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कांग्रेस का वैचारिक संकट !

पांच राज्यों में कांग्रेस पार्टी को जिस पराजय का मुंह देखना पड़ा है उससे देश की इस सबसे पुरानी पार्टी के भविष्य पर राजनीतिक विश्लेषकों ने सवाल उठाने शुरू कर दिये हैं

03:50 AM Mar 12, 2022 IST | Aditya Chopra

पांच राज्यों में कांग्रेस पार्टी को जिस पराजय का मुंह देखना पड़ा है उससे देश की इस सबसे पुरानी पार्टी के भविष्य पर राजनीतिक विश्लेषकों ने सवाल उठाने शुरू कर दिये हैं

कांग्रेस का वैचारिक संकट
पांच राज्यों में कांग्रेस पार्टी को जिस पराजय का मुंह देखना पड़ा है उससे देश की इस सबसे पुरानी पार्टी के भविष्य पर राजनीतिक विश्लेषकों ने सवाल उठाने शुरू कर दिये हैं और स्वयं कांग्रेस के भीतर भी भारी बेचैनी के स्वर फूट रहे हैं। लोकतन्त्र में किसी भी राजनीतिक दल के लिए चुनावी विजय प्राप्त करना आवश्यक होता है जिससे लोगों के बीच वह विकल्प रूप में खड़ी रह सके। परन्तु हम देख रहे हैं कि 2014 से राष्ट्रीय पटल पर श्री नरेन्द्र मोदी के उदय होने के बाद से कांग्रेस की स्थिति लगातार कमजोर होती जा रही है। इसके कई कारण लगते हैं। सबसे पहला तो यह है कि श्री मोदी व भाजपा द्वारा खड़े किये वैचारिक राजनीतिक विमर्श का मुकाबला करने में कांग्रेस के समक्ष बौद्धिक संकट खड़ा हो रहा है। यह संकट मूल रूप से राष्ट्रवाद को लेकर है। भाजपा ने जिस तरह जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटा कर 21वीं सदी के भारत के राष्ट्रवाद को परिभाषित किया उससे देश की नई पीढि़यों में राष्ट्रवाद का वह स्वरूप विकसित हुआ जिसने समूचे भारत की एकता के संवैधानिक विमर्श को न केवल मजबूती दी बल्कि जमीनी स्तर पर भी आम लोगों के दिलों में राष्ट्रवाद की भावना को मजबूत किया । यह मात्र एक उदाहरण है जिस पर कांग्रेस पार्टी के भीतर आज तक वैचारिक द्वन्द्व बना हुआ है।
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नई पीढ़ी के लिए यह जानना बहुत आवश्यक है कि 1947 में देश विभाजन से पहले तक पाकिस्तान का निर्माता मुहम्मद अली जिन्ना कांग्रेस को हिन्दुओं की पार्टी ही कहता था और कांग्रेस स्वयं को राष्ट्रवादी पार्टी कहती थी। परन्तु जब 1951 में नेहरू मन्त्रिमंडल से इस्तीफा देकर हिन्दू महासभा के प्रतिनिधि  डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ (भाजपा) की स्थापना की तो उन्होंने स्वतन्त्र भारत में राष्ट्रवादी विचारधारा को मुखर बनाया परन्तु उनका राष्ट्रवाद कांग्रेस के राष्ट्रवाद से पूरी तरह भिन्न था और वह भारत की सांस्कृतिक पहचान को सर्वोच्च पायदान पर रखने के हिमायती थे जिसकी वजह से 1953 में उन्होंने कश्मीर में इस सूबे को विशेष दर्जा देने के खिलाफ आन्दोलन चलाया था। हम आज अन्दाजा लगा सकते हैं कि इस आन्दोलन की तीव्रता क्या रही होगी क्योंकि उस समय पं. जवाहर लाल नेहरू जैसे लोकप्रिय प्रधानमन्त्री को भी कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमन्त्री ( हालांकि तब उन्हें प्रधानमन्त्री कहा जाता था ) शेख अब्दुल्ला को बर्खास्त करके नजर बन्द करना पड़ा था। दीगर बात यह भी है कि तब शेख सरकार द्वारा आन्दोलन के सिलसिले में गिरफ्तार किये गये डा. मुखर्जी की जम्मू की जेल में ही मृत्यु हो गई थी। अतः जब 5 अगस्त, 2019 को मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से 370 हटाई तो देश की नई पीढ़ी के सामने स्वतन्त्र भारत का वह राष्ट्रवाद उजले रूप में पेश हुआ जिसकी परिकल्पना भारत के संविधान में ही समूचे भारत को एक इकाई मानने की है।
