चुनाव आयोग और मतदाता !
बिहार के चुनावों से पूर्व राज्य की मतदाता सूची के पुनरीक्षण को लेकर जिस तरह राजनैतिक माहौल गरमाया हुआ है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि चुनाव आयोग ने यह भारी कवायद करने से पहले देश के विभिन्न राजनैतिक दलों से विचार- विमर्श नहीं किया। मगर इसका अर्थ यह भी है कि राजनैतिक दल चाहते हैं कि मतदाता सूचियों के सत्यापन में उनकी भी छिपी हुई भूमिका है। यदि इस तथ्य का हम वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि राजनैतिक दल चुनाव आयोग के कामकाज में हस्तक्षेप करना चाहते हैं। भारत के संविधान के अनुसार चुनाव आयोग एक ऐसी स्वतन्त्र व निष्पक्ष संस्था होती है जो सरकार का अंग नहीं है। चुनाव आयोग व न्यायापालिका को सरकार का अंग न बनाकर हमारे संविधान निर्माताओं ने यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया था कि भारत का लोकतन्त्र पूरी तरह निष्पाप व निष्कलंक रहे। चुनाव आयोग सीधे मतदाताओं के प्रति जवाबदेह होता है और वह भारतीय लोकतन्त्र की उर्वरा जमीन तैयार करता है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है कि लोकतन्त्र के मालिकाना हक केवल आम लोगों के हाथ में रहें।
चुनाव आयोग यही काम करता है क्योंकि वह पांच साल बाद विधानसभाओं व लोकसभा के चुनाव कराकर भारत की राजनैतिक आधार पर प्रशासन प्रणाली इस तरह तैयार करता है कि जो भी राजनैतिक दल या दलों का समूह विधानसभा व लोकसभा में बहुमत प्राप्त करे वही देश का शासन चलाये। भारत में यह कार्य चुनावों के माध्यम से ही होता है जिन्हें चुनाव आयोग सम्पन्न कराता है। इसका सबसे प्राथमिक व जरूरी काम मतदाता सूचियां तैयार करने का होता है। इसलिए यदि इसी में गड़बड़ी होगी तो ऊपर तक सारे लोकतन्त्र में अशुद्धि घुल जायेगी। चुनाव आयोग यदि किसी प्रकार की अशुद्धि को दूर करने के लिए मतदाता सूची के पुनरीक्षण का काम कर रहा है तो इसमें राजनैतिक दलों को ऐतराज क्यों होना चाहिए? मगर सवाल यह है कि पुनरीक्षण का पैमाना क्या है। बिहार के लिए चुनाव आयोग ने जो फार्मूला दिया है उसके अनुसार 2003 की मतदाता सूची में जिनके नाम थे उन्हें चिन्ता करने की जरूरत नहीं है मगर इसके बाद से जो नये मतदाता जुड़े हैं उनकी विश्वसनीयता की वह जांच करेगा। इस बीच 18 साल से ऊपर होने वाले बिहारी मतदाताओं की संख्या तीन करोड़ से भी ऊपर मानी जा रही है।
इन मतदाताओं के सत्यापन के लिए जो निर्देशावली चुनाव आयोग द्वारा जारी की गई उसमें वोटर कार्ड, राशन कार्ड व आधार कार्ड को शामिल नहीं किया गया। इसका मतलब यह है कि बिहार में पिछले बीस सालों में जो चुनाव हुए हैं उनमें कुछ सन्देहास्पद मतदाताओं ने भी वोट डाले। एेसे सन्देहास्पद मतदाताओं की छंटनी करने का ही इरादा आयोग का लगता है। मगर इस मामले के सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच जाने के बाद देश की सबसे बड़ी अदालत ने सुझाव दिया कि इन तीनों कार्डों को भी मतदाता सत्यापन का आधार बनाया जाये। भारत की कुल आबादी 140 करोड़ से ऊपर मानी जाती है जिसमें से 97 प्रतिशत लोगों के पास आधार कार्ड हैं। बल्कि बिहार के सीमांचल कहे जाने वाले इलाके के चार जिलों में तो हालत यह पाई गई कि आधार कार्ड कुल आबादी से भी अधिक की संख्या में हैं। इसका मतलब यह है कि कुछ फर्जी आधार कार्ड भी हैं। हालांकि राशन कार्ड के बारे में यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह परिवार के आधार पर बनता है।
मगर इसमें भी गड़बड़ी पाई जाती है। राशन कार्ड बनाने का काम राज्य सरकारें करती हैं जबकि वोटर कार्ड खुद चुनाव आयोग तैयार करता है। अतः 2003 के बाद बिहार में जो भी वोटर कार्ड बने उनमें कुछ संदिग्ध हैं। चुनाव आयोग अब यह स्वीकार कर रहा है कि बिहार में कुछ नेपाली, बंगलादेशी व म्यांमारी लोगों के नाम भी मतदाता सूचियों में हैं। यह बहुत गंभीर मामला है क्योंकि संविधान के अनुसार केवल भारत के वैध नागरिक को ही सरकार ने मत देने का अधिकार दिया हुआ है। वोट का अधिकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हिस्सा नहीं है, बल्कि यह भारत में लोकतन्त्र को जनोन्मुखी बनाने का लक्ष्य है। जिसका वादा स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भारत के लोगों से किया था और समानता के आधार पर भारत के हर जाति, धर्म के वयस्क स्त्री-पुरुष को वोट का अधिकार दिया था।
स्वतन्त्रता के बाद इस समानता के वोट अधिकार को सरकार की नीति बनाया गया। इसी नीति पर हमारा लोकतन्त्र टिका हुआ है। अब चुनाव आयोग कह रहा है कि वह पूरे देश में बिहार की तर्ज पर मतदाता सूची के पुनरीक्षण का कार्य करेगा। इस बाबत उसने विभिन्न राज्यों के चुनाव आयुक्तों को आवश्यक दिशा-निर्देश भी जारी कर दिये हैं। इस पर भारत के विपक्षी दल भारी विरोध की मुद्रा में हैं और कह रहे हैं कि चुनाव आयोग राष्ट्रीय स्तर पर मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण में इतनी जल्दबाजी क्यों दिखा रहा है जबकि पूरा मामला सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है। विपक्षी दलों का तर्क है कि बिहार के पुनरीक्षण मामले की अगली सुनवाई 28 जुलाई को होनी है और संभव है कि सुनवाई और आगे तक भी हो अतः न्यायालय का फैसला आने का चुनाय आयोग को इन्तजार करना चाहिए था।
मगर वह तो उल्टे पूरे देश में ही यह कवायद कराने की सोच रहा है। अगले वर्ष 2026 में असम, प. बंगाल , तमिलनाडु आदि राज्यों में चुनाव होने हैं। राष्ट्रीय स्तर पर मतदाता सूची नये सिरे से तैयार करने के लिए चुनाव आयोग ने 1जनवरी 2026 तारीख नियत की है। अर्थात इस तारीख से देश के सभी राज्यों ( बिहार को छोड़कर ) में चुनाव आयोग मतदाताओं के सत्यापन का काम शुरू कर देगा। विपक्षी दल कह रहे हैं कि यह काम सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद ही किया जाना चाहिए। गौर से देखा जाये तो चुनाव आयोग यह सुझाव स्वीकार कर सकता है और विभिन्न राजनैतिक दलों से इस बीच मन्त्रणा भी कर सकता है। इसमें कोई बुराई नहीं है क्योंकि लोकतन्त्र संवाद से ही चलता है।