लोकतन्त्र में बहस के मुद्दे !
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लोकतन्त्र की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि यह किसी भी राज्य या देश में विभिन्न मत-मतान्तरों या भाषा-भाषी अथवा क्षेत्रीय पहचान की विविधता में रहने वाले लोगों को उनके उन मूल मुद्दों पर लाकर जोड़ देता है जिनका सम्बन्ध प्रत्यक्ष रूप से जीवन मूलक व नागरिक अधिकार मूलक प्रश्नों से होता है। इन मुद्दों में इतनी शक्ति और अन्तर्प्रवाहित वेग होता है कि वे किसी भी नागरिक की ऊपरी पहचान के भेदभाव से भरे नजरिये को नष्ट करते हुए उसकी सत्ता में बराबर की एक समान भागीदारी को सम्मान देते हुए हर प्रकार के अंतर को पाटने की क्षमता रखते हैं। अतः यह बेवजह नहीं है कि भारत जैसे विशाल देश में तमिलनाडु के किसी नागरिक और उत्तर प्रदेश के किसी नागरिक की पहचान अलग होने के बावजूद दोनों की जीवन मूलक प्रश्नों को लेकर चिन्ताएं लगभग एक समान हैं।
इन चिन्ताओं का सीधा सम्बन्ध आर्थिक व सामाजिक स्थिति से होता है जिनकी निर्भरता स्वास्थ्य व शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं पर टिकी होती है। लोकतन्त्र की परिपक्वता इस तथ्य पर निर्भर करती है कि आम मतदाता को इन मानकों के ऊपर-नीचे होने से कितना फर्क पड़ता है और उसका राजनीतिक नजरिया क्या स्वरूप लेता है अथवा उसमें बदलाव किस तरह आता है। राजनीतिक रूप से लोकतन्त्र के आकलन करने के इस विचार को गांधीवादी दर्शन के आइने में देखा जाता है जिसमें किसी भी व्यक्ति के धर्म या मजहब का कोई लेना-देना नहीं होता। किसी भी देश की मजबूती के लिए भी यह पैमाना ही कारगर माना जाता है क्योंकि देश तभी मजबूत होगा जब इसके लोग मजबूत होंगे और सामर्थ्यवान और वैज्ञानिक दृष्टि से सोचने वाले होंगे। इसके विपरीत लोकतन्त्र के भीतर ही वे प्रवृत्तियां भी जमकर पनपती हैं जो लोगों को आपस में लड़ाने के उपाय ढूंढती हैं।
इनका आधार किसी भी देश की विविधता के बीच पोषित हो रही भिन्नता होती है। इसे अपनी पहचान की अलग विशिष्टता की अस्मिता से जोड़कर राजनीति के खिलाड़ी सामाजिक स्तर पर विभाजन की रूपरेखा बनाने में लगे रहते हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण 1947 में भारत से काट कर पाकिस्तान का अलग निर्माण करना था। जाहिर है कि इससे पहले अंग्रेजों के शासन में रह रहे सभी हिन्दू-मुसलमान नागरिकों की मूल चिन्ताएं एक समान थीं और सभी अंग्रेजों के शासन से मुक्ति भी पाना चाहते थे। इसके बावजूद मुहम्मद अली जिन्ना भारत को बांटने में इसलिए सफल हो गया कि उसने समाज के एक वर्ग की मूल चिन्ताओं की वरीयता बदल डाली। इसने पूरे भारत को भीतर से कमजोर कर डाला और नए बने पाकिस्तान में लोकतन्त्र का गला घोंट डाला क्योंकि उस देश का निर्माण ही लोकतन्त्र की मूल मान्यता के विरुद्ध हुआ था। यही वजह है कि इस देश में आज भी यहां के नागरिकों के मूल मुद्दों को सत्ता एक समान नहीं होने देना चाहती और उन्हें मजहब व वर्ग के आधार पर (शिया, सुन्नी, अहमदिया, बोहरा आदि में) बांटे रखकर वैज्ञानिक सोच व आर्थिक विकास से परे रखने के उपाय ढूंढती रहती है जबकि इस देश की सांस्कृतिक विरासत वही है जो भारत की है।
यह वृतान्त लिखने का उद्देश्य यह है कि अगले महीने भारत के पांच राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ व मिजोरम में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं परन्तु बात एेसे मुद्दों की जमकर हो रही है जिनका किसी भी औसत भारतीय के जीवन से कोई विशेष लेना-देना नहीं है। हम किसी भी राज्य के कृषि क्षेत्र में व्याप्त विपन्नता और बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के दौरान इस क्षेत्र के साथ हुई लापरवाही और अन्याय से उत्पन्न समस्याओं के प्रति विचार करने से डर रहे हैं। हम शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त घनघोर असमानता पर बहस करने से बचना चाहते हैं जबकि आम हिन्दोस्तानी को समर्थ और गुणवान व विकसित बनाने की यह पहली शर्त है जिसे प्रख्यात समाजवादी चिन्तक जननेता डा. राम मनोहर लोहिया ने आजादी मिलने के बाद जनघोष बनाते हुए कहा था कि ‘‘राष्ट्रपति का बेटा हो या चपरासी की हो सन्तान, टाटा या बिड़ला का छौना सबकी शिक्षा एक समान।’’ हमने शिक्षा के अधिकार का कानून तो बना दिया मगर अमीर व गरीब के बच्चों के लिए स्कूलों को भी अलग-अलग करके उनमें शुरू से ही असमानता को स्थापित कर दिया। शिक्षा के बदहवास निजीकरण ने गरीब आदमी से अच्छी शिक्षा का अधिकार ही छीन लिया।
यही हालत स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में है। किसी भी स्तर पर यह बहस नहीं हो रही है कि आयुुष्मान भारत स्वास्थ्य परियोजना से गरीब आदमी को किस तरह फायदा हो सकता है जबकि इसके कार्यान्वयन में निजी क्षेत्र की ही प्रमुख भूमिका रहने वाली है। हमने फसल बीमा योजना का हश्र देखा है कि किस तरह किसानों को बीमा कम्पनियों ने दो रुपए से लेकर 15 रुपए तक के मुआवजा राशि चैक थमाए। पूरा देश बहस मेें उलझा हुआ है कि सबरीमला मन्दिर में स्त्रियां क्यों न जाएं? किसी पुराने शहर या स्थान के एेतिहासिक नाम को क्यों न बदला जाए? हम यह बहस नहीं करना चाहते कि दुनिया के सबसे युवा देश भारत की जवानी के सुन्दर और सुरक्षित भविष्य के लिए कौन से कारगर कदम उठाये जाएं जिससे वह बारोजगार होकर देश की उत्पादनशीलता में वृद्धि करें।