कोरोना : चिकित्सा तंत्र बेनकाब
आज से पूरे देश में ‘अनलाॅक इंडिया’ का दूसरा चरण शुरू हो रहा है जिसमें शापिंग माॅल से लेकर औद्योगिक इकाइयां और धार्मिक पूजा स्थल खुल जायेंगे
12:04 AM Jun 08, 2020 IST | Aditya Chopra
आज से पूरे देश में ‘अनलाॅक इंडिया’ का दूसरा चरण शुरू हो रहा है जिसमें शापिंग माॅल से लेकर औद्योगिक इकाइयां और धार्मिक पूजा स्थल खुल जायेंगे। सामाजिक व आर्थिक गतिविधियां शुरू करते समय दो हाथ की भौतिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग) एवं मुंह पर ‘मास्क’ लगाना जरूरी होगा। कोरोना वायरस से बचने के लिए यह एहतियात रखना नागरिकों की भलाई के लिए ही है मगर कोरोना से सबसे बड़ा सबक अगर कोई मिला है तो वह यह कि भारत के जिस राज्य में भी चिकित्सा तन्त्र मजबूत है वहां इस महामारी को पैर पसारने से रोक दिया गया है।
इस मामले में दक्षिण का राज्य ‘केरल’ अव्वल नम्बर पर है और उसके बाद ‘प. बंगाल’ का नम्बर आता है। इन दोनों ही राज्यों में सार्वजनिक स्वास्थ्य चिकित्सा प्रणाली का आधारभूत ढांचा इतना सुदृढ़ है कि गांवों से लेकर शहरों तक कोरोना के लक्षण मिलते ही उसका सुचारू ढंग से इलाज कर दिया गया। इसकी वजह मात्र इतनी सी है कि वर्षों से यहां की राज्य सरकारें स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी सुविधाएं लगाने में लगी हुई हैं। यह किसी राजनीतिक पार्टी की सरकार का सवाल न होकर ‘राज्य’ का सवाल बना दिया गया है।
भारत की त्रिस्तरीय प्रशासनिक प्रणाली का यह उजला पक्ष है जिसका अनुकरण दिल्ली में भी करने का प्रयास किया गया और शिक्षा व स्वास्थ्य पर बजट का बड़ा हिस्सा खर्च किया गया परन्तु कांग्रेस पार्टी के अजय माकन के अनुसार दिल्ली की स्थापित स्वास्थ्य क्षमता का यदि कोरोना महामारी के चलते केवल 28 प्रतिशत हिस्सा ही उपयोग किया जाता है तो इस क्षमता के सृजन पर ही सवाल खड़ा हो जाता है। दर असल भारत में अभी तक स्वास्थ्य व शिक्षा जैसे मूलभूत विषय जिस प्रकार राजनीतिक दलों के चुनावी एजेंडों से बाहर रहे हैं वह हमारे लोकतन्त्र को ऐसे ‘लोपतन्त्र’ में बदलता है जिसमें नागरिकों के बुनियादी सवाल छिपा कर चुनाव जीते जाते हैं।
पूरी दुनिया में भारत अपनी तरक्की का लोहा तभी मनवा सकता है जब इसकी शिक्षा व स्वास्थ्य प्रणाली विकसित देशों की बराबरी पर आ जाये। वास्तव में हमारी असली तरक्की का राज इन्हीं दो क्षेत्रों के विकास पर निर्भर करता है और इन दो क्षेत्रों मे किया गया सरकारी निवेश दीर्घकालीन स्तर पर लाभांश देने वाला होता है क्योंकि स्वस्थ व शिक्षित नागरिक ही किसी देश की स्थायी प्रगति की गारंटी देते हैं। कोरोना वायरस ने सार्वजनिक स्वास्थ्य व चिकित्सा प्रणाली की असलियत सामने लाकर कुछ इस प्रकार पटक दी है जैसे कोई ‘धोबी मैले कपड़ों को ही पानी में खंगाल कर वापस ले आता है।’
इससे निजी क्षेत्र में स्थापित चिकित्सा सुविधाओं की हकीकत भी सामने आ गई है जिनका मूल उद्देश्य हर हालत में मुनाफा कमाना होता है। नोएडा जैसे स्थान पर दर्द से कराहती किसी गर्भवती महिला को 12 घंटे के भीतर यदि आठ अस्पताल भर्ती करने से इन्कार कर देते हैं और ‘बेड’ न होने के बहाने बनाते हैं तो स्पष्ट है कि इन अस्पतालों में डाक्टरों को मनुष्य की जान बचाने के धर्म से इतर जेब देख कर इलाज करना सिखाया जाता है।
