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बाबा साहेब का संविधान

इस दिन भारत में रहने वालों के लिए ऐसी आचार संहिता लागू हुई जिसे खुद भारतीयों ने तैयार किया था और इसकी संरचना में हिन्दू समाज के अस्पृश्य तक कहे जाने वाले मनीषी डा. भीमराव अम्बेडकर की केन्द्रीय भूमिका थी।

01:46 AM Nov 27, 2022 IST | Aditya Chopra

इस दिन भारत में रहने वालों के लिए ऐसी आचार संहिता लागू हुई जिसे खुद भारतीयों ने तैयार किया था और इसकी संरचना में हिन्दू समाज के अस्पृश्य तक कहे जाने वाले मनीषी डा. भीमराव अम्बेडकर की केन्द्रीय भूमिका थी।

बाबा साहेब का संविधान
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शनिवार 26 नवम्बर के दिन पूरे देश ने राजधानी दिल्ली में कुछ समारोह करके संविधान दिवस मनाया। भारत के इतिहास में इस दिन के कितने मायने हैं इसका प्रमाण यह तथ्य है कि इस दिन भारत में रहने वालों के लिए ऐसी आचार संहिता लागू हुई जिसे खुद भारतीयों ने तैयार किया था और इसकी संरचना में हिन्दू समाज के अस्पृश्य तक कहे जाने वाले मनीषी डा. भीमराव अम्बेडकर की केन्द्रीय भूमिका थी। यह नये भारत का उदय था। यह ऐसे भारत का उदय था जिसमें सामाजिक समता और बन्धुत्व को सिद्धान्त रूप में स्वीकार किया गया था। अंग्रेजों के भारत से निकल कर यह गांधी के भारत में जाने का दिन था। वहीं महात्मा गांधी जिन्होंने आम हिन्दोस्तानी के स्वाभिमान भाव को जगाने के लिए पूरा स्वतंत्रता आन्दोलन चलाया था और अंग्रेजों को मजबूर कर दिया था कि वे इस देश की सत्ता की ‘चाबी’ भारतीयों को सौंप कर इंग्लैंड रवाना हो जायें। बाबा साहेब के संविधान ने भारतवासियों को सत्ता की चाबी एक वोट का मूलभूत संवैधानिक अधिकार देकर सौंपी और संसदीय लोकतंत्र प्रणाली अपनाकर किसी खेत में काम करने वाले मजदूर तक की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित की। इसी भागीदारी की बदौलत देश की राजनैतिक प्रशासनिक व्यवस्था को सुस्थापित करने की ताकत आम आदमी को मिली और इस प्रकार मिली की वह केवल अपनी मनपसन्द के राजनैतिक दल को ही हर पांच साल बाद हुकूमत करने का अधिकार अपने हाथों में रख सके। इसके लिए संसदीय प्रणाली में ही यह व्यवस्था की गई कि केवल प्रत्यक्ष चुने गये सदनों लोकसभा या विधानसभा में बहुमत सिद्ध करने वाले राजनैतिक दल या दलों के समूह को ही शासन में बैठने का अधिकार हो और यदि पांच साल के बीच में ही सत्तारूढ़ हुई सरकार के प्रति लोगों का मोह भंग हो तो उनके चुने हुए प्रतिनिधि उसके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करके उसे सत्ता से उतार सकें और कोई वैकल्पिक बहुमत की सरकार गठित कर सकें और यदि ऐसा संभव न हो तो बीच में ही पुनः जनता का आदेश उसके एक वोट के माध्यम से प्राप्त कर सकें।
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चुने हुए प्रतिनिधियों को हर सूरत में जनता का सेवादार बनाये रखने के प्रावधान इस संविधान में किये गये ( हालांकि बाद में विभिन्न संविधान संशोधनों द्वारा इस व्यवस्था में बदलाव किया गया विशेषकर दल बदल विरोधी कानून बनाकर ) इस व्यवस्था को कायम करने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग को सौंपी गई और उसे सरकार से स्वतंत्र  रख कर सीधे संविधान से शक्ति लेकर काम करने का अधिकार सौंपा गया। मगर बाबा साहेब ने 