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कांग्रेस : बहुत कठिन है डगर पनघट की !

इस वर्ष के मई माह में हुए लोकसभा चुनावों से भारत के मतदाताओं में…

10:27 AM Jan 03, 2025 IST | Rakesh Kapoor

इस वर्ष के मई माह में हुए लोकसभा चुनावों से भारत के मतदाताओं में…

इस वर्ष के मई माह में हुए लोकसभा चुनावों से भारत के मतदाताओं में कांग्रेस पार्टी से जो अपेक्षा जागृत हुई थी वह बाद में राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में सुप्त हो गई। इसकी सबसे बड़ी वजह पार्टी के अन्दर ही हुए उखाड़-पछाड़ की रही। लोकसभा चुनावों से पूर्व भी 2023 में कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए थे । इनमें मध्य प्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ प्रमुख थे। इन तीनों राज्यों में पिछले 2018 के चुनावों के बाद कांग्रेस पार्टी की ही सरकार बनी थी। हालांकि मध्य प्रदेश में सवा साल बाद ही इस्तीफा संस्कृति के तहत दल-बदल होने के कारण राज्य के कांग्रेसी मुख्यमन्त्री श्री कमलनाथ की सरकार गिर गई थी और भाजपा ने श्री शिवराज सिंह के नेतृत्व में अपनी सरकार बना ली थी। परन्तु छत्तीसगढ़ व राजस्थान ने सर्वश्री भूपेश बघेल व अशोक गहलौत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकारें पूरे पांच साल चली थीं।

राष्ट्रीय स्तर से लेकर प्रान्तीय स्तर तक कांग्रेस को जो भी यश या अपयश मिला उसे इस पार्टी के नेता श्री राहुल गांधी के खाते में डाल कर ही परखा गया। मगर इस वर्ष लोकसभा चुनावों के बाद हुए विधानसभा चुनावों में महाराष्ट्र राज्य में कांग्रेस की जो दुर्गति हुई वह इसके पूरे इतिहास का सबसे धूमिल पृष्ठ है। जहां तक हरियाणा का सवाल है तो इसमें कांग्रेस पार्टी की पराजय अति आत्मविश्वास और क्षेत्रीय नेताओं की लाग-डांट की वजह से हुई और 90 सदस्यीय विधानसभा में यह केवल 37 सीटें ही जीत पाई। जबकि भाजपा को लगातार तीसरी बार सबसे बड़ी विजय 47 सीटों के साथ मिली।

इसका मतलब क्या यह निकाला जाये कि कांग्रेस अखिल भारतीय स्तर पर देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद राज्यों में अपनी पकड़ खोती जा रही है ? और केन्द्रीय स्तर पर यह भाजपा के विकल्प के तौर पर स्थापित हो रही है क्योंकि लोकसभा चुनावों में इसे भाजपा के बाद 99 सीटें मिली थी जबकि 545 की सदस्य शक्ति वाली लोकसभा में सत्तारूढ़ पार्टी को 240 सीटें मिली थी। इससे यह निष्कर्ष जरूर निकलता है कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का मुकाबला कोई भी क्षेत्रीय दल नहीं कर सकता है मगर राज्य स्तर पर कांग्रेस की जमीन पर क्षेत्रीय दलों ने कब्जा कर लिया है। कांग्रेस की हालत जिन राज्यों में सर्वाधिक कमजोर है उनमें पश्चिम बंगाल संभवतः सबसे अव्वल दर्जे पर है क्योंकि इस राज्य में कांग्रेस की पूरी जमीन पर मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी की क्षेत्रीय पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने कब्जा कर लिया है। जबकि उत्तर प्रदेश में एेसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि राज्य के प्रमुख क्षेत्रीय दल समाजवादी पार्टी ने एक सीमा में ही कांग्रेस के वोट बैंक को कब्जाया है परन्तु प. बंगाल में तो पूरा का पूरा मतदाता आधार ही तृणमूल के अधिकार में चला गया लगता है।

अतः यह बेसबब नहीं है कि ममता बनर्जी ने इंडिया गठबन्धन का नेतृत्व करने की इच्छा जताई। इसका अर्थ निकाला जा सकता है कि कांग्रेस पार्टी को क्षेत्रीय आधार पर अपनी मजबूती बनानी होगी। इस राज्य में कांग्रेस पार्टी ने जिस तरह हथियार डाले हैं उसमें कांग्रेस पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व का अनमनापन भी एक कारण हो सकता है। यहां की राज्य इकाई के अध्यक्ष एक समय में भारत रत्न कांग्रेसी नेता स्व. प्रणव मुखर्जी हुआ करते थे। वह केन्द्र में मनमोहन सरकार के सबसे प्रमुख व शक्तिशाली मन्त्री भी थे और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी। मगर 2012 में उनके राष्ट्रपति बन जाने के बाद राज्य कांग्रेस की स्थिति इतनी पतली हुई कि उसने पूर्व लोकसभा सदस्य अधीररंजन चौधरी को अपना अध्यक्ष बना दिया।

