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जातिवादी राजनीति पर लगाम

06:50 AM Sep 24, 2025 IST | Aditya Chopra
जातिवादी राजनीति पर लगाम
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भारत में जाति की समस्या इतनी गहन है कि सम्पूर्ण समाज को यह अपने चंगुल में लपेटे हुए हैं। जन्म के आधार पर जातिगत पहचान का प्रयोग समाज में ऊंच-नीच का निर्धारण करने के लिए बेखौफ तरीके से होता है। मूल रूप से यह समस्या हिन्दू समाज की है जिसका प्रभाव अन्य धर्मावलम्बियों पर भी इस प्रकार पड़ा है कि धर्म परिवर्तन के बावजूद लोग अपनी जाति छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते हैं। समूचे विश्व में यह समस्या केवल भारतीय उपमहाद्वीप के देशों के बीच ही है और इसमें हिन्दू-मुसलमान सभी आते हैं परन्तु जब जाति का प्रयोग राजनीति में होने लगता है तो इससे लोकतन्त्र का वह उद्देश्य असफल हो जाता है जिसे राजनीतिक व सामाजिक बराबरी और स्वतन्त्रता कहा जाता है। समाज में यह बीमारी इस कदर व्याप्त है कि उन राजनीतिज्ञों को भी जातिगत दायरे में समेट देती है जो जीवनभर जातिवाद के विरुद्ध संघर्ष करते रहे। इस क्रम में सबसे बड़ा नाम स्व. चौधरी चरण सिंह का लिया जा सकता है जो आचार- विचार में पूरे आर्य समाजी थे और जातिवाद के घनघोर विरोधी थे मगर जातिवादी राजनीति के जंजाल ने उन्हें ‘जाट नेता’ बना कर रख दिया।

भारत विशेषकर उत्तर भारत की राजनीति में 1990 के बाद से जाति आधारित राजनीतिक दलों की बाढ़ सी आ गई। हालांकि दक्षिण भारत के तमिलनाडु में भी यह बीमारी अछूती नहीं रही है परन्तु उत्तर भारत के इन जातिवादी दलों ने राजनीति को इस प्रकार प्रभावित किया कि एक नागरिक मतदाता की पहचान जाति बनकर रह गई। जाति संख्या के बल के आधार पर राजनीति होने लगी और सरकारी फैसले भी इसके चश्मे से ही देखे जाने लगे। इसमें सबसे बड़ा नुक्सान समूचे समाज की सोच का हुआ जो कि बजाये आगे देखने के पीछे की ओर देखने लगी और जाति में गौरव की तलाश करने लगी। विभिन्न जातिगत समाज के राजनीतिक सम्मेलन होने लगे जिनमें खुलेआम किसी खास पार्टी के प्रत्याशी का समर्थन करने की बातें होने लगीं। मगर इस सन्दर्भ में हमें अनुसूचित जाति व जनजाति के समाज को अलग करके देखना होगा क्योंकि उनके साथ भारतीय समाज स्वतन्त्रता से पहले तक जानवरों जैसा व्यवहार करता था और इन्हें अस्पृश्य बताता था।

जन्मगत जाति के आधार पर फैले सामाजिक भेदभाव को दूर करने के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन के समानान्तर ही जबर्दस्त आन्दोलन चलाया और इन जातियों के लोगों को हरिजन नाम दिया जिससे समाज में उन्हें सम्मानजनक रूप में देखा जा सके। इसके साथ ही संविधान निर्माता डाॅ. भीमराव अम्बेडकर ने अनुसूचित जाति के लोगों को समान अधिकार दिलाने के लिए प्रबल अभियान छेड़ा और इन जातियों को राजनीतिक रूप से सबल बनाने के लिए पृथक चुनाव मंडल की मांग की जिस पर महात्मा गाधी ने घोर आपत्ति दर्ज की और हरिजनों को हिन्दू समाज का ही अंग माना और अपनी मांग के समर्थन में भूखहड़ताल तक की, जिसकी वजह से 1932 में महात्मा गांधी व डाॅ. अम्बेडकर के बीच पुणे समझौता हुआ जिसमें हरिजनों के लिए पृथक चुनाव मंडल के स्थान पर आरक्षण देने का प्रावधान था।

