Top NewsIndiaWorldOther StatesBusiness
Sports | CricketOther Games
Bollywood KesariHoroscopeHealth & LifestyleViral NewsTech & AutoGadgetsvastu-tipsExplainer
Advertisement

आर्थिक आजादी और अर्थतंत्र

NULL

09:49 AM Jun 03, 2017 IST | Desk Team

NULL

भारत अब आर्थिक आजादी की तरफ तेजी से कूच कर देना चाहता है। यही वजह है कि देश की सकल विकास वृद्धि दर की महत्ता लगातार बढ़ रही है। मोदी सरकार के समाप्त वित्त वर्ष के दौरान कम विकास वृद्धि दर प्राप्त करने पर आलोचना हो रही है। वित्त नीति पर विपक्षी दल कटाक्ष कर रहे हैं। दरअसल यह विकास की तरफ बढ़ते भारत की व्याकुलता है और सामाजिक बराबरी की लड़ाई भी है। अर्थव्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर बैठे व्यक्ति की सहभागिता जब तक नहीं होगी तब तक भारत में आर्थिक आजादी का सपना पूरा नहीं हो सकता मगर इसके कई सामाजिक आयाम भी हैं जो भारत की विविधता में उलझे हुए हैं। राजनीतिक आजादी की घोषणा इस देश के लोगों ने ताल ठोक कर 70 साल पहले की थी मगर प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के नये भारत की परिकल्पना ने लोगों की अपेक्षाओं को बढ़ा दिया है। अत: सरकार को इसी के अनुरूप अपनी नीतियों का निर्धारण भी करना होगा। आर्थिक मोर्चे पर भारतवासी आज भी संघर्ष कर रहे हैं जबकि राजनीतिक आजादी के मोर्चे पर स्थिति दूसरी है मगर क्या राजनीतिक बराबरी को हम सही रूप में लागू कर पाये हैं? इस सन्दर्भ में मुझे संविधान लिखने वाले बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर की वह चेतावनी याद आ रही है जो उन्होंने 26 नवम्बर, 1949 को इसी संविधान को तत्कालीन संविधान सभा द्वारा स्वीकृत करते हुए दी थी। डा. अम्बेडकर ने कहा था कि बिना सामाजिक बराबरी प्राप्त किये यह राजनीतिक आजादी बेमानी हो सकती है और जिस संसदीय लोकतन्त्र को हम अपना रहे हैं उसे कुछ लोग अपनी सुविधा का खिलौना बना सकते हैं। जाति-बिरादरी और ऊंच-नीच के चलते एक व्यक्ति-एक वोट के अधिकार का दुरुपयोग इस तरह हो सकता है कि लोकतन्त्र को कुछ लोग वोटों की ठेकेदारी में तब्दील कर दें। गौर से सोचिये पिछले तीस साल से भारत में यही होता रहा, 2014 के बाद इसमें बदलाव जरूर आया है।

दुर्भाग्य यहां तक रहा कि बाबा साहेब का नाम लेकर ही कुछ लोग जातियों के नाम पर राजनीतिक दुकानें चलाते रहे और सामाजिक न्याय के नाम पर भी जातिवाद का बोलबाला करने की कोशिश करते रहे परन्तु यह भी सत्य है कि इसी दौरान गणतान्त्रिक भारत ने अपनी जन की शक्ति का परिचय भी दिया और एक ही झटके में सभी प्रकार के राजनीतिक समीकरणों को तहस-नहस करते हुए ढाई दशक के बाद केन्द्र में एक ही पार्टी को पूर्ण बहुमत दे दिया। यह गणतन्त्र के एक वोट की ताकत का कमाल ही था, परन्तु क्या हमें इसी से प्रसन्न होकर शान्त हो जाना चाहिए? सामाजिक बराबरी तब तक नहीं आ सकती जब तक कि राजनीतिक बराबरी के अधिकार का प्रयोग एक दलित से लेकर सफाई कर्मचारी या पूर्व राजा-महाराजा के सन्दर्भ में समरूप से लागू नहीं होता। इसे लागू केवल राजनीतिक दल ही कर सकते हैं क्योंकि हमने दलीय व्यवस्था के तहत चलने वाली प्रशासन व्यवस्था के ढांचे को लागू किया है। गौर से देखने पर जो नतीजा निकलता है वह यही है कि संसदीय प्रणाली में राजनीतिक दलों के जरिये ही सामाजिक बराबरी व आर्थिक बराबरी का समाज हम प्राप्त कर सकते हैं परन्तु बाबा साहेब की बात सच हो रही है और सामाजिक व आर्थिक बराबरी का नारा लगाने वाले राजनीतिक दल वोटों के ठेकेदार के रूप में विकसित होकर अपने और अपने परिवार के लोगों के हित पोषक हो रहे हैं और लोकतन्त्र में राजतन्त्र जैसी व्यवस्था का आभास करा रहे हैं। पारिवारिक दबदबे के अनुरूप सियासी पार्टियां जनप्रतिनिधियों को चुनवाने का अभियान चलाये हुए हैं। इतना ही नहीं आर्थिक मोर्चे पर भी परिवार तन्त्र अपना बदरंगी चेहरा दिखा रहा है। नेताओं के परिवार घोटालों में संलिप्त पाये जा रहे हैं। उस नोटबन्दी की भी आलोचना हो रही है जिसने भ्रष्टाचार पर बहुत जोरदार चोट की और आम जनता के विश्वास के साथ की। अत: सोचना होगा कि हमें भारत किस रूप में चाहिए?

Advertisement
Advertisement
Next Article