 बेशक पांच राज्यों में हुए चुनावों से कश्मीर मुद्दे का कोई लेना-देना नहीं था मगर भाजपा व कांग्रेस की राजनीतिक छवियों से गहरा सम्बन्ध था। जिस तरह म्यांमार की सीमा से लगे छोटे राज्य में भाजपा को पहली बार पूर्ण बहुमत मिला है और इसकी साठ सदस्यीय विधानसभा में इसे 32 स्थान प्राप्त हुए हैं क्या उसकी कल्पना कोई कांग्रेसी कर सकता था? इस राज्य में भी अलगाववाद की एक अलग कहानी रही है। इसके बावजूद यहां के लोगों ने भाजपा की विचारधारा को स्वीकार करते हुए अपना वोट इस पार्टी के प्रत्याशियों को दिया। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि वैचारिक स्तर पर भाजपा अपना सन्देश  किस प्रकार पूर्वोत्तर राज्यों के कबीला संस्कृति में रहने वाले लोगों तक पहुंचा रही है।
 बहुत पुरानी बात नहीं है लोकप्रिय फिल्म अभिनेता स्व. देवानन्द ने कहा था कि भारत में रहने वाले मुसलमानों का ‘भारतीयकरण’ होना चाहिए। देवानन्द राजनीतिक रूप से बहुत सजग व्यक्ति थे और 1977 में उन्होंने अपनी अलग एक ‘इंडियन नेशनल पार्टी’ भी तब बनाई थी जब इमरजेंसी खत्म होने के बाद समूचा विपक्ष बिखरा हुआ पड़ा था और तब तक जनता पार्टी नहीं बनी थी। स्व. देवानंद ने भारत विभाजन की त्रासदी देखी थी और दुख भी सहा था अतः पाकिस्तान निर्माण की मानसिकता के जहर से उनका पाला पड़ा था और इसी वजह से उन्होंने भारत में एेसी मानसिकता के खिलाफ अभियान चलाये जाने की वकालत की थी । यह बताना भी आवश्यक है कि उन्हीं दिनों उनकी फिल्म ‘प्रेम पुजारी’ भी सिनेमाघरों में लगी थी जिसकी पटकथा 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध पर थी। मगर आश्चर्य जनक रूप से इस फिल्म का उत्तर प्रदेश के ही अमरोहा व मुरादाबाद जैसे शहरों में विरोध हुआ था। हम अब 21वीं सदी में जी रहे हैं जिसमें बीसवीं सदी के राजनीतिक सिद्धान्त नहीं चल सकते। मगर इसका मतलब यह भी नहीं है कि हम साम्प्रदायिक आधार पर अपने ही लोगों के बीच किसी भी प्रकार का भेदभाव करें जरूरत केवल इतनी है कि हम सभी हिन्दू-मुसलमान मिल कर अपनी सांस्कृतिक धरोहर का सम्मान करें और स्वयं को सबसे पहले भारतीय मानते हुए अपने मजहब को भारतीयता के ऊपर न चढ़ने दें। इसके लिए जरूरी है कि मजहब के आधार पर जो भी व्यक्तिगत सामाजिक आचार भिन्नता है उसे समाप्त किया जाये और एक समान नागरिक आचार संहिता लागू की जाये। क्योंकि कोई भी राष्ट्र उसमें रहने वाले लोगों से ही बनता है और उसकी एकता सभी नागरिकों को मिले एक जैसे अधिकारों से ही मजबूत होती है। अतः वैचारिक व बौद्धिक स्तर पर राजनीति के सामाजिक सन्दर्भों को हमें उसी प्रकार समझना पड़ेगा जिस प्रकार हमने अनुसूचित जातियों व जनजातियों को आरक्षण देकर समझा था।
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आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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