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तारीख पे तारीख....

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08:09 AM Oct 01, 2018 IST | Desk Team

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भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद संभालने को तैयार जस्टिस रंजन गोगोई ने अदालतों में लम्बित मुकद्दमों पर गहरी चिन्ता जताते हुए कहा है कि वर्षों से लम्बित पड़े मुकद्दमों से न्याय की प्रासंगिकता ही खत्म हो जाती है। न्यायपालिका में सुधार को लेकर उनकी चिन्ता वाजिब है। मुझे याद है कि इलाहाबाद हाईकाेर्ट के 150वें स्थापना वर्ष पर आयोजित समारोह में तत्कालीन सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर ने भी न्यायालयों में लम्बित मुकद्दमों पर अपनी गहरी चिन्ता जाहिर की थी। समय-समय पर न्यायाधीशों द्वारा ऐसे वक्तव्य आते रहे हैं। वास्तव में भारत के न्यायिक सुधार की बातें केवल बहसों तक सीमित होकर रह गई हैं जबकि इस दिशा में पूरी इच्छाशक्ति से काम करने की जरूरत है। हालांकि न्यायिक सुधार की जिम्मेदारी केवल न्यायाधीशों, अधिवक्ताओं आैर सरकार पर निर्भर है, लेकिन आम जनता को भी इस दिशा में विचार करने की जरूरत है। अदालतों में लम्बित मुकद्दमों की सुनवाई मात्र ही इस समस्या का समाधान नहीं है। एक ​प्रसिद्ध फिल्म का संवाद ‘तारीख पे तारीख, तारीख पे तारीख’ न जाने लोग कितनी बार दोहराते हैं लेकिन समाधान कुछ भी नहीं।

पुराने और अप्रासंगिक हो चुके कानूनों में संशोधन, अदालतों को अत्याधुनिक तकनीकों से लैस करने और सुर​िक्षत न्यायिक परिसर बनाने पर भी विचार करना होगा। न्यायपालिका में व्याप्त खामियों की वजह से कई समस्याएं पैदा हुई हैं। न्यायपालिका को देश की बाकी संस्थाओं से अलग नहीं माना जाना चाहिए। जो समस्याएं समाज में हैं, लगभग वही न्यायपालिका में भी हैं। अमेरीकी विचारक अलेक्जेंडर हैमिल्टन ने कहा था-‘‘न्यायपालिका राज्य का सबसे कमजोर तंत्र होता है, क्योंकि उसके पास न तो धन है और न ही हथियार। धन के लिए न्यायपालिका को सरकार पर आश्रित रहना पड़ता है और अपने दिए गए फैसलों को लागू करने के लिए उसे कार्यपालिका पर ही निर्भर रहना पड़ता है। देशभर में अदालतों में तीन करोड़ से ज्यादा मुकद्दमे लंबित हैं और सरकार सबसे बड़ी मुकद्दमेबाज है। सरकारी मुकद्दमों का त्वरित निपटारा, मुकद्दमों की निगरानी की एकीकृत व्यवस्था आैर महत्वपूर्ण मुकद्दमों को खास तवज्जो सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। भारत की अदालतों में 6 हजार से अधिक जजों की कमी है। इनमें से 5 हजार जजों की कमी तो निचली अदालतों में है। खुद कानून मंत्रालय द्वारा जारी डाटा के मुताबिक देश में दस लाख की आबादी पर सिर्फ 19 जज हैं।

निचली अदालतों में 22,474 स्वीकृत पद हैं, जबकि इनमें 16,726 जज काम कर रहे हैं। हाईकोर्टों में 1079 पदों की तुलना में 673 जज हैं। सुप्रीम कोर्ट में 31 में से 6 पद खाली हैं। विधि आयोग ने भी पाया था कि प्रति व्यक्ति दायर केसों की भरमार से न्यायपालिका कराह रही है। लोग भी अब पहले से अधिक न्यायपालिका का द्वार खटखटाने लगे हैं। छोटी-छोटी समस्याओं, जिनका संबंध स्थानीय निकाय प्रशासन से होता है, को लेकर भी लोग अदालतों का दरवाजा खटखटाने लगे हैं। बड़े-बड़े मुद्दे तो अदालतों में चल ही रहे हैं। आप किसी अदालत में चले जाएं तो आपको लगेगा जैसे किसी अस्पताल में आ गए हैं। 2004 में भी भारत के तब के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस आर.सी. लोहाटी ने लम्बित मुकद्दमों के लिए जजों की कमी को जिम्मेदार बताया था। अब 2018 आ चुका है। जजों की इतनी कमी है कि एक जज को एक केस पर नज़र डालने के लिए 25 मिनट से ज्यादा नहीं मिलते। लोगों को हर जगह लाइनों में ही खड़े रहना पड़ता है। अस्पताल में लाइन, डाक्टर के पास लाइन, अदालतों में लाइन। कई बार तो ऐसे महसूस होता है कि देश को न्यायपालिका ही चला रही है।

यद्यपि ऊंची अदालतों में अब डि​जीटल तकनीकों का सहारा लिया जा रहा है लेकिन निचली अदालतों में तो बुरा हाल है। बिना पैसे के कोई काम ही नहीं होता। आज भी ब्रिटिश परम्परा के अनुसार अनेक न्यायाधीश ग​िर्मयों में छुट्टियों पर चले जाते हैं। कुछ वर्षों से लोगों के मन में यह भ्रम भी पैठ कर गया है कि न्यायपालिका से डंडा चलवा कर विधायिका और कार्यपालिका से छोटे से छोटा काम भी कराया जा सकता है। इस कारण अदालतों में जनहित याचिकाएं बढ़ रही हैं, जो न्यायालय के बुनियादी कामों काे प्रभावित कर रही हैं जबकि प्रदूषण, यातायात, पर्यावरण और पानी जैसे मुद्दों पर अदालत के दखल के बावजूद इन क्षेत्रों में बेहतर स्थिति नहीं बनी है। जब-जब कार्यपालिका लोगों को बुनियादी हक देने में विफल होती है तो न्यायपालिका का हस्तक्षेप बढ़ जाता है। मुकद्दमों के लम्बा ​​खिंचने की एक वजह अदालतों की कार्यशैली भी है।

यह प्रवृत्ति वकीलों में भी देखने में आती है। हालांकि वकील अपने कनिष्ठ वकील से अक्सर इस कमी की वैकल्पिक पूर्ति कर लेते हैं। वकील अपने केसों का ठीक से अध्ययन भी नहीं कर पाते और कोई न कोई बहाना ढूंढ कर तारीख आगे बढ़वा लेते हैं। देरी से मिला न्याय भी अन्याय के समान है। आवश्यकता इस बात की है कि न्यायपालिका में जजों की नियुक्तियां कर कमी को दूर किया जाए ताकि लोगों को न्याय से दूर नहीं रखा जा सके।

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