एक देश-एक चुनाव के रास्ते पर देश
लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराये जाने के मसले…
लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराये जाने के मसले पर लंबे समय से बहस चल रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी इस विचार का समर्थन कर इसे आगे बढ़ाया है। इस मसले पर चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग और संविधान समीक्षा आयोग विचार कर चुके हैं। ‘एक देश-एक चुनाव’ विधेयक को लोकसभा में पेश कर दिया गया है तथा इस बिल को संयुक्त संसदीय समिति के पास भेज दिया गया है।
एक देश-एक चुनाव, का संविधान (129वां संशोधन) विधेयक संसद में पेश हो चुका है। इसे लेकर विपक्ष ने संसद में खूब हंगामा किया है। केंद्रीय मंत्री मेघवाल ने लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला से इस विधेयक को व्यापक विचार-विमर्श के लिए संसद की संयुक्त समिति के पास भेजने का अनुरोध किया। सरकार की इस कवायद के बीच संसद से सड़क तक विपक्षी पार्टियों के विरोध के स्वर भी तेज हो गए हैं। यह जानते हुए भी कि देश में एक साथ चुनाव की व्यवस्था कोई पहली बार लागू नहीं होगी। आजादी के बाद वर्ष 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही कराए गए थे। यह सिलसिला उस समय टूटा, जब 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभाएं समय से पहले भंग कर दी गईं। सिलसिला नहीं टूटता तो अमरीका, फ्रांस, कनाडा, स्वीडन जैसे देशों की तरह भारत में भी एक साथ चुनाव हो रहे होते।
अभी हाल ही में विधि आयोग ने देश में एक साथ चुनाव कराये जाने के मुद्दे पर विभिन्न राजनीतिक दलों, क्षेत्रीय पार्टियों और प्रशासनिक अधिकारियों की राय जानने के लिये तीन दिवसीय कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया था। इस कॉन्फ्रेंस में कुछ राजनीतिक दलों ने इस विचार से सहमति जताई, जबकि ज्यादातर राजनीतिक दलों ने इसका विरोध किया। उनका कहना है कि यह विचार लोकतांत्रिक प्रक्रिया के खिलाफ है। किसी भी जीवंत लोकतंत्र में चुनाव एक अनिवार्य प्रक्रिया है।
स्वस्थ एवं निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की आधारशिला होते हैं। भारत जैसे विशाल देश में निर्बाध रूप से निष्पक्ष चुनाव कराना हमेशा से एक चुनौती रहा है। अगर हम देश में होने वाले चुनावों पर नजर डालें तो पाते हैं कि हर वर्ष किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहते हैं। चुनावों की इस निरंतरता के कारण देश हमेशा चुनावी मोड में रहता है। इससे न केवल प्रशासनिक और नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं बल्कि देश के खजाने पर भारी बोझ भी पड़ता है। इस सबसे बचने के लिये नीति निर्माताओं ने लोकसभा तथा राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराने का विचार बनाया। देश में इनके अलावा पंचायत और नगर पालिकाओं के चुनाव भी होते हैं किन्तु एक-देश एक चुनाव में इन्हें शामिल नहीं किया जाता।
एक देश-एक चुनाव के पक्ष में कहा जाता है कि यह विकासोन्मुखी विचार है। जाहिर है लगातार चुनावों के कारण देश में बार-बार आदर्श आचार संहिता लागू करनी पड़ती है, इसकी वजह से सरकार आवश्यक नीतिगत निर्णय नहीं ले पाती और विभिन्न योजनाओं को लागू करने में समस्या आती है। इसके कारण विकास कार्य प्रभावित होते हैं। आपको बता दें कि आदर्श आचार संहिता या मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट चुनावों की निष्पक्षता बरकरार रखने के लिये बनाया गया है। एक देश- एक चुनाव के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि इससे बार-बार चुनावों में होने वाले भारी खर्च में कमी आएगी। बार-बार चुनाव होते रहने से सरकारी खजाने पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ता है। चुनाव पर होने वाले खर्च में लगातार हो रही वृद्धि इस बात का सबूत है कि यह देश की आर्थिक सेहत के लिये ठीक नहीं है।एक देश-एक चुनाव के पक्ष में दिये जाने वाले यह तर्क भी देते हैं कि इससे कालेधन और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने में मदद मिलेगी। यह किसी से छिपा नहीं है कि चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों द्वारा कालेधन का खुलकर इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि देश में प्रत्याशियों द्वारा चुनावों में किये जाने वाले खर्च की सीमा निर्धारित की गई है किन्तु राजनीतिक दलों द्वारा किये जाने वाले खर्च की कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई है।
