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शिक्षण संस्थाओं में ड्रैस कोड का मामला

03:49 AM Aug 11, 2024 IST | Aditya Chopra
शिक्षण संस्थाओं में ड्रैस कोड का मामला

देश में मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनने के मुद्दे पर पहले ही काफी विवाद हो चुका है। हिजाब का मुद्दा छोटी अदालतों से लेकर बड़ी अदालतों तक पहुंचा लेकिन अदालतों के फैसले परस्पर विरोधी भी रहे। वर्ष 2015 में केरल हाईकोर्ट के समक्ष दो याचिकाएं दायर की गई थीं जिसमें अखिल भारतीय प्रीमेडिकल प्रवेश के ​िलए ड्रैस कोड को चुनौती दी गई थी। केरल हाईकोर्ट ने केन्द्रीय स्कूल शिक्षा बोर्ड के तर्क को स्वीकार किया था कि ड्रैस कोड सिर्फ यह सुनिश्चित करने के लिए था कि उम्मीदवार कपड़ों के भीतर वस्तुओं को छुपाकर अनुचित तरीकों का इस्तेमाल नहीं करेंगे। हाईकोर्ट ने उन छात्रोें की जांच के ​िलए अतिरिक्त उपाय करने का निर्देश दिया जोे अपने धार्मिक रिवाज के अनुसार पोशाक पहनने का इरादा रखते हैं लेकिन जो ड्रैस कोड के विपरीत है। यह केस आमना बशीर बनाम सीबीएसई के नाम से चर्चित हुआ था। फातिमा तस्नीम बनाम केरल राज्य (2018) मामले में केरल हाईकोर्ट ने स्कूल द्वारा ​निर्धारित ड्रैस के मुद्दे पर अलग तरीके से फैसला दिया था ​तब एकल पीठ ने कहा था कि किसी संस्था के सामूहिक अधिकारों को याचिकाकर्ता के व्यक्तिगत अधिकारों पर प्राथमिकता दी जाएगी।
हिजाब को लेकर कर्नाटक और कुछ अन्य राज्यों में राजनीतिक विवाद भी हुए। संविधान का अनुच्छेद-25 (1) ‘‘अंतःकरण की स्वतंत्रता और धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने के स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। यद्यपि फ्रांस, बैल्जियम, नीदरलैंड, इटली, जर्मनी, आॅस्ट्रिया, नार्वे, स्पेन, ब्रिटेन, डेनमार्क, रूस, स्विट्जरलैंड आदि कई देशों में हिजाब पहनने पर प्रतिबंध लगाया हुआ है। 2022 में कर्नाटक हाईकोर्ट ने शिक्षण संस्थानों में हिजाब पहनने के मामले में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए छात्राओं की याचिका खारिज कर दी थी और साथ ही यह कहा था कि इस्लाम धर्म में हिजाब पहनना एक अनिवाद प्रथा नहीं है। हिजाब मामले पर हिंसा भी हुई। शिक्षण संस्थानों में ड्रैस कोड को लेकर न्यायाधीशों में भी मतभेद रहे हैं। अब मुम्बई के एक कॉलेज में बुर्का हिजाब बैन लगाने के फैसले पर फिलहाल रोक लगा दी है। साथ ही यह भी कहा है कि छात्रों के क्लास के अन्दर बुुर्का पहनने की और कैम्पस में धा​र्मिक गतिविधि की इजाजत नहीं दी जा सकती। हालांकि कोर्ट ने यह भी कहा है कि स्टूडैंट को क्या पहनना है और क्या नहीं पहनना यह वही तय करेंगे। मुम्बई के एनजी आचार्य और डीके मराठे कॉलेज ने कैम्पस में हिजाब, नकाब, बुर्का, स्टोल और टोपी पहनने पर बैन लगाया था। इसके खिलाफ 9 लड़कियां बाम्बे हाईकोर्ट पहुंची थीं। होईकोर्ट से याचिका खारिज होने पर उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजीव खन्ना की अगुवाई वाली बैंच ने कॉलेज के निर्देश पर आश्चर्य जताया और उसे फटकार भी लगाई। पीठ ने कहा कि यह किस तरह का आदेश है? इस तरह के नियम लागू करने का मतलब है कि धर्म को उजागर न करें। क्या छात्रों के नाम से धर्म जाहिर नहीं होगा? क्या आप यह कहेंगे कि बच्चों को उनके रोल नम्बर से पहचाना जाएगा। कोर्ट ने यह भी सवाल उठाया कि कॉलेज 2008 में शुरू हुआ था। इतने सालों से कोई निर्देश नहीं जारी किया गया तो फिर अचानक आप को याद आया कि यह धर्म का सवाल है। क्या आप यह कह पाएंगे कि तिलक लगाकर आने वाले छात्रों को इजाजत नहीं होगी। मुम्बई विश्वविद्यालय से संबद्ध और महाराष्ट्र राज्य द्वारा सहायता प्राप्त कॉलेजों के पास किसी भी कानून के तहत इस तरह के प्रतिबंध लगाने की कोई शक्ति और अधिकार नहीं है। इसके अलावा कॉलेज द्वारा लगाया गया प्रतिबंध संविधान के अनुच्छेद 15 का भी उल्लंघन है। क्योंकि यह महिला छात्राओं विशेष रूप से मुस्लिम धर्म की छात्राओं के लिए शत्रुतापूर्ण माहौल बनाता है। ऐसे निर्देश धर्मनिरपेक्ष शिक्षा तक उनकी पहुंच में बांधा डालते हैं और उन्हें समान अवसर से वंचित करते हैं। यह सवाल पहले भी कई बार उठ चुका है कि क्या हिजाब पहनना एक धार्मिक प्रथा है या नहीं। शिक्षण संस्थानों का कहना है कि इस तरह के ड्रैस कोड के ​िनयमन को संस्थान में अनुशासन बनाए रखने की ​िदशा में एक अभ्यास के रूप में माना जाना चाहिए। ड्रैस कोड का पालन करने का आग्रह कॉलेज परिसर के भीतर है और इससे किसी की पसंद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रभावित नहीं होती। यह कड़वा सत्य है कि दुनिया के कई मुस्लिम और यूरोपीय देशों में हिजाब पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है। लड़​कियां क्या पहनें यह उनकी पसंद है। हिजाब ​विवाद की आड़ में कट्टरपंथियों ने आग में घी डालने का बहुत काम किया है। बेहतर यही होगा कि देश संविधान से चले, कट्टरपंथियों की सनक से नहीं। देखना होगा सुप्रीम कोर्ट अंतिम फैसला क्या देता है।

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