ढहते पुल : ध्वस्त सिस्टम
इतिहास का यह कालखंड पुलों के टूटने, दरकने और बहने के कालखंड के नाम से जाना जाएगा। अंग्रेजों द्वारा बनाए गए पुल देश में मियाद पूरी होने के बावजूद भी बरकरार है लेकिन चार दशक पहले बनाए गए पुल भी दरकने लगे हैं। सभ्यताओं के निर्माण की वास्तविक कथा पुलों के बनने और बनाए जाने की कहानी है। पुलों से ही शहरों, गांवों और समाज का सम्पर्क और व्यापार बढ़ा है। सभ्यताओं ने इन्हीं पुलों के मजबूत ढांचों की बुनियाद पर खड़े होकर अपनी ऊंचाइयां हासिल की हैं। यह पुल अनायास नहीं गिर रहे लेकिन अफसोस कि एक के बाद एक पुल गिर रहे हैं। गुजरात के बड़ोदरा जिले में महिसागर नदी पर 4 दशक पुराना पुल अचानक ढहने से तेज रफ्तार दौड़ रहे कई वाहन नदी में गिर गए। इस हादसे में 15 लोगों की मौत हो गई और कुछ अन्य घायल हो गए। बिहार में एक के बाद एक पुलों का गिरना आम बात हो गई है लेकिन गुजरात में हुए इस हादसे ने मोरबी पुुल हादसे की याद ताजा कर दी, जिसमें लगभग 140 लोग मारे गए थे।
इस हादसे से एक बार फिर सवाल खड़े हो गए हैं कि क्या यह हादसा मानवीय लापरवाही का परिणाम है? और इस हादसे के लिए कौन-कौन जिम्मेदार है। प्राकृतिक आपदाओं के चलते पुल गिर जाए तो हम इसे प्रकृति का प्रकोप मान लेते हैं लेकिन मुरम्मत किए जाने के बावजूद सामग्री की खराबी के कारण या रखरखाव की कमी या मानवीय चूक के चलते पुल ध्वस्त हो जाए तो इसे मौत का पुल ही कहा जाएगा। आसपास की आबादी का कहना है कि उन्होंने पुल को खतरनाक होने की जानकारी प्रशासन को दे दी थी और इस पुल पर आवाजाही बंद करने का आग्रह भी किया था लेकिन सिस्टम सोया रहा जो लोगों की मौत का कारण बना। ब्रिज या पुल टूटने की यह कोई पहली घटना नहीं है। एक अध्ययन के अनुसार, पिछले 10 सालों में भारत में 2,130 पुल ढह गए। इनमें से कई पुल निर्माण के दौरान ही गिर गए। पुलों के टूटने के कई कारण हैं, जिनमें प्राकृतिक आपदाएं, सामग्री की खराबी और ओवरलोडिंग शामिल हैं।
अभी कुछ दिन पहले ही पुणे में इंद्राणी नदी पर बना एक पुराना पुल ढह गया। इस हादसे में दो लोगों की जान चली गई और कई लोग बह गए। 2024 की एक रिपोर्ट के मुताबिक सड़क परिवहन मंत्रालय ने राज्यसभा को जानकारी दी थी कि पिछले तीन सालों में राष्ट्रीय राजमार्गों पर 21 पुल ढह गए। इनमें से 15 पुल बने हुए थे और छह निर्माणाधीन थे। हर हादसे के बाद जांच के आदेश दे दिए जाते हैं लेकिन किसी की जवाबदेही तय नहीं की जाती। 2047 तक हम भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का संकल्प लिए हुए हैं और सरकार के रोडमैप में बुनियादी ढांचे का विकास केन्द्रीय बिन्दु है। दुनिया की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ललक पाले हुए हैं लेकिन बुनियादी ढांचे को देखकर ऐसा लगता है कि सब कुछ गडमड है। ईंट, गारे, लोहे, बजरी, सीमेंट के पुल जब भी गिरते हैं तो मरने वाले लोगों के परिजनों का क्रंदन, थोड़ा सियासी शोर, एक-दूसरे के सिर पर जिम्मेदारी फोड़ने और साठगांठ कर एक-दूसरे को साफ बचाने के कर्मकांड किए जाते हैं और बना दिए जाते हैं एक बार फिर गिरने के लिए नए पुल।
