संविधान की मूल प्रति पर उठा विवाद
भारत के संविधान की प्रस्तावना या मूल उद्देशिका है हम भारत के लोग…
भारत के संविधान की प्रस्तावना या मूल उद्देशिका है ‘हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथ निरपेक्ष, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ईसवीं (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी संवत् 2006 विक्रमी ) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’
इस प्रस्तावना में समाजवादी व पंथ या धर्मनिरपेक्ष तथा अखंडता शब्द 1976 में इमरजेंसी काल में संविधान संशोधन करके जोड़े गये। इसके साथ ही नागरिकों के कर्त्तव्य भी इसी संशोधन के माध्यम से जोड़े गये। इससे पहले केवल नागरिकों के अधिकार ही संविधान का हिस्सा थे। भारत की संसद में समय-समय पर समाजवादी और पंथ या धर्मनिरपेक्ष शब्दों को प्रस्तावना का अंग बनाये जाने को लेकर विवाद उठता रहा है। हाल ही में संसद के बजट सत्र के दौरान इसके पूर्ण हुए प्रथम चरण के दौरान संविधान की मूल प्रति पर प्रसिद्ध चित्रकार स्व. नन्द लाल बोस द्वारा बनाये गये चित्रों को लेकर राज्यसभा में विवाद खड़ा हुआ। भाजपा के उत्तर प्रदेश से सांसद श्री राधा मोहन ने यह सवाल खड़ा किया कि वर्तमान में संविधान की जो प्रतियां उपलब्ध हैं उन पर इन चित्रों को नहीं दिखाया जाता है।
संविधान केवल पुस्तिका रूप में ही बाजार में उपलब्ध कराया जाता है। इस सन्दर्भ में यह महत्वपूर्ण है कि संविधान की मूल प्रति हस्तलिखित है जिसे और अधिक सुन्दर व आकर्षक बनाने के लिए यह निर्णय किया गया था कि उस पर कुछ चित्रों को भी अंकित किया जाये। यह फैसला संविधान सभा का ही था। इन चित्रों में भगवान राम के लंका विजय कर अयोध्या लौटने का वर्णन भी है और शहंशाह अकबर के दरबार का चित्र भी है। भगवान कृष्ण का चित्र भी है शेरे मैसूर टीपू सुल्तान का चित्रांकन भी है। श्री अग्रवाल के मुताबिक कुल 22 चित्र हैं। वास्तव में ये चित्र भारत की मिलीजुली संस्कृति का ही वर्णन करते हैं। श्री अग्रवाल के मुताबिक 1976 के बाद की सरकारों ने संविधान की बाजार में उपलब्ध प्रतियों से इन चित्रों को हटाने की कोशिश क्यों की? जबकि संविधान सभा के सभी सदस्यों ने मूल प्रति पर ही हस्ताक्षर किये थे।
अतः बाजार में मिलने वाली संविधान पुस्तिका पर भी ये चित्र होने चाहिए। उनके इस आरोप का राज्यसभा में विपक्ष के नेता श्री मल्लिकर्जुन खड़गे ने कड़ा जवाब दिया और कहा कि बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा लिखे गये संविधान के साथ उनकी पार्टी कांग्रेस के नेताओं ने कभी कोई छेड़छाड़ करने की कोशिश नहीं की बल्कि उल्टे वर्तमान सत्ताधारी पार्टी भाजपा इसके साथ छेड़छाड़ करना चाहती है। हम जानते हैं कि संविधान से छेड़छाड़ करने का मुद्दा पिछले लोकसभा चुनाव से ही देश में गरमाया हुआ है और इस पर भारत की सड़कों तक पर चर्चा हो रही है। किन्तु इसमें उकेरे गये चित्रों पर भी खड़ा हुआ विवाद नया नहीं है।
मुझे अच्छी तरह याद है कि 1999 से 2004 तक केन्द्र की सत्ता पर काबिज भाजपा नीत अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान भी यह विवाद उठा था। उस समय संसदीय कार्यमन्त्री स्व. प्रमोद महाजन इन चित्रों समेत संविधान के पृष्ठों की फोटो स्टेट कापियां लेकर लोकसभा में आये थे और उन्होंने ये प्रतियां सभी सांसदों को बांटी थी। उनका कहना था कि 1976 में जोड़े गये धर्मनिरपेक्ष व समाजवादी शब्दों की वर्तमान में कोई महत्ता नहीं है क्योंकि भारत अब बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में जी रहा है। संविधान में हिन्दू संस्कृति के पूज्य देवों के चित्र हैं तो संविधान निर्माताओं की दृष्टि को समझा जा सकता है।