कुछ विश्लेषक यह मानते हैं कि लगातार चुनाव होते रहने से राजनेताओं और पार्टियों को सामाजिक समरसता भंग करने का मौका मिल जाता है जाता है जिसकी वजह से अनावश्यक तनाव की परिस्थितियां बन जाती हैं। एक साथ चुनाव कराये जाने से इस प्रकार की समस्याओं से निजात पाई जा सकती है।
एक देश-एक चुनाव के विरोध में विश्लेषकों का मानना है कि संविधान ने हमें संसदीय मॉडल प्रदान किया है जिसके तहत लोकसभा और विधानसभाएं पांच वर्षों के लिये चुनी जाती हैं लेकिन एक साथ चुनाव कराने के मुद्दे पर हमारा संविधान मौन है। संविधान में कई ऐसे प्रावधान हैं जो इस विचार के बिल्कुल विपरीत दिखाई देते हैं। मसलन अनुच्छेद 2 के तहत संसद द्वारा किसी नये राज्य को भारतीय संघ में शामिल किया जा सकता है और अनुच्छेद 3 के तहत संसद कोई नया राज्य बना सकती है। जहां अलग से चुनाव कराने पड़ सकते हैं। एक देश-एक चुनाव के विरोध में यह तर्क भी प्रमुखता से रखते हैं कि यह विचार देश के संघीय ढांचे के विपरीत होगा और संसदीय लोकतंत्र के लिये घातक कदम होगा।
लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ करवाने पर कुछ विधानसभाओं के मर्जी के खिलाफ उनके कार्यकाल को बढ़ाया या घटाया जायेगा जिससे राज्यों की स्वायत्तता प्रभावित हो सकती है। भारत का संघीय ढांचा संसदीय शासन प्रणाली से प्रेरित है और संसदीय शासन प्रणाली में चुनावों की बारंबारता एक अकाट्य सच्चाई है। इसके विरोध में यह तर्क भी दिया जाता है कि लोकतंत्र को जनता का शासन कहा जाता है। देश में संसदीय प्रणाली होने के नाते अलग-अलग समय पर चुनाव होते रहते हैं और जनप्रतिनिधियों को जनता के प्रति लगातार जवाबदेह बने रहना पड़ता है। इसके अलावा कोई भी पार्टी या नेता एक चुनाव जीतने के बाद निरंकुश होकर काम नहीं कर सकता क्योंकि उसे छोटे-छोटे अंतरालों पर किसी न किसी चुनाव का सामना करना पड़ता है। विश्लेषकों का मानना है कि अगर दोनों चुनाव एक साथ कराये जाते हैं तो ऐसा होने की आशंका बढ़ जाएगी। एक देश-एक चुनाव के विरोध में यह तर्क भी दिया जाता है कि भारत जनसंख्या के मामले में विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है। लिहाजा बड़ी आबादी और आधारभूत संरचना के अभाव में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराना तार्किक प्रतीत नहीं होता। एक देश-एक चुनाव को लेकर क्षेत्रीय पार्टियों के विरोध को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। उनके इस तर्क में दम है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने से मतदाताओं के मन पर राष्ट्रीय मुद्दे हावी हो सकते हैं।
स्थानीय मुद्दे दरकिनार होने से राज्यों के विकास पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। एक साथ चुनाव में यह व्यवस्था किस तरह की जाए कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव अलग-अलग मुद्दों पर लड़े जाएं, यह सरकार के सामने बड़ी चुनौती होगी। इसके लिए गहन चर्चा और व्यापक चुनाव सुधार अभियान भी जरूरी है। चुनावों के इस चक्रव्यूह से देश को निकालने के लिये एक व्यापक चुनाव सुधार अभियान चलाने की आवश्यकता है। इसके तहत जनप्रतिनिधित्व कानून में सुधार, कालेधन पर रोक, राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण पर रोक, लोगों में राजनीतिक जागरूकता पैदा करना शामिल है जिससे समावेशी लोकतंत्र की स्थापना की जा सके। यदि देश में ‘एक देश-एक कर’ यानी जीएसटी लागू हो सकता है तो एक देश-एक चुनाव क्यों नहीं हो सकता? अब समय आ गया है कि सभी राजनीतिक दल खुले मन से इस मुद्दे पर बहस करें ताकि इसे अमलीजामा पहनाया जा सके। संसद और सड़क पर हो-हल्ला करने की बजाय लोकतंत्र और देशहित में राजनीतिक दलों को सकारात्मक पहल की दिशा में बढ़ना चाहिए।