विचारधारा हथियार डालकर आत्मसमर्पण नहीं करती है बल्कि उस पर डटे रहकर भविष्य की तैयारी उसी आम जनता की ताकत के साथ करती है जिसने कभी उसे पराजित किया था। हम देखते हैं कि 1984 के चुनाव में भाजपा के सिर्फ दो सांसद ही चुनकर आये थे मगर 2014 में वह अपने बूते पर ही सरकार बनाने में केवल 31 प्रतिशत मत लेकर ही कामयाब हो गई जबकि उसके विरोध में पड़े 69 प्रतिशत मत देने वाले लोगों के प्रतिनिधि विपक्ष में बैठे।

इसकी वजह भारत की बहुदलीय राजनैतिक प्रणाली को कहा जा सकता है जो इसकी वृहद भौगोलिक व सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता के लिए बहुत आवश्यक है। अतः राजनैतिक गठबन्धनों की गुंजाइश इस व्यवस्था में अन्तर्निहित थी जिसे हमारे संविधान निर्माताओं ने इस तरह महसूस किया कि उन्होंने भारत को राज्यों का संघ (यूनियन आफ इंडिया) बताया। आजादी के बाद 1967 तक पूरे देश पर लगभग एकछत्र (केरल को छोड़कर) राज करने वाली पार्टी कांग्रेस स्वयं में विभिन्न विचारधाराओं का वह महासमागम था जिसमें विभिन्न विचारधाराएं आकर समाहित होती थीं। इसमें परिवर्तन 1969 में इसके प्रथम विघटन के बाद आना शुरू हुआ जब स्व. इंदिरा गांधी की समाजवादी नीतियों के खिलाफ पार्टी के दक्षिणपंथी झुकाव के गुट ने घुटने टेकने से मना कर दिया।

हालांकि इसमें स्व. कामराज जैसे समाजवाद के पुरोधा भी शामिल थे परन्तु इस विघटन से यह साबित हो गया था कि कांग्रेस पार्टी विभिन्न विचारधाराओं का मजबूत गठबन्धन ही थी। अतः इसके प्रथम बिखराव का असर दूरगामी रहा जिसकी वजह से बाद में इसमें से ही निकल कर कई नये राजनैतिक दलों का गठन क्षेत्रवार होता रहा परन्तु 1977 में केवल गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर गठित जनता पार्टी का प्रयोग इस तरह विफल हुआ कि इसने भारत को दो राजनैतिक ध्रुवों में बांट दिया। दक्षिण भारत के सभी राज्यों में इंदिरा जी की कांग्रेस की शानदार विजय हुई और उत्तर भारत में इसका सूपड़ा साफ हो गया। इसके बाद 1980 से लेकर 1996 तक भारत की राजनीति में जो परिवर्तन आने शुरू हुए उनमें उत्तर और दक्षिण का भाव हमेशा बना रहा और यहां तक बना कि 1984 में स्व. राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को 414 सीटंे मिलने के बावजूद आन्ध्र प्रदेश के तेलगू देशम के नेता को लोकसभा में बराये नाम विपक्ष के नेता का दर्जा देना पड़ा।

परोक्ष रूप से यह भारत की विविधता का ही सम्मान था। बेशक कुछ और भी उदाहरण दिये जा सकते हैं परन्तु संदर्भों में इनका उल्लेख इसलिए जरूरी है कि अभी चुनाव के केवल पांच चरण ही पूरे हुए हैं और तेलंगाना के मुख्यमन्त्री चन्द्रशेखर राव झोला डालकर विभिन्न गैर-कांग्रेसी व गैर-भाजपाई नेताओं से मिलने निकल पड़े हैं। भारत के गांवों में एक कहावत बहुत प्रसिद्ध है कि ‘गांव बसा नहीं और गिरहकट पहले ही आ गये।’ इस देश की हकीकत को जाने बिना इस प्रकार के प्रयास केवल शेख चिल्ली का सपना ही कहे जा सकते हैं। भारत में मौजूदा समय में केन्द्र में ऐसी कोई भी सरकार नहीं बन सकती जिसमें कांग्रेस या भाजपा में से कोई एक शामिल न हो। चुनाव पूर्व बने गठबन्धनों को स्पष्ट बहुमत न मिलने की सूरत में नये राजनैतिक समीकरणों में भी इन दोनों ही पार्टियों की भूमिका केन्द्र में रहेगी और नये प्रधानमन्त्री पद के लिए नेता का चुनाव सर्वसम्मति से ही हो सकता है।

एक प्रकार से यह भारत की राजनीति के लिए शुभ लक्षण इसलिए कहा जायेगा क्योंकि इसमें भारत की विविधता साक्षात विद्यमान रहेगी जो इसे पांचों अंगुलियों को मुट्ठी बांधकर चलाने की मानिन्द हो सकती है बशर्ते राजनैतिक दल अपने निजी स्वार्थों को राष्ट्रीय हितों पर कुर्बान करने के जज्बे से चलें। ऐसे गठबन्धनों का निर्माण चुनाव पूर्व ही कांग्रेस व भाजपा दोनों ने किया हुआ भी है जो इसी बात का प्रमाण है कि पहले से ही गठबन्धन सरकारों की संभावना को दोनों ही प्रमुख दल लेकर चल रहे हैं परन्तु तीसरे गठबन्धन की संभावना की जब हम बात करते हैं तो गैर-भाजपावाद और गैर-कांग्रेसवाद को धुरी बनाते हैं मगर इसकी कमान इन्हीं दो में से किसी एक पार्टी को दिये बिगैर यह संभव नहीं है। तो फिर तीसरे गठबन्धन का मतलब ही क्या रह जाता है? यदि मौजूदा सन्दर्भों में कोई मजबूत गठबन्धन बन सकता है तो वह केवल आर्थिक कार्यक्रम के आधार पर ही बन सकता है और चन्द्रशेखर राव जैसे राजनीतिज्ञों की इसमें कोई भूमिका नहीं हो सकती जो तेलंगाना राज्य को किसी जागीरदार की तरह चला रहे हैं।

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