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म्यांमार में घमासान

01:15 AM Nov 26, 2023 IST | Aditya Chopra
म्यांमार में घमासान

म्यांमार में अधिकांश समय सैन्य शासन ही रहा है। इस देश की सैन्य सरकार ने नियमों और कानूनों को अपने हिसाब से बनाया और तोड़ा ताकि सत्ता पर हमेशा उसका ही कब्जा बना रहे। इतिहास पर नजर डालें तो कभी यहां पर भी अंग्रेजों का ही शासन था। 1937 से पहले भारत की ब्रिटिश सरकार ने इसे भारत का ही राज्य घोषित किया था लेकिन बाद में इसको भारत से अलग कर अपना उपनिवेश बना दिया था। 80 के दशक से पहले इसका नाम बर्मा हुआ करता था लेकिन बाद में इसका नाम म्यांमार कर दिया। 4 जनवरी 1948 को यह ब्रिटिश शासन से मुक्त हुआ। 1962 तक यहां पर लोकतंत्र के तहत देश की जनता अपनी सरकार चुनती थी लेकिन 2 मार्च 1962 को सेना के जनरल ने विन सरकार का तख्ता पलट करते हुए देश की सत्ता पर कब्जा कर लिया था। सैन्य सरकार को यहां पर​ मिलिट्री जुंटा कहा जाता है। लम्बे समय तक लोकतंत्र बहाली आंदोलन चला। मानवाधिकार कार्यकर्ता आंग सान सू की ने मानवाधिकारों की रक्षा और लोकतंत्र के लिए अपनी आवाज बुलंद की। 2010 के आम चुनावों के बाद सैन्य शासन का अंत हो गया और आंग सान सू की म्यांमार की शीर्ष नेता तो बन गईं क्योंकि आंग सान सू की ने विदेशी से शादी की थी। इसलिए कानूनों के मुताबिक वह ​आधिकारिक रूप से राष्ट्राध्यक्ष नहीं बन सकी।
सेना ने एक बार फिर तख्त पलट कर निर्वाचित सरकार को बर्खास्त कर डाला और फिर से जुंटा शासन लगा दिया गया। किसी को अंदाजा ही नहीं था कि म्यांमार में लोकतंत्र के लिए भीतर ही भीतर इतना आक्रोश पनप रहा है और विद्रोही सेना के खिलाफ इतने मजबूत होकर निकलेंगे कि सेना को ही परस्त कर देंगे। एक महीना पहले सेना के ​ि​खलाफ शुरू हुए सशस्त्र आंदोलन के चलते म्यांमार में घमासान छिड़ चुका है। हालात इतने खराब हैं ​िक इससे भारत भी काफी चिंतित हो उठा है। म्यांमार के संघर्ष की वजह से हजारों शरणार्थी पहले ही मिजोरम में आकर बस चुके हैं। फरवरी 2021 में सैन्य तख्ता पलट के बाद से अब तक 31 हजार शरणार्थी आ चुके हैं और मौजूदा संघर्ष के दौरान लगभग 5 हजार शरणार्थी भारत पहुंच चुके हैं। इन शरणार्थियों के आने से पूर्वोत्तर भारत में तनाव फैलने की आशंका है। म्यांमार के चिन जातीय समूह के मणिपुर के कूकी समुदाय के साथ अच्छे संबंध हैं वहीं मणिपुर के मैतेई उग्रवादी संगठनों की म्यांमार में भी मौजूदगी है। सेना ने क्योंकि आंग सान सू की को कई मामलों में जेल में डाल रखा है। उनकी पार्टी के कई नेता और कई अन्य लोकतंत्र समर्थक जेलों में हैं। इसके बावजूद लोकतंत्र समर्थक ताकतें एक बार फिर एकजुट हो चुकी हैं। हालांकि सेना 4000 से ज्यादा नागरिकों और लोकतंत्र समर्थक कार्यकर्ताओं की हत्याएं कर चुकी है। ब्रदर हुड अलायंस सेना पर हमले कर रहा है और सेना की एक बटालियन ने तो हथियार भी डाल दिए हैं।