गुजरात सरकार विकास के लगातार दावे करती आ रही है लेकिन पुलों का गिरना सबके लिए चिंता का विषय है। हैरानी की बात तो यह भी है कि हादसे के बाद प्रशासन से पहले ग्रामीणों ने वहां पहुंच कर देवदूतों की तरह काम किया और कई लोगों की जान बचाई। गुजरात का पुल हादसा एक्ट ऑफ गॉड है या एक्ट ऑफ फ्रॉड। इस पुल को लेकर अब बहुत शोर मचाया जा रहा है कि राज्य में किसी भी ठेकेदार को ऑर्डर मिलने के बाद उससे कमीशन लिया जाता है और ठेकेदार घटिया सामग्री का इस्तेमाल कर निर्माण कर देते हैं, इसलिए हादसे के पीछे भ्रष्टाचार है। कई बार तो पुलों के डिजाइन को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं। हाल ही में 90 डिग्री पर दो पुल बनाए जाने को लेकर भी सोशल मीडिया पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। गुजरात सरकार ने मोरबी हादसे से कोई सबक नहीं सीखा। पिछले पांच वर्षों में गुजरात में नए-पुराने या निर्माणाधीन पुल और फ्लाईओवर क्यों ढह रहे हैं। निश्चित रूप से ऐसे मामलों में जवाबदेही तय होनी चाहिए। किसी हादसे के बाद सख्त कार्रवाई ही भविष्य में हादसों को रोक सकती है।
पुल गिरने की घटनाएं सिर्फ मज़ाक नहीं हैं, ये सरकार और प्रशासन की गंभीर विफलता को दर्शाती है। विकास के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं, पर जब परिणाम ये हो कि पुल बनते ही गिर जाए, तो ये आम जनता के साथ मजाक के समान है। सवाल ये है कि क्या ऐसे पुलों से हमारा भविष्य सुरक्षित है? हर बार पुल गिरने के बाद ठेकेदार, इंजीनियर और प्रशासन एक-दूसरे पर दोष मढ़ने लगते हैं, लेकिन असली सवाल ये है कि क्या पुल निर्माण के दौरान सही मानकों का पालन किया गया था? क्या गुणवत्तापूर्ण सामग्री का उपयोग हुआ? या फिर जल्दी पैसा कमाने के चक्कर में हर चीज़ को जल्दबाजी में निपटा दिया गया? समाधान क्या हो सकता है? सबसे पहला और आवश्यक कदम यह है कि पुल निर्माण के लिए जिम्मेदार ठेकेदारों और इंजीनियरों को सख्त जवाबदेही में लाया जाए।
गुणवत्तापूर्ण निर्माण सामग्री का इस्तेमाल हो और पुल निर्माण के दौरान पूरी सुरक्षा और निगरानी सुनिश्चित की जाए। इसके साथ ही, जनता और सरकार को यह समझने की जरूरत है कि विकास सिर्फ कागजों पर नहीं, बल्कि जमीनी स्तर पर होना चाहिए। ऐसे राज्यों में, जहां बाढ़ और नदियों की भरमार है, पुलों का सही तरीके से निर्माण होना बेहद जरूरी है। ये केवल पुल ही नहीं, बल्कि लोगों की जान और उनके रोजमर्रा के जीवन से जुड़े हुए हैं। पुलों की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए हर स्तर पर पारदर्शिता और ईमानदारी आवश्यक है। तो अगली बार जब कोई पुल बने, तो बस यही प्रार्थना करें कि वह पुल थोड़ी देर तक खड़ा रहे, क्योंकि अभी के हालात में तो पुल का गिरना ही आम बात हो गई है।