अतः स्वतन्त्रता प्राप्ति के साथ ही भारतीय संविधान में यह व्यवस्था की गई परन्तु वर्तमान भारत में अनुसूचित जाति के लोगों की समस्या मूल रूप से सर्वांगीण विकास की है जिसमें शिक्षा से लेकर सभी सामाजिक क्षेत्र आते हैं। इस वर्ग के लोगों की हालत आजादी के 78 वर्ष पूरे हो जाने के बावजूद दयनीय बनी हुई है। अतः इनके संगठनों को जातिगत दायरे से बाहर रखा जा सकता है। क्योंकि बाबा साहेब अम्बेडकर सीखा कर गये हैं कि शिक्षित बनो, संगठित रहो और आगे बढ़ो परन्तु हिन्दू समाज की अन्य जातियों पर यह सिद्धान्त लागू नहीं होता क्योंकि ये जातियां दलितों या हरिजनों पर जुल्म ढहाने वाली जातियां रही हैं। अतः इन जातियों के समूहगत प्रयास यदि राजनीति को प्रभावित करने के होते हैं तो उसे हम लोकतन्त्र के तहत मिले समान अधिकारों की अवमानना ही कहेंगे क्योंकि भारतीय संविधान के अनुसार कोई भी पार्टी चुनावों में धर्म, सम्प्रदाय या समुदाय को मुद्दा नहीं बना सकती परन्तु जातिगत आधार पर शोषण का उल्लेख कर सकती है और संविधान के अनुसार जातिविहीन समाज की संरचना का संकल्प दोहरा सकती है। अतः उत्तर प्रदेश की योगी सरकार का यह फैसला पूरी तह उचित है कि जातियों के राजनीतिक सम्मेलन नहीं हो सकते और कोई भी व्यक्ति जातिगत गौरव का भौंडा प्रदर्शन नहीं कर सकता।

ब्राह्मण सम्मेलन या क्षत्रिय सम्मेलन अथवा गुर्जर या जाट सम्मेलन के नाम पर जिस प्रकार की संकीर्ण राजनीति को बढ़ावा मिला उस पर अंकुश लगाया जाना प्रगतिशील समाज की जरूरत है। हालांकि केन्द्र सरकार जातिगत जनगणना कराने के लिए तैयार हो गई है। बेशक उत्तर प्रदेश सरकार का यह कदम विरोधाभासी लगता है मगर समाज में फैले जाति बोध को समाप्त करने के हक में है। राज्य सरकार ने यह फैसला इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस आदेश के आलोक में लिया है जिसमें कहा गया था कि राजनीतिक उद्देश्यों के लिए जाति आधारित रैलियां सार्वजनिक व्यवस्था बनाये रखने के विरुद्ध होती हैं और राष्ट्रीय एकता को भी इनसे खतरा पैदा होता है परन्तु एक खतरा यह भी है कि ऐसे प्रतिबन्धों से जातिगत भेदभाव को दूर करने की आवाजें निर्बल होती हैं। जबकि भारतीय संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और संगठन बनाने का अधिकार भी है। इसके साथ ही विरोधाभास यह भी कम नहीं है कि उत्तर प्रदेश में जितनी भी क्षेत्रीय पार्टियां भाजपा के गठबन्धन में हैं वे सभी जाति आधारित पार्टियां हैं। इनमें अपना दल, निषाद पार्टी व सुहेलदेव समाजवादी पार्टी के नाम लिये जा सकते हैं। इसके साथ ही विपक्ष ने राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना कराने की मांग की थी अतः विपक्षी दल उत्तर प्रदेश सरकार के फैसले को किस प्रकार लेंगे जबकि यह समाज के हित में उठाया गया कदम है।

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