इस मुद्दे पर उस समय लोकसभा में भारी कोहराम मचा था और विपक्षी पार्टी कांग्रेस के सदन में उपनेता स्व. प्रियरंजन दास मुंशी ने कड़ा विरोध किया था। श्री मुंशी ने कहा था कि पूरा संविधान जब लोक कल्याणकारी राज की स्थापना का वचन देता है तो समाजवादी व धर्मनिरपेक्ष शब्दों को कैसे हटाया जा सकता है। 1976 में किया गया संशोधन संविधान की मूल भावना को ही प्रदर्शित करता है। मगर श्री महाजन अपने प्रयत्न में सफल हो गये थे और उन्होंने पूरे देश को बता दिया था कि वही भगवान राम संविधान में भी अवस्थित हैं जिनका अयोध्या में मन्दिर बनाने के लिए आन्दोलन चल रहा है। मगर संविधान में ही उकेरे गये अन्य चित्रों का जिक्र करके कांग्रेस ने भी सिद्ध कर दिया था कि भारत किसी एक धर्म की तरफदारी करने वाला देश नहीं है अतः धर्मनिरपेक्ष या सेकुलर शब्द पूरी तरह प्रासंगिक है।
संविधान निर्माता इसी संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों में धर्म की स्वतन्त्रता देकर स्पष्ट करके गये हैं कि सरकार का कोई धर्म नहीं होगा और वह सभी धर्मों का समान रूप से आदर करेगी। वर्तमान दौर में चित्रों पर उठे विवाद के भी कई आयाम हैं। मामला सत्ताधारी पक्ष के ही एक सांसद द्वारा राज्यसभा में उठाया गया है और इसे बाबा साहेब की प्रतिष्ठा के साथ जोड़ दिया गया है। सवाल यह है कि क्या सरकार अब 26 नवम्बर 1949 को अंगीकृत किये गये संविधान की मूल प्रति को भी बाजार में उपलब्ध कराने की कोई व्यवस्था करेगी? इसमें कोई हर्ज भी नहीं है क्योंकि वर्तमान पीढ़ी को यह जानने का पूरा हक है कि उनके पुरखे संविधान उन्हें किस रूप में सौप कर गये थे। लेकिन 1976 में किये गये संशोधनों को भी हम नजर अन्दाज कैसे कर सकते हैं जबकि धर्मनिरपेक्ष व समाजवाद इसके अभिन्न अंग हैं।
हम यह मान कर नहीं चल सकते कि संविधान कोई एेसी पुस्तिका है जिसमें संशोधन नहीं किया जा सकता क्योंकि हमारे संविधान निर्माता ही इसमें संशोधन करने की व्यवस्था एक अनुच्छेद के तहत करके गये हैं। वास्तव में यह एक एेसा जीवन्त दस्तावेज है जो अपने हर समय की आवश्यकताओं के लिए संशोधन हेतु खुला हुआ है। संविधान को लागू करके ही हम कहते हैं कि भारत की व्यवस्था संविधान के अनुरूप चलेगी। संविधान भारत के लोगों की जिजीविषा का परिचायक है जिसमें गरीब से गरीब व्यक्ति के लिए अपने विकास करने का रास्ता खुलता है। यह आम नागरिकों की आपसी बंधुता बढ़ाने की वकालत करता है।
यह तभी संभव है जबकि शासन की निगाह में हर धर्म को मानने वाला नागरिक बराबर हो। गरीब का उत्थान तभी संभव है जब सरकारें नीतिगत तौर पर समाजवादी रुख अख्तियार करके उसके विकास का प्रयास करें। संविधान की प्रस्तावना ही व्यक्ति या नागरिक की निजी प्रतिष्ठा की बात करती है तो उसके किसी भी धर्म का अनुयायी होने से क्या फर्क पड़ता है। बेशक हिन्दू समाज बहुसंख्यक है परन्तु जो लोग अल्पसंख्यक हैं उन्हें भी संविधान समता की गारंटी देता है। अतः बाजार में यदि संविधान की मूल प्रतियों की कापी भी उपलब्ध होती है तो उससे संविधान का आत्मा किसी भी तरह आहत नहीं होती क्योंकि 1976 में किये गये संशोधन को सामान्यतः हटाया नहीं जा सकता। संशोधित शब्द संविधान के भीतर से इसकी आत्मा के अनुरूप ही जोङे गये हैं। जाहिर है कि संविधान में संशोधन समय के अनुरूप सामाजिक गति को बनाये रखने के लिए ही किये जाते हैं। और प्रकृति का नियम है कि समाज हमेशा आगे की तरफ ही बढ़ता है। संविधान की प्रस्तावना में अवसर की समता का अर्थ समाजवादी स्थापना से ही जाकर जुड़ता है। और भारत की एकता व अखंडता का सन्दर्भ राष्ट्रवाद से है।