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आदमखोर भीड़तंत्र में बदलता जनतंत्र

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12:11 AM Jun 11, 2018 IST | Desk Team

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विश्व बंधुत्व और अहिंसा परमोधर्मः की शिक्षा देने वाले भारत में भीड़ द्वारा लोगों को पकड़कर मार डालने की घटनाएं परेशान करने वाली हैं। कभी गौमांस खाने के तथाकथित आरोपी को मार डाला जाता है, कभी किसी की गायों को वधशाला ले जाने के संदेह में पीट-पीटकर हत्या कर दी जाती है, कभी छोटी-मोटी चोरी करने वाले को मारा जाता है तो कभी बच्चा चोरी के संदेह में लोगों की हत्याएं की जाती हैं। ऐसी घटनाएं उत्तर प्रदेश, झारखंड, असम, महाराष्ट्र, गुजरात और अन्य कई राज्यों में हुई हैं। ताजा घटना असम के कार्बी आंग्लोंग जिले में हुई जहां भीड़ ने बच्चा चोरी के संदेह में पेशे से साउंड इंजीनियर नीलोत्पल दास और गुवाहाटी के ही व्यवसायी अभिजीत की पीट-पीटकर हत्या कर दी। दोनों युवक सजावटी मछलियां पकड़ने के इरादे से आए थे। असम में बच्चे चुराने के मामले में पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर अफवाहें फैलाई जा रही हैं। रात करीब 8 बजे दोनों युवक वापस लौट रहे थे तो एक गांव के पास ग्रामीणों ने उन्हें रोका।

दोनों युवक गुहार लगाते रहे ‘‘हमें मत मारो, हम असमिया हैं’’ लेकिन कौन सुनने वाला था। जिस इलाके में यह घटना हुई वह आदिवासी बहुल इलाका है। जनतंत्र में भीड़तंत्र द्वारा हत्याएं करना निन्दनीय है लेकिन सोपा धोरा यानी चाइल्ड लिफ्टर्स के बारे में अफवाहें कौन फैला रहा है, इस सम्बन्ध में अब तक कोई कार्रवाई देखने को नहीं मिल रही। हालांकि राज्य सरकार इस तरह की अफवाह पर ध्यान न देने की अपील बार-बार लोगों से कर रही है लेकिन लोग मानने को तैयार नहीं हैं। भीड़ द्वारा हत्याएं अनुचित आैर आपराधिक कृत्य है। भीड़ कभी भी आरोपी को पक्ष बताने का अवसर ही नहीं देती और भीड़ में सभी लोग अतार्किक तरीके से हिंसा करते हैं। ऐसे कृत्य से कानून, विधि की उचित प्रक्रिया व प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन होता है। संविधान में जीवन के अधिकार को मूल अधिकार की श्रेणी में रखा गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार ​किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।

भीड़ द्वारा हमला और हत्या को व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन के मौलिक अधिकार पर वीभत्स हमले के रूप में देखा जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति ने कोई अपराध किया है तो उसे सजा देने का हक कानून को है, न कि जनता उसको तय करेगी। महात्मा गांधी ने भी कहा था कि ‘‘साध्य की पवित्रता के साथ-साथ साधन की पवित्रता भी बहुत जरूरी है।’’ अपराधी को स्वयं सजा देना कानूनी तौर पर तो गलत है ही, नैतिक तौर पर भी अनुचित है मगर देश में भीड़तंत्र निर्दोषों को ही पीट-पीटकर मार डालने लगे तो यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि समाज ही अराजक हो उठा है। बहुभाषीय आैर बहुसांस्कृतिक भारतीयों को एक धागे में पिराेने के कई कारण हैं। उपनिवेशवाद के विरुद्ध लम्बे संघर्ष की साझी स्मृतियां, चुनावों को उत्सव की तरह मनाने का भाव, क्रिकेट के लिए प्यार, बॉलीवुड के लिए पागलपन, यह कुछ ऐसे लक्षण हैं जो कमोबेश सभी भारतीयों में पाए जाते हैं। फिर भी वह संविधान और संविधान प्रदत्त मूल अधिकार हैं जो विविधताओं से भरे भारत में एकता का सूत्रपात करते हैं।

नागरिक के मौलिक अधिकारों की रक्षा सर्वोच्च कानून करता है लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि कानून का शासन बचा ही नहीं है। हम अपनी सभ्यता पर चाहे कितना गर्व कर लें, अपनी उपलब्धियों पर चाहे कितना इठला लें, यह एक कड़वा सच है कि हमारा समाज बेहद हिंसक आैर बर्बर होता जा रहा है। कहीं गाय के नाम पर, कहीं धर्म के नाम पर, कहीं बेईमानी आैर शक-ओ-सुबहा से ग्रस्त भीड़ हत्या पर उतारू होने लगी है। दरअसल यह हत्यारी मानसिकता को जो शह मिल रही है उसके पीछे एक घृणा और असहिष्णुता आधारित राजनीतिक सोच है। यह हमारी प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्था के चरमराने का संकेत है। नृशंस हत्यारों और उनके समर्थकों में पछताने का कोई भाव ही नहीं है। जो कुछ हो रहा है, उसे महज आपराधिक कृत्य मानकर सामान्य कानूनों के तहत कार्रवाई करना शायद ही कोई बदलाव ला पाए। अतः इन्हें मौलिक अधिकारों का उल्लंघन मानकर देश के सर्वोच्च कानूनों के तहत कार्रवाई करनी होगी। भीड़तंत्र का अपराध में शामिल होना, उसे जायज ठहराना या फिर खामोशी से देखकर अागे बढ़ जाना हिंसा को बढ़ावा देना है। यदि इस प्रवृत्ति को तुरन्त रोका नहीं गया तो यह देेश तबाह हो जाएगा। ऐसे हत्याकांड देश पर आत्मघाती हमला हैं। भारत का जनतंत्र आदमखोर भीड़तंत्र में परीवर्तित हो रहा है। इसे रोकना होगा आैर इसके लिए हम सभी को पहल करनी होगी।

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