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कांग्रेस, भाजपा और दलित राजनीति

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत में चुनावी दलित राजनीति के कई चेहरे रहे हैं…

10:38 AM Feb 21, 2025 IST | Rakesh Kapoor

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत में चुनावी दलित राजनीति के कई चेहरे रहे हैं…

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत में चुनावी दलित राजनीति के कई चेहरे रहे हैं जिनमें सबसे प्रमुख चेहरा संविधान निर्माता डा. भीमराव अम्बेडकर का था। 1956 तक उनके जीवनकाल के दौरान दलित राजनीति सामुदायिक आधार पर भारतीय राजनीति में अपनी संरक्षित जगह ढूंढने की थी। इस राजनीति में जातिगत अस्मिता दोयम स्थान पर थी जबकि राष्ट्रीय स्तर पर दलितोत्थान सबसे ऊंचे पायेदान पर था। अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले ही बाबा साहेब अम्बेडकर ने भारतीय रिपब्लिकन पार्टी की स्थापना की जिससे चुनावी राजनीति में यह पार्टी समाज के पिछड़े व हाशिये पर खड़े वंचितों की आवाज समूहगत तौर पर बन सके। इस पार्टी को कांग्रेस का मुकाबला करना था जिसे बाबा साहेब की मौजूदगी के बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर दलितों या हरिजनों का व्यापक समर्थन प्राप्त था। रिपब्लिकन पार्टी के दरवाजे हर समुदाय व वर्ग के लिए खुले हुए थे परन्तु हरिजन नेतृत्व इसका मुख्य अवयव था।

बाद में साठ का दशक आते–आते यह पार्टी दो गुटों खोबरगड़े व गवई गुट में बंट गई और इसका वर्चस्व धीरे-धीरे महाराष्ट्र तक सीमित हो गया हालांकि उत्तर भारत में इस पार्टी के नेता स्व. बुद्ध प्रिय मौर्य ने इसका झंडा उठाये रखा। स्व. मौर्य के जमाने में कांग्रेस के दो प्रबल समर्थक समूहों हरिजन व मुस्लिमों को इससे अलग करने के प्रयासों में वह भी असफल रहे। साठ के दशक के बीतते-बीतते रिपब्लिकन पार्टी की चाल में कुछ अन्तर आया और पार्टी की चुनावी सभाओं में यह नारा लगने लगा कि

‘हरिजन, मुस्लिम भाई-भाई

हिन्दू कौम कहां से आयी’

रिब्लिकन पार्टी ने यह नारा उत्तर भारत में जनसंघ के बढ़ते प्रभाव को रोकने और कांग्रेस को कमजोर करने की गरज से दिया जिसका चुनावों में आंशिक असर ही दिखाई पड़ा। सत्तर के दशक तक पूरे देश में कांग्रेस का ही दबदबा 1974 तक बना रहा परन्तु 1975 में 21 महीने की इमरजेंसी लगने के बाद जब 1977 में चौधरी चरण सिंह की प्रभावशाली पार्टी भारतीय लोकदल का जनता पार्टी में विलय हुआ तो पहली बार देश के मुस्लिम व हरिजन समुदाय के लोगों ने कांग्रेस से हट कर जनता पार्टी को वोट दिया। जनता पार्टी में भारतीय जनसंघ भी समाहित हो गया था अतः जनता पार्टी के टिकट पर खड़े जनसंघी प्रत्याशियों को भी मुस्लिम व हरिजनों ने अपना पूरा समर्थन दिया परन्तु यह प्रक्रिया दक्षिण भारत में नहीं चली।

इसके तत्कालीन चारों राज्यों आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक तमिलनाडु व केरल में कांग्रेस पार्टी लोकसभा चुनावों में विजयी रही। जनता पार्टी की उत्तर भारत में चली लहर से रिपब्लिकन पार्टी भी अछूती नहीं रही हालांकि 1971 के लोकसभा चुनावों में श्री मौर्य ने इन्दिरा गांधी की कांग्रेस के साथ समझौता कर लिया था। श्री मौर्य ने अपनी दलित राजनीति मेंे कसम उठाई थी कि वह कभी भी अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित चुनाव क्षेत्र से चुनाव नहीं लड़ेंगे। वह तत्कालीन हापुड़-गाजियाबाद सीट से लोकसभा में जाते रहे।

स्व. मौर्य का बचपन भी प. उत्तर प्रदेश के खैर कस्बे में लगभग उसी प्रकार जाति मूलक अत्याचारों के बीच बीता था जिसका अनुभव बाबा साहेब ने अपने बचपन में महाराष्ट्र में किया था। किन्तु यह भी जीवन की विडम्बना है कि जब 2004 में उनकी मृत्यु हुई तो उससे पहले वह कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गये थे और इसके कुछ समय बाद वह भारतीय जनता पार्टी में चले गये थे। मगर तब तक दलित राजनीति मेंे बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक स्व. कांशीराम का उदय हो चुका था जिनकी सिपहसालार सुश्री मायावती थीं। मायावती ने कांशी राम के साथ मिल कर दलित राजनीति में जाति अस्मिता को इस प्रकार शिखर पर पहुंचाया कि श्री मौर्य की दलित राजनीति अप्रासंगिक हो गई। कांशी राम ने चुनावी सभाओं में साफ किया कि उन्हें हिन्दुओं की सवर्ण जातियों का वोट नहीं चाहिए। उन्होंने कांग्रेस व भाजपा दोनों को ही एक पलड़े पर तोलते हुए दोनों को मनुवादी कहा और हिन्दू वर्ण व्यवस्था को निशाने पर लेते हुए नारा दिया कि,

