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हत्या का षड्यंत्र और माओवाद

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12:09 AM Jun 10, 2018 IST | Desk Team

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गृहमन्त्री श्री राजनाथ सिंह जम्मू-कश्मीर राज्य के दौरे पर हैं। अपने इस दौरे में उन्होंने भारत-पाकिस्तान की सीमा पर बसे गांवों के भारतीय नागरिकों के दुःख-दर्द के बारे में विचार किया है और कश्मीर घाटी के नागरिकों से आग्रह किया है कि वे भारतीय संघ का हिस्सा होते हुए अपनी समस्याओं का हल हिंसा के किसी रास्ते से ढूंढने की बजाय बातचीत से ढूंढें। इसके लिए सरकार के दरवाजे उन सभी लोगों के लिए खुले हुए हैं जो सही दिमाग से वार्ता की मेज पर आते हैं। गृहमन्त्री बार-बार यह कहते रहे हैं कि जम्मू-कश्मीर के सभी नागरिक पक्के राष्ट्रभक्त भारतीय हैं। कुछ भटके हुए लोग उन्हें भारत के विरोध में कभी खड़ा नहीं कर सकते और हिंसक तरीकों का प्रयोग करके आम कश्मीरी को बदनाम नहीं कर सकते मगर अपनी इस यात्रा में उन्होंने माओवादियों को भी चेतावनी दी है कि वे हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। राजनाथ सिंह के बारे में यह कहा जाता है कि वह कम बोलते हैं मगर जितना भी बोलते हैं वह पत्थर की लकीर होता है। हाल ही में भीमा कोरेगांव हिंसा को लेकर पुणे पुलिस ने जिन पांच लोगों की गिरफ्तारी की है उनमें एक प्रोफेसर, एक वकील, एक सम्पादक भी शामिल है। इनमें से एक पर प्रधानमन्त्री की हत्या करने की साजिश का षड्यन्त्र रचने का आरोप भी लगा है।

पुलिस को पिछले वर्ष का लिखा हुआ वह पत्र भी इनमें से एक के घर से बरामद हुआ है जिसमें स्व. राजीव गांधी की हत्या की तर्ज पर प्रधानमन्त्री की हत्या करने का षड्यन्त्र रचने की बात कही गई है। यह बहुत ही संगीन मामला है और इसकी गहन जांच होनी चाहिए मगर हमें ध्यान रखना चाहिए कि भारत एक एेसा परिपक्व लोकतन्त्र है जिसकी खुफिया एजेंसियां हिंसा की राजनीति को बढ़ावा देने वालों पर कड़ी नजर रखती हैं। उनके द्वारा किये गये कार्यों को प्रचार तन्त्र से दूर ही रखा जाता है। यदि एक वर्ष पहले एेसा कोई पत्र लिखा गया था तो उसकी भनक खुफिया एजेंसियों को बहुत पहले लग जानी चाहिए थी और उन्हें अपनी गुप-चुप कार्रवाई शुरू कर देनी चाहिए थी मगर इस षड्यन्त्र के उजागर होने से राजनीति शुरू हो गई है और आरोप लगाया जा रहा है कि यह पत्र फर्जी या नकली है। मुख्य प्रश्न यह है कि प्रधानमन्त्री इस देश के सबसे बड़े संवैधानिक अधिशासी मुखिया होते हैं। उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी समूचे राष्ट्र की होती है। इसका सम्बन्ध किसी राजनैतिक दल से नहीं होता बेशक वह राजनैतिक व्यक्ति ही होते हैं मगर भारतीय संविधान के तहत प्रधानमन्त्री पद ग्रहण करने वाला व्यक्ति दलीय निष्ठाओं के निरपेक्ष प्रत्येक भारतीय नागरिक का प्रतिनिधि होता है। उसकी सुरक्षा की गारंटी मांगने का हक प्रत्येक नागरिक का होता है। अतः उसकी सुरक्षा से जुड़े किसी भी मुद्दे को सार्वजनिक चर्चा का विषय बनाकर हम उस आन्तरिक राष्ट्रीय सुरक्षा की व्यवस्था की कमजोरी दिखाने की गलती करते हैं जो लोकतन्त्र में सरकार की प्रतिष्ठा को कायम रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

सरकार की प्रतिष्ठा के इस संजीदा पक्ष की हिफाजत खुफिया एजेंसियां करती हैं। अतः भीमा कोरेगांव हिंसा से इस संगीन मामले को जोड़कर कहीं न कहीं महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री फड़नवीस ने अपने राजनीतिक अधकचरेपन का सबूत दे दिया है। यह मुद्दा राजनीति का कतई नहीं है बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा का है। दलितों के अधिकारों को लेकर भीमा कोरेगांव में जो हिंसा भड़की थी, वह राज्य प्रशासन और पुलिस की लापरवाही और नाकामी ही थी। इस हिंसा को भड़काने में यदि कुछ माओवादी विचारों के लोगों की भूमिका थी तो उसकी जांच-पड़ताल की तैयारी कानूनी नुक्तों से की जानी चाहिए थी। भारत जैसे सशक्त लोकतन्त्र में जब राष्ट्रीय पदाधिकारियों के बारे में षड्यन्त्र रचने की खबरें सार्वजनिक होती हैं तो वे समूची सुरक्षा व्यवस्था की अन्तर्निहित मजबूती को इस तरह कमजोर बनाने का काम करती हैं कि आम नागरिक उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यह देश कैसे गंवारा कर सकता है कि उसके प्रधानमन्त्री की सुरक्षा को लेकर खुफिया एजेंसियां किसी भी तरह की लापरवाही दिखायें।

माओवादी निश्चित रूप से भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के दुश्मन हैं जिनका विश्वास अहिंसा के रास्ते से शान्तिपूर्ण सत्ता परिवर्तन में नहीं है परन्तु उनकी इस सोच को हम अपने लोकतन्त्र की ताकत से ही बदल सकते हैं। यह बेवजह नहीं है कि भारत के स्वतन्त्र होने पर कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबन्ध लगा दिया था क्योंकि तब तक उनका मानना था कि सत्ता परिवर्तन हिंसक रास्ते से होता है। यह प्रतिबन्ध तभी हटाया गया जब उन्होंने भारतीय संविधान में निष्ठा व्यक्त करते हुए मतपत्रों के जरिये सत्ता बदलने की प्रणाली में अपना विश्वास व्यक्त किया। याद रखना चाहिए कि यह प्रतिबन्ध लगाने वाले पं. जवाहर लाल नेहरू ही थे जिन्होंने 1950 में बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा लिखे संविधान में प्रथम संशोधन करके यह सुनिश्चित किया था कि चुनाव में केवल वे राजनैतिक दल ही भाग ले सकते हैं जिनका विश्वास अहिंसक रास्तों पर हो। इसका समर्थन स्वयं बाबा साहेब ने किया था और स्वीकार किया था कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार को देते समय वह इस पक्ष पर विचार करना भूल गये थे कि हिंसा को रास्ता मानने वाले लोग इसका लाभ उठा सकते हैं परन्तु आपको आश्चर्य होगा कि इसकी मुखालफत तब हिन्दू महासभा के अध्यक्ष एन.सी. चटर्जी ने की थी और इस फैसले को पीयूसीएल (पब्लिक यूनियन आफ सिविल लिबर्टीज) संगठन के माध्यम से न्यायालय में चुनौती दी थी। डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी चटर्जी के पक्ष में थे। अतः यह देश शुरू से ही केवल अहिंसक रास्तों का पक्षधर रहा है। माओवादियों को अन्ततः लड़ाई हारनी ही होगी।

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