इस साल 27 अक्तूबर को म्यांमार के तीन विद्रोही गुट साथ आए। ये थे-अराकन आर्मी, म्यांमार नेशनल डिफेंस अलायंस आर्मी और ताआंग नेशनल लिबरेशन आर्मी। चूंकि, वहां के सैन्य शासन के खिलाफ इन तीन गुटों ने 27 अक्तूबर काे विद्रोह छेड़ा था, इसलिए इसे 'ऑपरेशन 1027' नाम दिया गया है। म्यांमार नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस आर्मी इन तीनों में सबसे ताकतवर मानी जाती है। ऑपरेशन 1027 को यही लीड कर रही है। इसका गठन 1989 में हुआ था। इसमें लगभग 6 हजार लड़ाके हैं। अराकन आर्मी का गठन 2009 में हुआ था। ये रखाइन प्रांत में एक्टिव हैं और यूनाइटेड लीग ऑफ अराक की मिलिट्री विंग है। इसके नेता त्वान सम्राट नाइंग हैं। माना जाता है कि इसके पास 35 हजार से ज्यादा लड़ाके हैं जो काचिन, रखाइन और शान प्रांत में एक्टिव हैं।
इस पूरे ऑपरेशन का मकसद वहां के सैन्य शासन का मुकाबला करना है। 'ब्रदरहुड अलायंस' के नाम से बने इस विद्रोही गठबंधन का उद्देश्य उत्तरी शान प्रांत में सेना और उसके सहयोगी सैन्य संगठनों को खदेड़ना है। ये प्रांत म्यांमार-चीन सीमा के पास पड़ता है। 27 अक्तूबर को अलायंस ने बयान जारी कर कहा था कि उनके ऑपरेशन का मकसद नागरिकों की रक्षा करना, आत्मरक्षा करना, अपने इलाकों पर नियंत्रण हासिल करना और म्यांमार सेना के हमलों और हवाई हमलों का जवाब देना है।
म्यांमार दशकों से जातीय अल्पसंख्यकों की हिंसा से रूबरू रहा है लेकिन अतीत में, बर्मी समाज में मुख्य राजनीतिक विरोधाभास सुश्री सू की अगुवाई में लोकतंत्र समर्थक आंदोलन द्वारा किया गया शांतिपूर्ण संघर्ष था लेकिन इस बार लोकतंत्र समर्थक आंदोलन ने शांतिपूर्ण प्रतिरोध के सू की के सिद्धांत को त्याग दिया और एक भूमिगत सरकार बनाई, एक मिलिशिया विंग की स्थापना की ओर जातीय मॉडल विद्रोहियों के साथ हाथ मिलाया। यह एक ऐसा नतीजा था जिसकी उम्मीद तख्तापलट शासन ने नहीं की थी। पिछले दो सालों में नई राजनीतिक हकीकतें सामने आई हैं। विद्रोहियों ने पर्याप्त इलाकों में दखल हासिल कर लिया है और जुंटा पर संचालन संबंधी दबाव बनाए रखते हुए कई मोर्चे खुले रखे हैं। जनरलों को क्षेत्रीय स्तर पर भी अलगाव का सामना करना पड़ रहा है, खासकर आसियान में। जुंटा के पास कोई आसान विकल्प उपलब्ध नहीं है। एक सैन्य समाधान असंभव दिखता है। जुंटा बातचीत के लिए आगे नहीं आया है लेकिन विविधता भरी नई पीढ़ी के नेताओं की अगुवाई में विद्रोहियों ने जनरलों से राजनीति से दूर हटने और फिर शांति की तलाश के लिए बातचीत करने को कहा है। उन्होंने जातीय अल्पसंख्यक क्षेत्रों के लिए अपेक्षाकृत ज्यादा स्वायत्तता वाली संघीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की मांग की है। अब देखना होगा ​कि म्यांमार लोकतंत्र की तरफ कैसे बढ़ता है।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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