संविधान, भागवत और खड़गे
जब संविधान की प्रस्तावना में यह लिखा गया कि ‘हम भारत के लोग…
जब संविधान की प्रस्तावना में यह लिखा गया कि ‘हम भारत के लोग इस संविधान को अंगीकार करते हैं’ तो संविधान सभा में इस मुद्दे पर बहुत गहन-गंभीर चर्चा हुई थी। संविधान 26 नवम्बर 1949 को बन कर पूरा हो गया था मगर इससे पहले अक्तूबर महीने में संविधान सभा में बाबा साहेब अम्बेडकर ने अपने उद्बोधन में स्पष्ट किया था कि यह संविधान अपना मूल स्रोत , अपना प्राधिकार और अपनी संपूर्ण प्रभुत्व सम्पन्नता जनता से ही प्राप्त करता है। बाबा साहेब ने स्वतन्त्र भारत के स्त्री-पुरुषों को बिना किसी भेदभाव के एक वोट का अधिकार देकर यह सुनिश्चित किया था कि भारत की राजसत्ता का अभ्युदय इसी एक वोट के हक के इस्तेमाल से होगा। अतः संविधान सभा के सभी सदस्य यह गर्वपूर्वक कह सकते हैं कि उन्होंने संविधान लिखने का काम भारत की जनता की तरफ से किया है और इसे संविधान में सर्व शक्तिमान स्वयंभू बनाया है तो कुछ गलत नहीं है। अतः प्रस्तावना में जिस ‘बन्धुत्व’ की बात कही गई है वह जनशक्ति का ही प्रतीक है। बाबा साहेब ने अपने उद्बोधन में यह भी स्पष्ट किया कि संविधान में लोगों को सशक्त बनाने की पूरी अवधारणा निहित है।
बाबा साहेब ने अक्तूबर 1949 में ही समाजवादी पार्टी के आचार्य कृपलानी द्वारा संविधान सभा में उठाये गये इस सवाल का सन्तोषजनक उत्तर दिया था कि संविधान में जनता को अधिक से अधिकार दिये जाने चाहिए। उनका कहना था कि स्वतन्त्र भारत में जो भी सरकार गठित होगी वह जनता की सरकार ही कहलायेगी। आचार्य जी को इस बात पर घोर आपत्ति थी कि तब की अन्तरिम राष्ट्रीय सरकार का एक मन्त्री सरकार को ‘हमारी सरकार’ कहता था ‘जनता की सरकार’ नहीं’। इस पर बाबा साहेब का जवाब था कि इस लोकतन्त्र में किसी भी पदासीन व्यक्ति को केवल जनशक्ति से ही प्रभुता मिलेगी। वर्तमान राजनैतिक संदर्भों में हम जब बाबा साहेब के सिद्धान्त को लागू करते हैं तो पाते हैं कि आज के राजनीतिज्ञ जनता द्वारा चुने जाने के बावजूद आत्म-प्रशंसा के शिकार हो रहे हैं। यह बात हर राजनैतिक दल के नेता पर समान रूप से लागू होती है जबकि हमने लोकतन्त्र की संसदीय प्रणाली अपना कर एेसी व्यवस्था को अंजाम दिया जिसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष के भी सभी सदस्यों की भागीदारी सुनिश्चित हो सके।
अतः गणतन्त्र दिवस पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत का यह कहना कि लोकतन्त्र में मतभेदों का सम्मान किया जाना चाहिए, पूरी तरह तर्क संगत व संविधान सम्मत है। मगर दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष श्री मल्लिकार्जुन खड़गे का 26 जनवरी का यह सन्देश भी पूरी तरह सुविचारित है कि संविधान की रक्षा के लिए सभी भारतवासियों को तैयार रहना चाहिए। जाहिर है कि श्री खड़गे विपक्ष के नेता होते हुए एेसा कहने का पूरा अधिकार रखते हैं। उनकी मंशा संविधान को मजबूत बनाने की ही लगती है। दरअसल संविधान ही पूरे भारत का खाका खींचता है और बताता है कि यह देश इसमें रहने वाले लोगों का ही है जिनके बीच हर हालत में सद्भाव व प्रेम बना रहना चाहिए। संघ प्रमुख ने भी यह कहा