तिलक, तराजू और तलवार

इनको मारो जूते चार

राजनीति में जिस हरिजन- मुस्लिम एकता के प्रयास साठ के दशक से हो रहे थे वे नब्बे के दशक में अचानक साकार हो गये और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में बहिन मायावती चार बार मुख्यमन्त्री के पद पर आसीन हुईं। हालांकि इनमें से केवल एक बार 2007 में ही वह अपने बलबूते पर बहुजन समाज पार्टी को मिले पूर्ण बहुमत के आधार पर मुख्यमन्त्री बनी। शेष तीन बार वह भाजपा या समाजवादी पार्टी के समर्थन से ही मुख्यमन्त्री बन पाईं। इसे मायावती के राजनैतिक जीवन का उत्कर्ष काल कहा जा सकता है। 2012 से बहिन मायावती की राजनीति की उल्टी गिनती शुरू हुई जो अभी तक जारी है।

देश के राष्ट्रपति रहे भारत रत्न स्व. प्रणव मुखर्जी ने अपनी पुस्तक दि टर्बुलेंट ईयर्स (उथल- पुथल भरे साल) की प्रस्तावना में ही साफ लिखा कि 80 व 90 के दशक भारत की राजनीति में बहुत उथल-पुथल भरे रहे। वह लिखते हैं कि ये दोनों दशक राजनैतिक व सामाजिक बदलावों के रहे। पहला बदलाव यह आया कि राजनीति एक राष्ट्रीय पार्टी (कांग्रेस) के प्रादुर्भाव से बाहर आयी और देश के विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का उदय हुआ और इसके साथ ही नई राष्ट्रीय पार्टियां भी उभरी (भाजपा व बसपा) हालांकि 1980 में कांग्रेस पार्टी प्रचंड बहुमत के साथ केन्द्र की सत्ता में लौटी मगर इसके बाद हुए क्षेत्रीय चुनावों में कई क्षेत्रीय दल तेजी के साथ उभरे और गठबन्धन की राजनीति की शुरुआत हुई। इस दौर में राज्यों को अधिक अधिकार देने का मसला भी उठा।

दूसरे कई क्षेत्रों में उप-राष्ट्रीयता का मुद्दा भी सतह पर आने लगा जिनमें पंजाब व पूर्वोत्तर के राज्य प्रमुख थे। परन्तु राष्ट्रीय एकता स्थापित करते हुए इन मसलों का हल बातचीत से ढूंढ लिया गया। इसकी शुरुआत श्रीमती इन्दिरा गांधी ने की जिसे स्व. राजीव गांधी ने आगे बढ़ाया। परन्तु तीसरा बदलाव एेसा हुआ कि इसके प्रभाव से देश की राजनीति ने ही नई दिशा पकड़ ली। यह राजनीति में धर्म के प्रवेश का मुद्दा था। राम मन्दिर आन्दोलन, शाहबानों फैसला व मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद राजनैतिक विमर्श बदलने लगा।

श्री मुखर्जी के अनुसार यही वह दौर था जिसमें जाति व धर्म का राजनीति में प्रवेश हुआ। स्व. मुखर्जी के कहने का मतलब यह निकाला जा सकता है कि इन तीनों बदलावों के बाद भारत की जमीनी राजनैतिक हकीकत बदलने लगी। दरअसल देश की दलित राजनीति के लिए यह दौर गंभीर सामाजिक चुनौतियों भरा था। इन चुनौतियों का बहुजन समाज पार्टी की नेता सुश्री मायावती ने सामना तो नहीं किया मगर इनसे उभरे अवसरों को अपने पक्ष में जम कर भुनाया। सत्ता की राजनीति में श्री कांशी राम के बाद उन्होंने अपनी विरासत खड़ी करने की कोशिश उसी प्रकार की जिस प्रकार किसी अभिजात्य परिवार में विरासत छोड़ी जाती है।

अतः दलित राजनीति का पराभव काल आना ही था। सामान्य दलित व वंचित को समाज में कथित ऊंची जातियों के समकक्ष लाने के लिए उन्होने गंभीर प्रयास नहीं किये अलबत्ता दलितों का वोट बैंक तैयार करने मे अपनी ताकत झोंक दी। राजनीति में इस वोट बैंक का सौदा होना तयशुदा था जो कुछ समय तक जम कर चला भी। इसलिए यह बेवजह नहीं है कि कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी मायावती को सीधी चुनौती दे रहे हैं कि वह बाबा साहेब अम्बेडकर के लिखित संविधान को बचाने के लिए उनके साथ नजर आयें। इसके जवाब में मायावती का यह कहना नया नहीं है कि वह कांग्रेस व भाजपा को एक ही पलड़े पर रख कर तोलती हैं।

दरअसल दलित वोट बैंक अब बिखर रहा है क्योंकि मायावती की राजनीति में विश्वसनीयता आर्थिक मोर्चे की हानि-लाभ समीकरण के चश्मे से देखी जा रही है। यह वोट बैंक कहीं कांग्रेस में अपनी जड़ें तलाशने न लगे यह डर भाजपा व मायावती दोनों को ही है। इसकी वजह मुस्लिम समाज के रवैये से भी साफ हो रही है क्योंकि वह एकमुश्त तौर पर कांग्रेस की तरफ आता दिखाई दे रहा है। राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं माना जाता है। भाजपा की ओर से हिन्दू एकता का पुरजोर अभियान बताता है कि मायावती का वोट बैंक बिखर रहा है मगर वह असमंजस में है। दलित राजनीति का यह वाचाल दौर है।

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