26 नवम्बर, 1949 को ही संविधान सभा में कहा कि  ‘मैं इस संविधान के गुणों के बारे में कुछ नहीं कहूंगा, क्योंकि मैं समझता हूं कि संविधान चाहे जितना भी अच्छा हो। यदि इसे लागू करने वाले लोग बुरे हैं तो वह निःसन्देह बुरा हो जाता है’। बाबा साहेब के इस कथन से हम अच्छी तरह अनुमान लगा सकते हैं कि पिछले 1952 में हुए पहले चुनावों के बाद अब तक हमारे जन प्रतिनिधियों के चरित्र में कैसे-कैसे बदलाव आते रहे हैं और संविधान की क्या गत बनती रही है।
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1975 में इमरजेंसी भी इसी संविधान के रहते लगी और बाद में 18 महीने बाद उठी भी। संविधान ने चुने हुए प्रतिनिधियों के सदन लोकसभा को असीमित अधिकार भी दिये, मगर स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था करके इसकी नकेल उसके हाथ में भी पकड़ाते हुए कहा कि हर हालत में संविधान के बुनियादी ढांचे से संसद कोई खिलवाड़ न कर सके। संसद द्वारा बनाये गये कानून की संवैधानिक समीक्षा करने का अधिकार बाबा साहेब ने स्वतंत्र न्यायपालिका को सौंपा। मगर संसदीय लोकतंत्र की नकेल हर हालत में आम भारतीय के हाथ में रखने के उद्देश्य से बाबा साहेब ने 26 नवम्बर, 1949 को ही ताकीद की कि ‘‘सर्वप्रथम हमें अपने सामाजिक व आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संवैधानिक नियमों व प्रावधानों को दृढ़ता से अपनायें। दूसरी बात जो हमें करनी है उस पर हमें विशेष सावधानी बरतनी होगी। यह सावधानी वही है जिसे प्रख्यात राजनैतिक लोकतांत्रिक चिन्तक जाॅन स्टुअर्ट मिल ने कहा था। हम भावुकता या आवेश में आकर किसी भी महान व्यक्ति के चरणों में अपनी स्वतंत्रता न चढ़ा दें या उसे वे शक्तियां न सौंपे जो उसे इसी संविधान में बनाई गई उसी की संस्थाओं को मिटाने की शक्ति सौंप दें। राजनीति में अंध भक्ति हमें पुनः गुलामी के भावों में बांधने की क्षमता रखती है।
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राजनीति में भक्तिभाव अपने अधिकारों को गिरवी रखने के समान है। जबकि धर्म या मजहब में अंध भक्ति आत्म मोक्ष का मार्ग हो सकती है, पर राजनीति में भक्ति या वीर पूजा पतन और अन्ततः तानाशाही का निश्चित मार्ग होती है’’। अतः बाबा साहेब का संविधान हमें लगातार अपने संवैधानिक व लोकतांत्रिक मूल अधिकारों की शुचिता व संरक्षण के लिए सचेत करता है और परोक्ष ताकीद करता है कि एक वोट का अधिकार का कुछ भी मोल नहीं लग सकता, यह अमूल्य है। बाबा साहेब ने इस अधिकार को राजनैतिक स्वतंत्रता या लोकतंत्र का नाम दिया और ताकीद की कि ‘‘केवल इसी से हमें सन्तुष्ट नहीं हो जाना है। हमें आर्थिक स्वतंत्रता की तरफ भी बढ़ना पड़ेगा जिसे पाये बिना हमारी सामाजिक व राजनैतिक स्वतंत्रता अधूरी रहेगी। सामाजिक लोकतंत्र पाने के लिए हमें स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व (भाईचारा) को जीवन के सिद्धान्तों के रूप में स्वीकार करना होगा। जहां समता होगी वहीं स्वतंत्रता होगी और बंधुत्व भी तभी होगा जब समता व स्वतंत्रता होगी। इन तीनों को अलग-अलग नहीं किया जा सकता’’। अतः संविधान दिवस हमें सचेत करके गया है कि हम सच्चे देशभक्त व सच्चे हिन्दोस्तानी बनने के लिए संविधान की रीतियों के अनुसार ही सार्वजनिक से लेकर निजी जीवन में आचरण करें।
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