पिछली लोकसभा में श्री चौधरी को विपक्ष के एेसा नेता के रूप में देखा गया जिनकी बात में कोई वजन नहीं रहता था। लेकिन 2024 के चुनावों में अधीररंजन चौधरी के हारने के बाद पार्टी ने किन्हीं शुभंकर सरकार को प्रदेश पार्टी अध्यक्ष बना दिया। जबकि इसके पास श्री प्रणव मुखर्जी के सुपुत्र अभिजीत मुखर्जी विद्यमान है। वह बीच में कुछ समय के लिए कांग्रेस छोड़ कर तृणमूल कांग्रेस में जरूर गये मगर फिर लौट कर अपने घर में आ गये। अभिजीत दो बार के सांसद व एक बार के विधायक भी रह चुके हैं। उनके साथ प्रणव दा की बहुत रौशन विरासत है। प. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस का मुकाबला करने के लिए किसी शानदार विरासत के मालिक नेता की जरूरत है। प्रणव दा की पुत्री शर्मिष्ठा मुखर्जी भी उनके रहते ही कांग्रेस पार्टी में सक्रिय हो गई थी और वह दिल्ली से विधानसभा चुनाव भी लड़ी थीं मगर वह कामयाब नहीं हो सकी थी। हालांकि वह दिल्ली प्रदेश कांग्रेस की प्रवक्ता भी थीं लेकिन अभिजीत मुखर्जी प. बंगाल में स्व. प्रणव दा की जंगीपुर सीट से जीत कर ही दो बार लोकसभा में पहुंचे।

प. बंगाल के लोग प्रणव दा पर जिस प्रकार गर्व का अनुभव करते हैं उसका सबसे चमकदार पहलू यह है कि उन्होंने अपने जीते जी कभी भी कांग्रेस को हाशिये पर नहीं जाने दिया। अभिजीत मुखर्जी उनके एेसे पुत्र हैं जो राजनीति में शालीनता के साथ कम शब्दों में अपनी बात कहते हैं। बेशक प्रणव दा अपने जीवन के अन्तिम प्रहर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नागपुर स्थित मुख्यालय में गये थे मगर इस अकेली घटना से उनका कांग्रेसी जीवन ढांपा नहीं जा सकता।

प. बंगाल में भाजपा अब प्रमुख विपक्षी पार्टी है और कांग्रेस पूरी तरह हाशिये पर है। कुछ राजनीतिक पंडित मानते हैं कि यदि अभिजीत मुखर्जी को कांग्रेस में प. बंगाल का चेहरा बनाया जाता है तो पार्टी फिर से उठ कर खड़ी हो सकती है। अभिजीत मुखर्जी के दिल में कांग्रेस स्वाभाविक तरीके से बसी हुई है। फिर प. बंगाल तो वह राज्य है जिसमें मार्क्सवादी नेता रहे स्व. सोमनाथ चटर्जी के पिता एन.सी. चटर्जी आजादी के बाद हिन्दू महासभा के अध्यक्ष थे।

अभिजीत यह मानते हैं कि कांग्रेस पार्टी ने उनके पिता को पूरा सम्मान दिया और उन्होंने अपने राजनैतिक जीवन में जो भी पाया वह सब कांग्रेस पार्टी की ही देन थी। इसी प्रकार हम भारत के हर राज्य में कांग्रेस की स्थिति का विश्लेषण कर सकते हैं। अब यह सुनने में आ रहा है कि कांग्रेस के सांगठनिक पुनर्गठन की तैयारी हो रही है। हालांकि कांग्रेस की बेलगावी (कर्नाटक) में हुई महासभा के निर्णय डा. मनमोहन सिंह की मृत्यु हो जाने की वजह से कोई आकार नहीं ले सके और बैठक को एक दिन में ही समाप्त कर दिया गया। परन्तु यह भी सर्वविदित है कि राहुल गांधी अपनी इस पार्टी को कांग्रेस की मूल विचारधारा से जोड़ने का पक्का निर्णय करके बैठे हुए हैं। उनका यह निर्णय वैचारिक स्तर से लेकर व्यावहारिक स्तर तक का है। राहुल गांधी क्षेत्रीय स्तर पर भी कांग्रेस का कायाकल्प चाहते हैं और विचारधारा के स्तर पर किसी भी प्रकार का समझौता करने के पक्ष में नहीं हैं। इस समय कांग्रेस की सबसे बड़ी सम्पत्ति इसके अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे हैं जो एक दलित नेता हैं। यह भी माना जा रहा है कि विगत लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी जमीन पर बहती हवा का जायजा अच्छी तरह नहीं ले सकी।

उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में मायावती की बहुजन समाज पार्टी मृत प्रायः हो चुकी है और दलित मतदाता पुनः कांग्रेस की तरफ खिंच रहे हैं । राहुल गांधी का जातिगत जनगणना कराने का विमर्श इसमें उत्प्रेरक का काम कर रहा है। गणित फिर से वहीं लौट कर आ रहा है जहां से यह जाति आधारित पार्टियों के उठान से टूटा था। यह गणित दलित व अल्पसंख्यक वोट बैंक का था। समाज के इस राजनीतिक गुणा- गणित में ही राजनीति की व्यूह रचना समा सकती है जिसके बहुत गहरे आसार नजर आ रहे हैं। देखना यह होगा कि कांग्रेस श्री खड़गे को किस पायदान पर खड़ा करती है। कांग्रेस को भी प्रतीकों के माध्यम से जनमत जुटाने की कला भाजपा से सीखनी होगी।

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