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तारीख पे तारीख...

03:16 AM Nov 05, 2023 IST
तारीख पे तारीख

भारत के प्रधान न्यायाधीश वी.वाई. चन्द्रचूड़ ने वकीलों को फटकार लगाते हुए एक मशहूर हिन्दी फिल्म का संवाद दोहराते हुए कहा कि हम नहीं चाहते कि सुप्रीम कोर्ट ‘‘तारीख पे तारीख’’ अदालत बने। यह संवाद अदालतों में लम्बित होते मामलों पर अफसोस जताता है। शीर्ष अदालत की कार्रवाई शुरू होते ही चीफ जस्टिस ने वकीलों द्वारा नए मामलों में स्थगन की मांग का मुद्दा उठाया और कहा कि पिछले दो महीनों के अन्दर 3688 मामलों में स्थगन पर्ची दाखिल की गई है। उन्होंने बार से अपील की कि मामलों की बहुत जरूरत पड़ने पर ही स्थगन पर्ची दाखिल करें। केसों को लटकाने की यह प्रक्रिया अच्छी नहीं है इससे तो मामले को दाखिल करने से लेकर सूचीबद्ध करने तक की प्रक्रिया में तेजी लाने का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा।
हम सब आंखों पर पट्टी बांधे इंसाफ की उस देवी को देख रहे हैं कि किस सच्चाई के साथ अपने तराजू से अन्याय का पलड़ा भारी नहीं होने देती लेकिन न्याय क्षेत्र में कुछ गम्भीर और बुुनियादी सवाल अब भी बने हुए हैं जिन पर गौर करने की जरूरत है। समूची दुनिया में न्याय का एक प्राकृतिक सिद्धांत है कि सबूतों के अभाव में भले ही दस कसूरवार छूट जाएं लेकिन किसी बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिए ले​िकन सवाल यह भी है कि क्या भारत में न्याय मिलने में देरी होती है? अगर कोई व्यक्ति अदालत में याचिका दाखिल करता है और उसके निपटारे में ही वर्षों लग जाते हैं ताे हम नहीं कह सकते कि न्यायिक व्यवस्था सही तरीके से काम कर रही है। न्याय प्रणाली का काम तब सही होता है जब इंसान को जल्द से जल्द न्याय​ मिल सके। दुनिया के तमाम बड़े कानूनविदों का कहना है कि न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए बल्कि वह होते हुए दिखाई भी देना चाहिए। देरी से मिलने वाला न्याय एक आैर नए जुर्म की जमीन तैयार कर देता है। लोगों को जल्द न्याय उपलब्ध कराने के ​िलए निचली अदालतों से लेकर राज्य के हाईकोर्टों तक में सुधार की आवश्यकता है। इसके अलावा न्याय पाना काफी महंगा हो चुका है। कौन नहीं जानता कि निचली अदालतों में कामकाज कैसे होता है। न्याय बहुत महंगा हो जाने से समाज आैर कानून के समग्र शासन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। अगर बारीकी से नजर डाली जाए तो परेशान करने वाली हकीकत सामने आती है।
राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड के अनुसार, दिसंबर 2022 तक पूरे भारत में सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालयों और अधीनस्थ न्यायालयों में लगभग 5 करोड़ मामले लंबित थे। ये संख्याएं बढ़ती जा रही हैं। लम्बित केसों को कम करने के लिए संघर्ष कर रही प्रणाली की एक तस्वीर पेश करती है। भारत में मामलों के निपटारे में लगने वाला औसत समय चिंता का कारण है। डेटा बताता है कि सुप्रीम कोर्ट में एक सिविल मामले को निष्कर्ष तक पहुंचने में औसतन 15 साल लगते हैं, जबकि आपराधिक मामलों में लगभग आठ साल लग सकते हैं। कुछ मामलों में देरी कई दशकों तक बढ़ सकती है जिससे वादियों और पीड़ितों को लंबे समय तक अनिश्चितता की स्थिति में रहना पड़ता है। न्याय में देरी के दुष्परिणाम बहुत बड़े हैं। इससे कानूनी प्रणाली में विश्वास की हानि होती है, क्योंकि वे खुद को न्याय की प्रतीक्षा के कभी न खत्म होने वाले चक्र में फंसा हुआ पाते हैं। लंबी कानूनी लड़ाई उनके वित्तीय संसाधनों को खत्म कर देती है, मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है और सामाजिक-आर्थिक प्रगति में बाधा उत्पन्न करती है।
न्याय में देरी से जहां दोषी वर्षों तक सजा से बच सकता है जिससे अपराध की समस्या बढ़ जाती है और निवारण कमजोर हो जाता है। इसका परिणाम यह भी होता है कि जेलों में भीड़भाड़ हो जाती है क्योंकि विचाराधीन कैदी जेलों में वर्षों तक सड़ते रहते हैं। हजारों कैदी जेलों में पड़े हुए हैं क्योंकि वो अपने लिए जमानत का प्रबंध नहीं कर सकते। गरीब आम इंसान न्यायिक प्रक्रिया के आगे असहाय है। जबकि पैसे वाले और साधन सम्पन्न लोग तुरंत जमानत लेकर बाहर आ जाते हैं। बरसों पहले मशहूर ​हिन्दी लेखक मुंशी प्रेमचंद ने लिखा था ‘‘न्याय वह है जो कि दूध का दूध और पानी का पानी कर दे। यह नहीं कि खुद ही कागजों के धोखे में आ जाए, खुद ही पाखंडियों के जाल में फंस जाए।’’ आज न्यायिक प्रक्रिया कागजों के जाल में फंस गई है। गरीब आदमी को इंसाफ मिलना तो दूर की बात है, अगर वह अदालत की चौखट पर पहुंच जाए तो यह भी बहुत बड़ी बात है। न्याय इतना महंगा हो चुका है जिसकी हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी। लम्बित मुकद्दमों केे निपटारे के लिए ज्यादा जजों की जरूरत है। अगर कोई जनहित या​िचका दाखिल करता है तो कोर्ट कोई न कोई एसआईटी गठित करता है, फिर कई एजैंसियां काम करती हैं। ऐसे में इस तरह के सिस्टम पर विचार करने की जरूरत है।
भारत में न्याय में देरी का मुद्दा तत्काल ध्यान देने और प्रभावी समाधान की मांग करता है। न्यायिक प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करने, लंबित मामलों को कम करने और कानूनी प्रणाली की दक्षता बढ़ाने के लिए त्वरित सुधार आवश्यक हैं। बुनियादी ढांचे में निवेश बढ़ाना, अधिक न्यायाधीशों की भर्ती और मामले प्रबंधन के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग संभावित उपाय हैं। एक तेज़ और कुशल न्याय प्रणाली न केवल प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार है बल्कि एक संपन्न लोकतंत्र की आधारशिला भी है। न्याय में देरी की समस्या का समाधान जनता के विश्वास को बहाल करने, मानवाधिकारों की रक्षा करने और भारत में कानून का शासन सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है।
इंसाफ दिलाने में तेजी लाने के लिए कार्यपालिका को भी ठोस कदम उठाने चाहिए जो अक्सर न्यायपालिका के निशाने पर रहती है। निचली अदालतों से लेकर ऊपरी अदालतों तक वकीलों काे भी मामले लटकाने की प्रकृति से बचना होगा।

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Aditya Chopra

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