अरुन्धति राय और देश प्रेम !
भारत में गैर सरकारी सामाजिक संगठनों व कार्यकर्ताओं का अपना एक इतिहास रहा है जिसमें राजनैतिक गतिविधियां भी शामिल रही हैं। दरअसल राजनैतिक वर्जनाओं के खिलाफ ये संगठन व कार्यकर्ता समय-समय पर आवाज भी उठाते रहे हैं । मानव अधिकारों के सन्दर्भ में इन संगठनों व कार्यकर्ताओं की भूमिका इस प्रकार रही है कि भारत के लोकतन्त्र के भीतर इनकी भूमिका कभी सकारात्मक मानी गई और कभी नकारात्मक भी कही गई। मगर एक सामाजिक कार्यकर्ता का मूल्यांकन इस बात से करेंगे कि उसके प्रयासों से कितने वंचितों की जिन्दगी में बदलाव आया। भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के अन्य लोकतान्त्रिक देशों में भी एेसे संगठनों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण देखी जाती है। ये संगठन पर्यावरण के प्रश्न पर कहीं बहुत उत्तेजित दिखते हैं तो कहीं लोकतान्त्रिक अधिकारों के मुद्दे पर। लोकतन्त्र की बुनियाद चुंकि नागरिकों के मूलभूत अधिकारों पर टिकी होती है अतः हमारे देश में मानवाधिकारों का शोर सबसे ज्यादा सुनाई पड़ता है। मगर मानवाधिकारों और राष्ट्रीय हितों के बीच में एक लक्ष्मण रेखा होती है जिसके लांघने पर राष्ट्र विरोध तक की नौबत आ जाती है।
राष्ट्र प्रेम के कई आयाम होते हैं। जो व्यक्ति अपने राष्ट्र से प्रेम करता है वह इसके लोगों से भी प्रेम करेगा और उनके अधिकारों के लिए भी संघर्ष करेगा। दूसरी तरफ इस संघर्ष में उसे यह भी ध्यान रखना होगा कि उसकी अधिकारों की लड़ाई कहीं समूचे राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध न चली जाये। इस सन्दर्भ में हमें नफरत भरे बयानों को भी देखना होगा क्योंकि इनके प्रसारण से समाज के विभिन्न वर्गों के बीच आपसी कलह व रंजिश का माहौल बनता है जिससे राष्ट्र में असन्तोष पैदा होने की संभावनाएं बनती हैं। एेसा कृत्य निश्चित रूप से राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध कहलायेगा। हाल ही में दिल्ली के उपराज्यपाल ने लेखिका अरुन्धति राय के खिलाफ गैर कानूनी गतिविधियों में शामिल (यूएपीए) कानून के तहत मुकदमा चलाने की अनुमति पुलिस को दी है। इसका सम्बन्ध 14 साल पुराने उनके एक भाषण से है जो उन्होंने दिल्ली के एक सभागार में 2010 में दिया था। यह भाषण कश्मीर की आजादी के सन्दर्भ में था। उनके साथ ही कश्मीर विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर शेख शौकत हुसैन ने भी इसी विषय पर भाषण दिया था। अपने भाषण में उन्होंने कहा था कि कश्मीर कभी भी भारत का हिस्सा नहीं रहा था। इसके अलावा कश्मीर की आजादी के सन्दर्भ में और भी बातें कही गई थी। उसी समय 2010 में इन दोनों के खिलाफ एक सामाजिक कार्यकर्ता ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी थी। इसी 14 साल पुरानी रिपोर्ट का संज्ञान उपराज्यपाल ने लिया है और यूएपीए के तहत मुकदमा चलाने की मंजूरी दी है।
सवाल यह है कि 14 साल पुरानी रिपोर्ट को अब अगर 2024 में आधार बनाया जाता है तो क्या इससे पुरानी दर्ज पुलिस रिपोर्टों के आधार पर नये मुकदमें चलाने का पिटारा नहीं खुल जायेगा। यह बहुत गंभीर प्रश्न है जिस तरफ सरकार को ध्यान देना होगा। 2010 में केन्द्र में कांग्रेस नीत डा. मनमोहन सिंह की सरकार थी, दिल्ली में भी कांग्रेस की शीला दीक्षित सरकार थी। इन दोनों ही सरकारों ने इस मामले को किसी मुकदमे लायक नहीं समझा था। उसके भी अपने कारण रहे होंगे। 2010 में जब अरुन्धति राय और प्रोफेसर हुसैन पर समाज में अलगाव पैदा करने व देश हित के खिलाफ काम करने की पुलिस रिपोर्ट दर्ज कराई गई थी तो भी देश में कानून का शासन था और आज 2024 में भी है। मूल कानूनों में भी कोई बदलाव नहीं आया है बेशक राजद्रोह का कानून समाप्त हो गया है मगर समाज में द्वेष व विभिन्न वर्गों के बीच घृणा या नफरत फैलाने के कानून तो पुराने ही हैं। सवाल यह खड़ा होता है कि इन कानूनों के साथ यूएपीए के तहत मुकदमा चलाने की जरूरत सरकार को क्यों महसूस हुई? इसका ठोस कारण तो लोगों को बताया ही जाना चाहिए। अरुन्धति राय अपनी वैचारिक साफ गोई के लिए प्रसिद्ध हैं और देश की आम जनता में उनका समुचित सम्मान भी है हालांकि उनके बराबर की संख्या में तीखे आलोचक भी हैं परन्तु मूल प्रश्न 14 वर्ष बाद मुकदमा चलाये जाने का है।
इस नजीर से लोकतन्त्र में सरकारें बदलने पर बदले की भावना से कार्रवाइयां किये जाने का डर हमेशा बना रहेगा। पहले 2023 में दिल्ली के उपराज्यपाल ने अरुन्धति राय पर फौजदारी कानूनों की विभिन्न दफाओं के तहत मुकदमा चलाने की अनुमति पुरानी पुलिस रिपोर्ट के आधार पर ही दी थी। इस वर्ष उन्होंने एक कदम और आगे बढ़कर यूएपीए के तहत भी अनुमति दे दी है। यदि अरुन्धति राय का मत उस समय यह था कि कश्मीर कभी भी भारत का हिस्सा नहीं रहा और भारतीय फौजों ने उस पर जबर्दस्ती कब्जा किया तो यह उनका मत भारत की प्रभुसत्ता पर हमला कहा जा सकता है परन्तु क्या आज भी अरुन्धति एेसा ही सोचती है क्योंकि व्यक्ति के विचार बदलते रहते हैं। राजनैतिक नेताओं के बारे में तो यह उक्ति प्रसिद्ध है कि उनके विचार बहुत जल्दी बदलते हैं। सवाल किसी के बचाव का नहीं है बल्कि भारत के लोकतन्त्र का है क्योंकि अरुन्धति के बयान में हिंसा भड़काने या दो वर्गों को लड़ाने का भाव यदि था तो 2010 की मनमोहन सरकार क्या कर रही थी.? हर राजनैतिक दल की सरकार देश प्रेमी सरकार होती है अतः सारे मामले को इसी नजरिये से देखना होगा।