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संवैधानिक पद और राजधर्म

हमारे संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रमंडल देशों और अमेरिकी तर्ज पर हर राज्य में राज्यपाल पद की संकल्पना की। यह ब्रिटिश शासन की एक विरासत थी जिसको नई संरचना में भी अनुकूल माना गया।

12:00 AM Jul 22, 2020 IST | Aditya Chopra

हमारे संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रमंडल देशों और अमेरिकी तर्ज पर हर राज्य में राज्यपाल पद की संकल्पना की। यह ब्रिटिश शासन की एक विरासत थी जिसको नई संरचना में भी अनुकूल माना गया।

संवैधानिक पद और राजधर्म
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हमारे संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रमंडल देशों और अमेरिकी तर्ज पर हर राज्य में राज्यपाल पद की संकल्पना की। यह ब्रिटिश शासन की एक विरासत थी जिसको नई संरचना में भी अनुकूल माना गया। संविधान निर्माताओं के दिमाग में उस समय विभाजन के खतरे की बात भी थी इसलिए शक्तिशाली केन्द्र के पक्ष में सशक्त संघीय ढांचे की बुनियाद रखी गई। राज्यपालों को यह सुनिश्चित करने का अधिकार दिया गया कि राज्य सरकार संवैधानिक प्रावधानों के अनुकूल काम कर रही है। यदि राज्य की मशीनरी ध्वस्त होती है तो संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत राज्यपाल राष्ट्रपति को रिपोर्ट देता है। राष्ट्रपति शासन के माध्यम से राज्य के प्रशासन की बागडोर केन्द्र के हाथों में पहुंच जाती है। संविधान निर्माताओं की सोच के अनुसार राज्यपाल राज्य में संघ का प्रतिनिधि होता है। केन्द्र और राज्यों के संबंध में संतुलन साधने वाला एक सेतु। देश काल परिस्थितियों के अनुसार भारत के राज्यपालों की भूमिका भी बदली। राजनीति में जब कांग्रेस का एकाधिकार था तो राज्यपाल या उपराज्यपाल पद को लेकर कोई कौतुहल नहीं रहता था। बहुदलीय राजनीति के अस्तित्व में आने के बाद इस पद का आकर्षण बढ़ गया और यह पद अदृश्य सत्ता का एक बड़ा केन्द्र बन कर उभरा। राज्यों में सत्ता और राज्यपालों में टकराव भी होता आया है। राज्य सरकारों के खिलाफ राज्यपालों के असंवैधानिक आचरण पर सवाल भी उठते रहे हैं। राज्यपालों की सक्रियता पर भी सवाल उठते रहे हैं।
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आखिर संविधान में इस पद के सृजन का प्रावधान बिना ​कारण तो नहीं किया जा सकता। राज्यपाल के पद को समाप्त किए जाने की चर्चा भी कई बार चली। आज जो विपक्ष में है वे राज्यपाल की खामियां गिनाते हैं, कल जब यही सत्ता में आएंगे तो उन्हें राज्यपाल में खूबियां नजर आने लगती हैं। ऐसा भी नहीं है कि राज्यपाल सिर्फ नकारात्मक भूमिका ही निभाते हैं। राज्य के विकास में मंत्रिमंडल के साथ कदम बढ़ाते हैं। ऐसे में इस पद की खूबियों आैर खामियों की पड़ताल आज बड़ा मुद्दा है। पुडुचेरी की उपराज्यपाल किरण बेदी और मुख्यमंत्री नारायण सामी में टकराव काफी अर्से से चल रहा है। नारायण सामी उन पर लगातार हस्तक्षेप करने का आरोप लगाते रहे हैं। यहां तक कि मुख्यमंत्री राजभवन के बाहर धरने पर भी बैठ गए थे। बाद में बातचीत से मामला सुलझ गया था। किरण बेदी 2016 में उपराज्याल नियुक्त की गई थीं। उसके बाद से ही पुडुचेरी के मुख्यमंत्री नारायण सामी और उनके बीच विभिन्न मुद्दों पर मतभेद रहे।
अब नया घटनाक्रम सामने आया है। पुडुुचेरी विधानसभा सत्र शुरू होने से पहले सदन में उपराज्यपाल किरण बेदी ने अभिभाषण पढ़ने से इंकार कर दिया। उनका कहना है कि बजट को मंजूरी के लिए उनके पास भेजा ही नहीं गया इसलिए उन्होंने यह कदम उठाया, हालांकि उन्हें सदन में आमंत्रित किया गया था। बेदी को सम्मान गारद दिए जाने की भी व्यवस्था की गई थी।
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मुख्यमंत्री के संसदीय सचिव के. लक्ष्मी नारायण ने प्रस्ताव पेश कर विधानसभा अध्यक्ष से अनुरोध किया कि आज के लिए उपराज्यपाल का अभिभाषण स्थगित किया जाए। सत्तापक्ष का कहना था कि मुख्यमंत्री द्वारा वित्त वर्ष बजट पेश करना आवश्यक था। मौजूदा हालात और कोरोना की परिस्थितियों को देखते हुए बजट पेश करने में देरी होती है तो इसका प्रभाव जनता पर पड़ेगा। मुख्यमंत्री नारायण सामी ने किरण बेदी को पत्र लिखकर कहा था कि वार्षिक वित्तीय विवरण की संस्तुति प्रशासक (उपराज्यपाल) द्वारा दी जा चुकी है और राष्ट्रपति ने इसे मंजूरी प्रदान कर दी है। उन्होंने यह भी कहा था कि सदन में बजट पेश करने से पहले उसे उपराज्यपाल के पास मंजूरी के लिए भेजने का कोई नियम या कानूनी प्रावधान नहीं है। मुख्यमंत्री का तर्क था कि जब पूरा देश कोविड-19 से लड़ रहा है और इस समय एक होकर रहने की जरूरत है। लेखानुदान 2020-21 समाप्त हुए 20 दिन बीत चुके हैं, इसमें अधिक देर होने से प्रशासन को महामारी से लड़ने में समस्या आ जाएगी।
किसी भी राज्य के विकास के लिए राज्यपाल, उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री में समन्वय होना ही चाहिए। दिल्ली में भी आप सरकार और उपराज्यपाल में काफी टकराव नजर आया था लेकिन अधिकारों का बंटवारा होने के बाद सब कुछ ठीक चल रहा है। पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और राज्यपाल ओपी धनखड़ में सीधा टकराव देखने को मिल रहा है। राज्यपाल और मुख्यमंत्री संवैधानिक पदों पर आसीन हैं और उनके अधिकार भी तय हैं। इन्हें पद की गरिमा बनाए रखने के ​लिए संवैधानिक लक्ष्मण रेखा को पार नहीं करना चाहिए। अगर कोई अंग सही तरीके से काम न करे तो संविधान में उनके उपचार की व्यवस्था है। राज्यपाल और मुख्यमंत्री में टकराव लोकतंत्र की मर्यादाओं के अनुकूल नहीं है। लोकतंत्र के साथ लोकलज्जा भी जुड़ी हुई होती है और स्वस्थ लोकतंत्र की मांग है कि यह टकराव समाप्त होना चाहिए। दोनों को ही राजधर्म का पालन करना चाहिए।
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आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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