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भारत की गठबन्धन सरकारें

07:18 AM Jun 07, 2024 IST
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वर्तमान लोकसभा चुनावों को विचारधाराओं का महायुद्ध कहा जा सकता है जिसमें गांधीवादी समन्वित विचारधारा और हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवादी विचारधारा के बीच सीधी टक्कर थी। इनका आधार आर्थिक सोच ही था जो हमें लोक कल्याणकारी राज और बाजारवादी संशोधन वाद के रूप में नजर आया। ये चुनाव मूल आर्थिक प्रश्नों को केन्द्र में रख कर भी लड़े गये। जाहिर है कि इन चुनावों में भाजपा का विमर्श हारा क्योंकि इसकी लोकसभा में 303 सीटों से घट कर 240 रह गई जबकि कांग्रेस की 52 सीटों से बढ़ कर 99 हो गईं। भाजपा ने कुल 92 सीटें पुरानी गंवाई जबकि 32 नई पाईं। इससे यह पता चलता है कि चुनावी मैदान में जो विमर्श भाजपा ने रखा था वह कांग्रेस के विमर्श के समक्ष ढीला साबित हुआ। परन्तु इन चुनावों के बाद जो राजनैतिक तस्वीर उभरी वह किसी एक पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार की जगह कई दलों की मिली-जुली सरकार बनने की उभरी। भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबन्धन को 292 सीटें प्राप्त हुईं जबकि कांग्रेस के गठबन्धन को 232 सीटों पर ही सन्तोष करना पड़ा। जाहिर है कि अब जो सरकार भाजपा के नेता नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गठित होने जा रही है वह किसी एक पार्टी की सरकार नहीं होगी। अतः विभिन्न राजनैतिक दलों का एजेंडा इस सरकार का स्थायी भाव होगा। भारत में गठबन्धन सरकारों का अपना इतिहास रहा है। ये सरकारें एक दल की सरकारों से ज्यादा कारगर भी रही हैं ।

इसका उदाहरण डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दस साल तक चली यूपीए सरकार को माना जाता है। इससे पहले भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भी 24 से अधिक दलों की गठबन्धन सरकार पूरे पांच साल 1999 से लेकर 2004 तक चली थी। मनमोहन सरकार ने जहां भारत के लोगों को भोजन का अधिकार से लेकर शिक्षा का अधिकार व सूचना का अधिकार जैसे कानून दिये वहीं ग्रामीण रोजगार कानून भी दिया। गठबन्धन सरकारें भारत की विविधता को देखते हुए ही कारगर मानी जाती रही हैं। इनमें उत्तर से लेकर दक्षिण व पूर्व से लेकर पश्चिम तक का प्रचुर प्रतिनिधित्व रहा है। एक पार्टी की सरकार में भारत की विविधता की झलक खटकती रही है। विशेष कर भाजपा की पिछली दस साल की सरकार के दौरान दक्षिण का प्रतिनिधित्व हाशिये पर रहा है जिसकी वजह से राष्ट्रीय राजनैतिक सन्तुलन भी गड़बड़ाता रहा है जबकि पिछली भाजपा की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में एेसा नहीं था क्योंकि इसमें दक्षिण की पार्टी द्रमुक सरकार में शामिल थी। गठबन्धन सरकारों का असली दौर 1989 से चालू हुआ जब स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पहली बार जनता दल का गठन करके सरकार बनाई।
इस सरकार को एक तरफ भाजपा का समर्थन प्राप्त था तो दूसरी तरफ वामपंथी मोर्चे का भी समर्थन प्राप्त था। जबकि कांग्रेस पार्टी दूसरी बार विपक्ष में बैठी थी। हालांकि इससे पहले 1977 में इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी की मोरारजी देसाई के नेतृत्व में गठित सरकार भी गठबन्धन की ही सरकार थी क्योंकि जनता पार्टी में भारतीय लोकदल, जनसंघ व संगठन कांग्रेस का विलय हो गया था जबकि इससे पूर्व 1974 में लोकदल में स्वतन्त्र पार्टी, संसोपा, भारतीय क्रान्ति दल व बीजू पटनायक की कांग्रेस का विलय हो चुका था।