कि भारत के लोगों के बीच सद्भाव बने रहना बहुत जरूरी है। संविधान निर्माताओं के सामने भारत की विविधीकृत संस्कृति भी थी। वे जानते थे कि भारत राष्ट्र का निर्माण किसी विशेष धर्म या मजहब के आधार पर नहीं हुआ है बल्कि इसका निर्माण विविधतापूर्ण सामाजिक,आर्थिक व भौगोलिक संस्कृति के आधार पर हुआ है। यह संस्कृति एेसी है जिसमें हिन्दुओं के पर्व-त्यौहारों को मनाने की तैयारियों में मुस्लिम नागरिक बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। इसका अकेला कारण आर्थिक नहीं होता है, बल्कि वह सामाजिक संरचना भी होती है जिसमें हिन्दू व मुस्लिम दोनों मिलकर भारत का निर्माण करते हैं। अतः संविधान निर्माताओं के सामने लक्ष्य बहुत स्पष्ट था। यह लक्ष्य हर नागरिक को बराबरी का दर्जा देने का था। इसी वजह से संविधान में भारत को भौगोलिक स्थानिक राष्ट्र (टेरीटोरियल स्टेट) बनाया गया न कि विशिष्ट धार्मिक दर्शन पर आधारित देश (आईडियोलोजीकल देश)। जब हम गंगा-जमुनी संस्कृति का हवाला देते हैं तो सन्देश देते हैं कि भारत एेसी ‘त्रिवेणी’ है जिसमें सभी प्रकार के नागरिक समाहित हैं। वे हिन्दू या मुसलमान अथवा सिख या ईसाई या अन्य कोई धर्मावलम्बी हो सकते हैं मगर सभी सम्मानित भारतवासी हैं। यह बन्धुत्व हमारा संविधान हमको देता है। यह बन्धुत्व या सौहार्द इसलिए है कि सभी प्रकार के नागरिकों को बराबर के अधिकार प्राप्त हैं। इन अधिकारों के साथ संविधान में नागरिक कर्त्तव्यों को भी जोड़ा गया मगर यह संशोधन इमरजेंसी काल 1976 में जोड़ा गया।
अतः भारत के टेरीटोरियल राज्य होने पर किसी भी देश विरोधी कार्यवाही को हम मूल संवैधानिक अधिकारों व कर्त्तव्यों की कसौटी पर कस सकें। दूसरी तरफ यह भी पूर्णतः स्पष्ट है कि हमारी लोकतन्त्र के प्रति सच्ची निष्ठा भी इन तथ्यों से फलित हो क्योंकि केवल पांच साल बाद चुनाव करके हम सभी लोकतान्त्रिक मूल्यों का अनुपालन नहीं करते हैं, बल्कि पूरे देश की व्यवस्था को संविधान के अनुसार चलाने की प्रतिज्ञा करते हैं अतः हमें समय-समय पर आत्म विश्लेषण करते रहना चाहिए और देखना चाहिए कि भारत जिस बंधुत्व के धागे से बंधा हुआ है उसमें कहीं गांठ तो नहीं पड़ रही है। इस रोशनी में यदि हम संघ प्रमुख भागवत व कांग्रेस प्रमुख खड़गे के बयानों की तस्दीक करें तो पायेंगे कि मतभेद विद्यमान हैं मगर इन मतभेदों को केवल संविधान की कसौटी पर कसकर ही परखा जाना चाहिए। क्योंकि केवल संविधान ही हमें रास्ता दिखा सकता है। संघ प्रमुख प्रजातन्त्र की पहली शर्त असहमति या मतभेद को वैधता प्रदान कर रहे हैं और कांग्रेस प्रमुख इसी संविधान की सुरक्षा चाहते हैं। मगर लोकतन्त्र में नागरिक स्वतन्त्रता मूल तत्व होती है। संविधान में इसकी संपुष्ट व्याख्या है जिसकी भारतीय लोकतन्त्र के तीनों खम्भे विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका सर्वदा सुरक्षा करते हैं। यह अकारण नहीं है कि हमारे संविधान निर्मताओं ने न्यायपालिका को सरकार का अंग नहीं बनाया बल्कि उस पर देश का शासन संविधान सम्मत चलते देखने की जिम्मेदारी डाली। अतः भारत के हर नागरिक का यह कर्त्तव्य बनता है कि वह आपस में सौहार्द से रहे जिससे भारत मजबूत बन सके।