राजनीति का अपराधीकरण!
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राजनीति का अपराधीकरण कोई नई समस्या नहीं है बल्कि अपराधियों का राजनीति में महिमामंडन नई दूषित संस्कृति बनकर जिस तरह प्रतिष्ठापित हो रहा है, वह सर्वाधिक गंभीर मसला है। यह समस्या स्वयं राजनीतिज्ञों और राजनैतिक दलों ने पैदा की है। अतः इसका पूर्ण निदान भी इसी स्तर पर ढूंढना होगा और जो भी हल इस स्तर से निकलेगा वही स्थायी रूप से राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त कर पायेगा। लोकतन्त्र में जब अपराधी प्रवृत्ति के लोग जनता का समर्थन पाने में सफल हो जाते हैं तो दोष मतदाताओं का नहीं बल्कि उस राजनैतिक माहौल का होता है जो राजनैतिक दल और अपराधी तत्व मिलकर विभिन्न आर्थिक-सामाजिक प्रभावों से पैदा करते हैं। यह कार्य अापराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्तियों की छवि ‘राबिन हुड’ के रूप में पेश करके किया जाता है किन्तु यह संवैधानिक तरीके से होने वाली कार्यप्रणाली को नकार कर ही इस तरह किया जाता है कि प्रशासन राबिन हुड की छवि वाले व्यक्ति के दबदबे में काम करता सा लगता है और जनता अपने दुख-दर्दों का निपटारा पाने के लिए उसके यशगान में डूब तक जाती है।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण भारत की लोकसभा मंे एक समय की दस्यु सुन्दरी कही जाने वाली स्व. फूलन देवी थीं जो उत्तर प्रदेश से समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव जीती थीं। बिना शक दोष फूलन देवी को नहीं दिया जा सकता था बल्कि राजनीति के उस विद्रूप चेहरे को दिया जा सकता था जिसने फूलन देवी का महिमामंडन करने में अपनी विजय देखी थी। अतः सर्वोच्च न्यायालय ने अपराध के मामलों में फंसे हुए लोगों के चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध लगाने सम्बन्धी एक याचिका पर जो टिप्पणी की है वह बहुत महत्वपूर्ण है और भारत के संसदीय लोकतन्त्र के उन पक्षों को उजागर करती है जो इस व्यवस्था के आधार स्तम्भ हैं। मुख्य न्यायाधीश श्री दीपक मिश्रा के नेतृत्व में गठित पांच सदस्यीय खंडपीठ ने इस याचिका को सुनते हुए कहा कि वह संसद के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश किये बिना यह ताईद करेंगे कि राजनैतिक दल अापराधिक कृत्य में फंसे हुए प्रत्याशियों के विरुद्ध चल रहे मुकदमों के बारे में मतदाता को पूरी जानकारी दें और उनका प्रचार स्थानीय स्तर पर इस प्रकार करें कि आम जनता उनकी शख्सियत के बारे में अच्छी तरह जान सके।
उनके चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध लगाना या न लगाना संसद का कार्य है और संसद इस बारे में यथोचित कानून बना सकती है। दरअसल भारत में चुनाव आयोग एेसी स्वतन्त्र व संवैधानिक संस्था है जो इस देश की राजनैतिक संरचना के कानून सम्मत गठन की पूरी जिम्मेदारी लेती है और संसद द्वारा बनाये गये कानून ‘जन प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951’ के तहत प्रत्याशियों की योग्यता व अयोग्यता तय करती है। इस अधिनियम में कई बार संशोधन भी हुए हैं। इसकी आठवीं धारा के तहत एेसा व्यक्ति चुनाव में खड़ा नहीं हो सकता जो न्यायालय द्वारा किसी भी अपराध में दो वर्ष से अधिक की सजा काट चुका हो। सर्वोच्च न्यायालय के सामने ही आज चुनाव आयोग के वकील ने दलील देते हुए कहा कि इस धारा में न्यायालय यह संशोधन करे कि हर उस व्यक्ति को चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं होगा जिसके खिलाफ किसी अदालत में एेसी धाराओं के तहत मुकदमा चल रहा हो जिसमे पांच साल तक की सजा का प्रावधान होता है। न्यायालय में एेसे आरोप के तहत आरोपपत्र दाखिल होते ही उसे अयोग्य घोषित कर दिया जाना चाहिए।
इसका विरोध भारत के महाधिवक्ता ने किया और कहा कि न्यायालय को किसी दूसरी संवैधानिक संस्था के दायरे में प्रवेश करने से गुरेज करना चाहिए क्योंकि यह कार्य संसद का है। अतः स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय उन सभी कानूनी बारीकियों की जांच-पड़ताल कर रहा है जो भारत के लोकतन्त्र में मतदाता को प्राप्त अधिकारों के तहत आती हैं और उसके आधार पर ही विधानसभा से लेकर संसद तक का गठन होता है। भारत के लोकतन्त्र में संसद सर्वोच्च इसीलिए है क्योंकि इसके पास कानून बनाने और संविधान में संशोधन करने का अधिकार है। यह व्यवस्था हमारे संविधान निर्माताओं ने इतनी सावधानी के साथ की है कि बदलते समय और परिस्थितियों के अनुसार पेश चुनौतियों का हम मुकाबला कर सकें परन्तु राजनीति के अपराधीकरण की समस्या का संविधान से लेना-देना प्रत्यक्षतः नहीं है क्योंकि स्वयं राजनैतिक दल ही एेसे प्रत्याशियों का चयन करने में एक-दूसरे से होड़ लगाते हैं जिनका इतिहास अपराधों से भरा पड़ा रहता है। इसका उपाय राजनीतिक दलों ने प्रत्याशियों के विजयी होने की क्षमता (विनेबिलिटी) शब्द में ढूंढ निकाला है।
इसका मतलब यही निकाला जा सकता है कि राजनीति मंे नैतिकता के कोई मायने नहीं रह गये हैं। दूसरे अर्थों में ‘साधन’ और ‘साध्य’ की शुचिता का कोई मतलब नहीं रह गया है। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा-8 में तो प्रत्याशियों की अयोग्यता की एेसी लम्बी-चौड़ी फेहरिस्त है कि आज के माहौल को देखते हुए शायद बिरला ही चुनाव लड़ने का पात्र बन सके? अतः राजनीति को अपराधियों से मुक्त करने के लिए जरूरी है कि सबसे पहले हम अपने गिरेबान में झांक कर देखें और तय करें कि हमने कहीं ‘गंगा’ को स्वयं ही ‘गन्दा नाला’ तो नहीं बना डाला है। इस काम में देश के सभी राजनैतिक दल जिस प्रकार से लगे हुए हैं उसे देखते हुए हमारी न्याय प्रणाली केवल सुझाव ही दे सकती है।