मगर यह सरकार बामुश्किल दो साल चली और बिखर गई। इससे पूर्व कांग्रेस के राज में कभी भी उत्तर-दक्षिण का सवाल नहीं उठा क्योंकि इस पार्टी का चरित्र मूल रूप से अखिल भारतीय था जिसमेें हर प्रदेश व क्षेत्र का समुचित प्रतिनिधित्व हुआ करता था। यही वजह थी कि 1977 में जनता पार्टी दक्षिण के चारों राज्यों में कांग्रेस से बुरी तरह पराजित हुई थी। परन्तु 1989 के आते-आते हालात बदले और उत्तर भारत में ही मुख्य रूप से विजय प्राप्त करने वाले जनता दल की सरकार गठित हुई।इसके बाद 1990 में कांग्रेस ने बाहर से समर्थन देकर स्व. चन्द्रशेखर की सरकार बनवाई औऱ बाद में 1991 के मध्यावधि चुनावों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी 240 से अधिक सीटें लेकर उभऱी और उसने अपने बूते पर ही यह सरकार लोकसभा में बहुमत का आंकड़ा जुटा कर चलाई। परन्तु 1996 के चुनावों में भाजपा सबसे बड़ा दल के रूप में 160 से अधिक सीटें लेकर आयी और इसकी सरकार को बाहर या भीतर से किसी अन्य दल का समर्थन नहीं मिला। परिणामस्वरूप यह 13 दिनों में ही गिर गई। तब इस 13 दिन सरकार के मुखिया अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमन्त्री पद से इस्तीफा देने से पहले कहा था कि राजनीति में ‘अछूत’ कोई नहीं होता है। श्री वाजपेयी की इस बात का असर हमें बाद में राष्ट्रीय राजनीति में देखने को मिला। मगर 13 दिन की सरकार गिरने के बाद श्री देवगौड़ा व स्व. गुजराल की सांझा सरकारें गठित हुई। ये ऐसी सरकारें थीं जिनमें पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल हुई और इसके नेता स्व. इंद्रजीत गुप्ता देश के गृहमन्त्री बने।
यह सरकार संयुक्त मोर्चे की सरकार थी जिसके सूत्रधार आन्ध्र प्रदेश के नेता श्री चन्द्रबाबू नायडू थे।

इस सरकार को बाहर से कांग्रेस का समर्थन प्राप्त था परन्तु दो साल बाद इसने अपना समर्थन वापस ले लिया और साझा सरकार गिर गई। 1998 में चुनाव हुए और भाजपा की 180 से अधिक सीटें आयी। इसके नेतृत्व में तब एनडीए का गठन हुआ और स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार 13 महीने चली क्योंकि तब दक्षिण की नेता जयललिता ने इससे अपना समर्थन वापस ले लिया था। इस सरकार के गिरने के बाद 1999 में चुनाव हुए और भाजपा ने चुनाव से पूर्व ही मजबूत एनडीए गठबन्धन तैयार किया और इसे बहुमत प्राप्त हो गया। इस गठबन्धन के आकर्षण स्वयं अटल बिहारी वाजपेयी थे जिनका उदार स्वभाव सभी प्रकार के राजनैतिक दलों को एनडीए से जोड़ देता था। सत्ता के लिए बने गठबन्धन में पूर्वोत्तर राज्यों के दल भी भाजपा के साथ आते गये। परन्तु इसके बाद 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में जो गठबन्धन यूपीए तैयार हुआ उसमें सैद्धान्तिक पक्ष प्रमुख रहा और सामाजिक न्याय व समाजवादी विचारधारा के दलों का इसे साथ भी मिला जबकि स्व. मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी ने इसका बाहर रह कर समर्थन किया और डा. मनमोहन सिंह की सरकार चलवाने में मदद की। इस गठबन्धन में उत्तर से लेकर दक्षिण व पूर्व से लेकर पश्चिम तक के सभी दल शामिल हुए अथवा उन्होंने इसे अपना समर्थन दिया। यहां तक कि वामपंथी दलों का भी इसे समर्थन मिला। मौजूदा एनडीए गठबन्धन के पास दक्षिण के केवल तेलुगू देशम का समर्थन प्राप्त है तमिलनाडु में इसका कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। देखना होगा कि तेलुगू देशम के नेता चन्द्रबाबू नायडू कैसे इस गठबन्धन को अपने कन्धे पर उठाते हैं जबकि नरेन्द्र मोदी का गठबन्धन चलाने का अनुभव शून्य है।

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