इस कथा के बिना अधूरा है देवउठनी एकादशी व्रत, पढ़ने से मिलेगा श्री हरी विष्णु का आशीर्वाद
Dev Uthani Ekadashi Vrat Katha: हर साल कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवउठनी एकादशी मनाई जाती है, जिसे प्रबोधिनी एकादशी भी कहते हैं। हिन्दू धर्म में ये तिथि अत्यंत शुभ और पुण्यदायी मानी जाती है। मान्यता है कि इस दिन भगवान विष्णु चार महीने की योग निद्रा के जागते हैं और दोबारा से सृष्टि का संचालन शुरू करते हैं। इस दिन से सभी शुभ कार्यों की भी शुरुआत हो जाती है।
इस दिन व्रत रखने से साधक के पूर्व और वर्तमान जन्म के सारे पाप दूर हो जाते हैं। इस दिन जो भी साधक भगवान विष्णु की विधि-विधान से पूजा करता है, उसके घर में सुख-समृद्धि आती है और सारे दुःख दूर हो जाते हैं। एकदशी व्रत में कथा के पाठ का भी महत्व है। आइए जानते हैं देवउठनी एकदशी व्रत कथा, जिसका पाठ करने से भगवान विष्णु का आशीर्वाद मिलता है।
Dev Uthani Ekadashi Vrat Katha: पढ़ें श्री हरी विष्णु की कृपा बरसाने वाली कथा
पौराणिक कथा के अनुसार, एक समय की बात है। एक राज्य में बहुत धर्मनिष्ठ और न्यायप्रिय राजा हुआ करता था, राज्य के लोग भी बहुत धार्मिक और श्रद्धावान थे। वह लोग महीने में दो बार आने वाली एकादशी का व्रत करते थे और उस दिन पूरे राज्य में कोई भी अन्न ग्रहण नहीं करता था। फिर चाहे वह मनुष्य हो या पशु-पक्षी, सभी इस उपवास का पालन करते थे। इसी राज्य में एक बार दूसरे नगर से एक व्यक्ति नौकरी की तलाश में आया।
जब वह राजा के दरबार में पंहुचा, तो उसने राजा से नौकरी के लिए कहा। राजा ने उससे कहा कि नौकरी तो मिल जाएगी लेकिन हमारे राज्य में एक नियम है कि एकदशी के दिन कोई भी अन्न ग्रहण नहीं करता। सभी इस दिन व्रत रखते हैं और फलाहार करते हैं। व्यक्ति ने राजा के इस नियम को स्वीकार कर लिया। कुछ समय बाद एकादशी आई, पूरे राज्य में उपवास का वातावरण था। उस व्यक्ति को भी अन्न नहीं दिया गया, केवल फलाहार ही प्रदान किए। लेकिन उस व्यक्ति को फलाहार से तृप्ति नहीं मिली। जब उसकी भूख बढ़ने लगी, तो उसने राजा से कहा कि "मुझे कुछ खाने को दें, वरना मेरे प्राण चले जाएंगे।"
राजा ने उसे थोड़ी देर समझाया, लेकिन वह लगातार अन्न की मांग करता रहा। अंत में राजा को दया आ गई और उन्होंने उस व्यक्ति को दाल, चावल, आटा, नमक आदि चीजें दे दी। व्यक्ति ख़ुशी से नदी किनारे चल गया, वहां उसने स्नान किया। इसके बाद भोजन बनाने लगा। जब भोजन तैयार हुआ तो उसने एक आसन लगाया और भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए कहा "हे प्रभु! भोजन तैयार है। पहले आप ग्रहण करें, उसके बाद में खाऊंगा।"
उस व्यक्ति की सच्ची भक्ति देख भगवान विष्णु प्रकट हुए और उन्होंने भोजन ग्रहण किया। इसके बाद प्रभु अपने धाम को लौट गए और वह व्यक्ति भी अपने काम में लग गया। अगले बार जब एकदशी आई, तो वह फिर राजा के पास गया और ज्यादा अन्न देने की मांग करने लगा।
राजा ये सुनकर आश्चर्यचकित हो गए, उन्होंने पूछा- दोगुना अन्न क्यों? व्यक्ति ने सरलता से उत्तर दिया "पिछले बार भगवान विष्णु स्वयं भोजन करने आए थे। आधा अन्न उन्होंने खाया और आधा मैंने। इसलिए पेट पूरा नहीं भर पाया।" राजा यह सुनकर हैरान हो गए, उन्होंने मन ही मन सोचा कि में तो बरसों से एकादशी का व्रत करता हूं, फिर भी मुझे भगवान के दर्शन नहीं हुए। यह व्यक्ति कहता है कि उसके बुलाने पर भगवान भोजन करने आ गए।"
राजा ने इस बात की सच्चाई जानने का निश्चय किया। अगली एकदशी पर वह छिपकर नदी किनारे पहुंच गया। व्यक्ति ने पिछले बार की तरह फिर से नदी किनारे स्नान किया और भोजन तैयार किया। इसके बाद हाथ जोड़कर भगवान को बुलाया, परंतु उस दिन भगवान प्रकट नहीं हुए। उसने बार-बार प्रार्थना की, पर कोई चिन्ह नहीं दिखा।
आखिर में उसने भगवान से कहा कि "यदि आप नहीं आए, तो में अपने प्राण त्याग दूंगा। वह जैसे ही नदी में कूदने को था, उसी समय भगवान विष्णु प्रकट हो गए। भगवान से उससे कहा कि "वत्स, तुम्हारी सच्ची भक्ति ने मुझे बांध लिया है।" पिछले बार की तरह भगवान ने फिर से उस व्यक्ति के साथ भोजन किया, इसके बाद बैकुंठ धाम को चले गए।
ये सब देखकर राजा की आंखे खुल गई। उसे समझ आया कि व्रत का मूल्य सिर्फ बाहरी आडंबर में नहीं है, बल्कि सच्ची भावना, शुद्ध मन और भक्ति में है। सिर्फ व्रत करने वाले को ही फल नहीं मिलता, बल्कि वह फल उसे मिलता है जो सच्चे तन-मन, प्रेम और समर्पण से भगवान को याद करता है। उस दिन से राजा ने व्रत और पूजा-पाठ को केवल रीती-रिवाज के रूप में नहीं बल्कि सच्चे मन और श्रद्धा से करना शुरू कर दिया। अंत में जब उसे व्रत का असली मतलब समझ आ गया, तो उसपर भी भगवान विष्णु की कृपा हुई और उसे मोक्ष की प्राप्ति हो गई।
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