लोकतन्त्र में सरकार का कर्त्तव्य आम नागरिकों को स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाएं प्रदत्त कराने का होता है मगर बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के चलते हम यह जिम्मेदारी निजी क्षेत्र पर छोड़ कर निश्चिन्त हो जाना चाहते हैं और सोचते हैं कि बीमा कम्पनियां यह जिम्मेदारी उठा लेंगी! गरीब आदमी को बीमा कम्पनियों के भरोसे छोड़ कर हम इलाज को और महंगा बना रहे हैं और गरीब आदमी से बीमार होने का हक भी छीन रहे हैं। निजी अस्पतालों में वही गरीब इलाज करा पायेगा जिसका बीमा होगा बेशक वह सरकार द्वारा कराया गया ही बीमा क्यों न हो। जिस गर्भवती महिला की मृत्यु हुई है वह एक सामान्य सी नौकरी करने वाले व्यक्ति की पत्नी ही थी।
एक तरफ कोरोना महामारी के चलते दिल्ली में ही निजी अस्पताल बेड उपलब्ध कराने के नाम पर भ्रष्टाचार कर रहे हैं और दूसरी तरफ सरकारी अस्पतालों में बेड भरे हुए हैं तो स्थिति की गंभीरता को समझा जा सकता है। यह स्थिति जब राजधानी दिल्ली की है तो बिहार या उत्तर प्रदेश जैसे राज्य की हालत क्या होगी इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। किसी भी राज्य के पास कोई जादुई छड़ी नहीं है कि वह केवल दो महीने के भीतर महामारी से संक्रमित भारी संख्या में लोगों के लिए उचित चिकित्सा तन्त्र स्थापित कर दे।
बिहार की हालत तो यह है कि यहां के लगभग सभी जिला अस्पतालों (पटना को छोड़ कर) की हालत किसी पशु चिकित्सालय से भी बदतर है फिर देहात या ब्लाक स्तर की स्थिति क्या होगी? इस राज्य में जो मजदूर दूसरे राज्यों से वापस आ रहे हैं उन्हें कुछ दिनों के एकान्तवास में ऐसे स्थानों पर रखा जा रहा है जैसे जानवरों को किसी ‘घेर’ में खदेड़ दिया जाता है।
उत्तर प्रदेश में भी हालात बहुत ज्यादा बेहतर नहीं हैं। कहने का मतलब यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर जब तक स्वास्थ्य पर अधिक खर्चा नहीं किया जायेगा तब तक गरीब आदमी के स्वास्थ्य की गारंटी नहीं हो सकती। आयुष्मान जैसी परियोजना को यदि सार्वजनिक क्षेत्र में चिकित्सा सुविधाएं जुटा कर लागू किया जाता तो उसके दो लाभ होते। एक तो इससे लाखों लोगों को स्थायी रोजगार मिलता और दूसरे चिकित्सा बिल मनमाने ढंग से न बढ़ते।
सरकार की जेब से जो धन बीमा कम्पनियों को जा रहा है वह अस्पतालों को आधुनिक बनाने पर खर्च होता। इस मुद्दे पर विचार करना बनता है क्योंकि आम लोगों के वोट से चुनी हुई सरकार का कर्त्तव्य आम जनता का सुख ही होता है। हम कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि जिस राज्य बिहार की सार्वजनिक या सहकारी क्षेत्र की 40 से अधिक चीनी मिलें बन्द पड़ी हों और वहां निजी क्षेत्र की केवल तीन चीनी मिलें ही चल रही हों, वहां प्रवासी मजदूरों की देखभाल या उनके रोजगार का प्रबन्ध करने में सरकार कोई दिलचस्पी रखती है?
इस दुविधा से तो हमें निकलना होगा और अपना लक्ष्य साफ रखना होगा। जिस बिहार के मजदूर पूरे भारत में जाकर अपने श्रम से किसी भी राज्य की अर्थव्यवस्था को ‘पर’ लगा सकते हैं वे अपने ही राज्य में लाचार हो जाते हैं ! ऐसा क्यों होता है? नीतीश बाबू भी सोचें और मैं भी सोच रहा हूं!
Advertisement
Advertisement