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दीपावली व आर्थिक विचारधारा

आज दीपावली है अर्थात दीपोत्सव। पारंपरिक रूप से इसे अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का पर्व भी कहा जाता है। वास्तव में यह राष्ट्रीय पर्व है जिसका भारत की सामाजिक बनावट से गहरा नाता है

02:50 AM Oct 24, 2022 IST | Aditya Chopra

आज दीपावली है अर्थात दीपोत्सव। पारंपरिक रूप से इसे अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का पर्व भी कहा जाता है। वास्तव में यह राष्ट्रीय पर्व है जिसका भारत की सामाजिक बनावट से गहरा नाता है

आज दीपावली है अर्थात दीपोत्सव। पारंपरिक रूप से इसे अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का पर्व भी कहा जाता है। वास्तव में यह राष्ट्रीय पर्व है जिसका भारत की सामाजिक बनावट से गहरा नाता है। यह आर्थिक दृष्टि से इसलिए महत्वपूर्ण त्यौहार नहीं है कि इस दिन व्यापारी समुदाय के लोग अपने नये बहीखातों की शुरूआत करते हैं बल्कि भार की आधारभूत अर्थव्यवस्था में सामान्य व्यक्ति की भागीदारी का यह सूचक है। भारत में दन्त कथाओं के माध्यम से गूढ़ विषयों को सरल रूप से प्रस्तुत करने की लम्बी परंपरा रही है। धार्मिक प्रतीकों के माध्यम से इन दन्त कथाओं में भौतिक जीवन को सुगम व निष्पाप और समाज के उत्थान व प्रगति के प्रति जवाबदेह बनाने का सन्देश भी इन्हीं कथाओं में बिखरा पड़ा है। देवी लक्ष्मी को धन-धान्य, सम्पत्ति व एश्वर्य की आराध्या के रूप में जिस प्रकार हिन्दू संस्कृति में इसकी पूजा पद्धति का वर्णन मिलता है और इसके समानान्तर ही इस अवसर पर पूजा विधान में दन्त कथा के वाचन की व्यवस्था बन्धी हुई है, उससे स्पष्ट है कि वास्तविक भौतिक जीवन की सच्चाई व्यक्ति के सद कर्मों से ही बंधी हुई है और लक्ष्मी की कृपा का मार्ग है। दीपावली पूजन के समय यह कथा प्रत्येक घर में सुनी-सुनाई जाती है।
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दीपावली की कथा भी एक गरीब परिवार के सम्पन्न होने की कथा है जो कि इस परिवार की पुत्रवधू के बुद्धि चातुर्य और परिवार को नियमों से बांधने पर प्राप्त होती है। परिवार की नारी को ‘गृह लक्ष्मी’ कहने की रीति पड़ जाने की यह व्याख्या है जिससे यही सन्देश मिलता है कि भारतीय समाज में नारी की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण रही है। अतः पाश्चात्य संस्कृति के नारी स्वतन्त्रता के आन्दोलन से बहुत पहले से ही भारत के परिवारों में नारी केन्द्रीय भूमिका में रही है और वह अर्थव्यवस्था को गति देने मे परोक्ष भूमिका निभाती रही है। अतः दीपावली वास्तव में नारी शक्ति और उसकी बुद्धिमत्ता की परिचायक है क्योंकि कथा के अनुसार गरीब ब्राह्मण के आलसी और व्यसनी परिवार को पुत्रवधू ने कुछ नियम बनाकर कर्मशील बनाया जिससे कर्म करने का मार्ग उजागर हुआ और ब्राह्मण की गरीबी समाप्त हुई। परन्तु वर्तमान भारत में आज हमें आत्म विश्लेषण करने की जरूरत है और भारत की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के प्रति यथार्थवादी होने की आवश्यकता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि आजादी के 75 सालों के दौरान हमने कई पड़ाव पार किये हैं और आम भारतीयों के जीवन को सुगम व सरल बनाया है। इस कार्य में 1947 के बाद से अभी तक निरन्तर ही सभी सरकारों का योगदान रहा है। दूसरी तरफ लगभग दो प्रतिशत की दर से बढ़ती आबादी की दैनन्दिन की जरूरतों की भरपाई के लिए कृषि क्षेत्र से लेकर उपभोक्ता उत्पादन के क्षेत्र की प्रगति का भी जायजा लेना होगा। इन क्षेत्रों में हमारे आत्मनिर्भर होने का एक ही अर्थ है कि आम भारतीय कर्मशील और उद्यमी हैं। यह हमारे लिए गौरव की बात है कि हम आज विश्व की पांचवीं अर्थव्यवस्था है, मगर इसके साथ यह भी परम सत्य है कि ईसा पूर्व की ज्ञात सदियों से लेकर 18वीं सदी तक भारत विश्व की प्रथम अर्थव्यवस्था रहा। भारत पर मुस्लिम आक्रमणों के पीछे इसकी मजबूत अर्थव्यवस्था ही प्रमुख कारण रहा होगा।
1756 में पलाशी के युद्ध के समय विश्व व्यापार में भारत का हिस्सा 24 प्रतिशत था जबकि इससे पहले पुर्तगाली व फ्रांसीसी भारत की ओर इसकी मजबूत अर्थव्यवस्था की वजह से ही रुख कर चुके थे। पलाशी के युद्ध में ईस्ट इंडिया कम्पनी के लार्ड क्लाइव ने बंगाल के युवा नवाब सिरोजुद्दौला को उसके ही सेनापति मीर जाफर की गद्दारी की वजह से छल व कपट से हराया था। अतः आसानी से सोचा जा सकता है कि दीपावली पर लक्ष्मी पूजन करने वाले लोग आर्थिक रूप से कितने कर्मठ थे और इसका श्रमिक वर्ग अपने विभिन्न फनों में कितना माहिर था। वर्तमान समय में फन का स्वरूप बदल गया है, उसने कम्प्यूटर साफ्टवेयर व इंटरनेट एेप की शक्ल ले ली है। परन्तु पारंपरिक टेक्सटाइल्स फनकारी में भी इसके गांवों में प्रतिभा आज भी बिखरी पड़ी है। पंजाब का रामगढि़या समाज जन्मजात इंजीनियरिंग विधा में पारंगत होता है। इसी प्रकार पूर्व से पश्चिम व दक्षिण भारत में विभिन्न समूहों के लोग जाति आधारित काम-धंधों के माहिर हैं जिनमें आधुनिक चुनौतियों का सामना करने की क्षमता है। अर्थव्यवस्था के नियामकों का भारत की लोक संस्कृति में किस प्रकार वर्णन किया गया है, उसकी बानगी देखिये। 
पूरब का घोड़ा, पश्चिम का चीर
             दक्षिण का वर्धा, उत्तर का नीर 
यह इसी बात का प्रमाण है कि भारत के लोगों की अर्थव्यवस्था एेतिहासिक काल से ही वैश्विक मानकों से जुड़ी रही है और इसी के अनुरूप उसकी आर्थिक नीतियां रही हैं। बदलते समय में इनमें जो अन्तर आया है उसके अनुरूप स्वयं को बदलने की क्षमता भारतीयों में है जिसकी वजह से हमें निराश होने की जरूरत नहीं है। बेरोजगारी वास्तव में विकट समस्या वर्तमान में है जिसकी तरफ हमें विशेष ध्यान देने की जरूरत है। 
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