स्वतन्त्र भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा
भारत में कम्युनिस्ट या साम्यवादी विचारधारा को लेकर बहुत भ्रम की स्थिति आजादी के बाद से ही रही है। इसकी असली वजह यह है कि 1942 से 1945 तक चले द्वितीय विश्व युद्ध में जब सोवियत संघ हिटलर के खिलाफ मित्र देशों के साथ कूदा तो भारत की कम्युनिस्ट पार्टी अंग्रेजों के साथ हो गई इसका मूल कारण यह था कि सोवियत संघ ने उस समय हिटलर की नाजी ताकतों के खिलाफ ब्रिटेन व अमेरिका के साथ रहना पसन्द किया था। इससे पहले भारत में अंग्रेजों ने कम्युनिस्टों को प्रतिबन्धित कर रखा था और इस पार्टी के लोग कांग्रेस के मंच से ही अपने मार्क्सवादी या समाजवादी विचारों का प्रचार-प्रसार करते थे। महात्मा गांधी को भी इससे दिक्कत नहीं थी क्योंकि वह हरिजन पत्र में कई बार लिख चुके थे कि उन्हें साम्यवाद के समाजवादी सोच से कोई गुरेज नहीं है बशर्ते इसमें से हिंसा का परित्याग कर दिया जाये।
आजादी से पहले कांग्रेस के अखिल भारतीय अधिवेशनों में भी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को कामरेड कह कर सम्बोधित किया जाता था। परन्तु आजादी मिलते ही प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। इसकी वजह भी यही थी कि तब तक भारत की कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता परिवर्तन के लिए हिंसक तरीकों की वकालत करती थी। पं. नेहरू ने पहले लोकसभा चुनावों से पूर्व ही संविधान में संशोधन करके यह व्यवस्था कर दी थी कि भारतीय लोकतन्त्र की चुनाव प्रणाली में केवल वे ही राजनैतिक दल भाग ले सकते हैं जिन्हें संसदीय प्रणाली पर पूर्ण विश्वास हो और जो अपने राजनैतिक दर्शन में हिंसक रास्तों की वकालत न करें। यह भी सत्य है कि कम्युनिस्टों ने 15 अगस्त 1947 को मिली आजादी को भारत की स्वतन्त्रता नहीं माना और इसे सत्ता हस्तांतरण का नाम दिया।
कम्युनिस्टों के ये विचार कमोबेश तौर पर सत्तर के दशक तक जारी रहे मगर बाद में इन्होंने इसमें संशोधन किया। इसी प्रकार नेता जी सुभाष चन्द्र बोस को भी कम्युनिस्ट फासीवादी विचारधारा का पोषक मानते थे मगर सत्तर के दशक में इन्होंने इस मत को भी संशोधित किया औऱ नेता जी को स्वतन्त्रता सेनानी माना।
पं. नेहरू ने जब 1951 में संविधान संशोधन किया तो कम्युनिस्टों ने भारत के सन्दर्भ में अपनी विचारधारा में संशोधन किया और भारतीय संविधान को सर्वोपिर मान कर संसदीय प्रणाली के तहत चुनावी व्यवस्था में भाग लेने का फैसला किया। इन चुनावों में कांग्रेस के बाद कम्युनिस्ट पार्टी दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी हालांकि इसकी सदस्य संख्या बहुत कम थी। और मत प्रतिशत भी इसे चार से कम ही प्राप्त हुआ था। भारत की आजादी के बाद सबसे पहले हुए चुनाव में देश में तीन प्रमुख विचारधाराएं प्रस्फुटित हो चुकी थीं।
इनमें से दो साम्यवादी व गांधीवादी विचारधाराएं पहले से ही थीं परन्तु तीसरी राष्ट्रवादी विचारधारा 1951 में जनसंघ की स्थापना के साथ उदय हुई। यह विचारधारा भी कोई नई विचारधारा नहीं थी मगर 1947 में मजहब के आधार पर हुए भारत के विभाजन से नये सुर मिल गये थे। जनसंघ के संस्थापक आजादी के वक्त तक हिन्दू महासभा के नेता रहे डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे जिन्हें 15 अगस्त 1947 की बनी पं. नेहरू की राष्ट्रीय सरकार में स्थान दिया गया था। इन्होंने दिसम्बर 1950 में पं. नेहरू व पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमन्त्री लियाकत अली खां के बीच हुए समझौते के बाद नेहरू सरकार से इस्तीफा दिया और कुछ महीने बाद जनसंघ की स्थापना की। डा. मुखर्जी ने स्वतन्त्र भारत में हिन्दू राष्ट्रवाद को नये कलेवर में पेश किया और 1952 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने तीन सीट जीतीं। इनमें से दो सीटें पं. बंगाल से थी और एक सीट भीलवाड़ा (राजस्थान) से थी। इसी से अंदाजा लगया जा सकता है कि भारत के अपेक्षाकृत रूढ़ीवादी व अर्ध सामन्ती व्यवस्था के राज्यों में डा. मुखर्जी की पार्टी पांव जमा रही थी। इस व्यापक सन्दर्भ में हमें आजाद भारत में कम्युनिस्टों की भूमिका की समीक्षा करनी होगी। एेसा भी नहीं है कि अर्ध सामन्ती समाज में कम्युनिस्ट अछूत थे बल्कि राजस्थान जैसे राज्य में ही कुछ इलाकों में कम्युनिस्ट काफी मजबूत बन कर भी उभरे। परन्तु धर्म को लेकर कम्युनिस्टों की भारत की धर्मप्राण मानी जाने वाली जनता में स्वीकार्यता सर्वदा सन्देहास्पद ही रही जिसमें गुणात्मक संशोधन कम्युनिस्टों की आजादी के बाद उपजी पीढ़ी के नेताओं ने किया जिनमें स्व. सीताराम येचुरी का नाम सबसे प्रमुखता से लिया जायेगा।
येचुरी की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि उनका जन्म एक वेदपाठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था और बचपन में उनकी दीक्षा भी इसी परंपरा के असार हुई थी। श्री येचुरी का निधन बीते दिनों ही राजधानी दिल्ली में संक्षिप्त बीमारी के बाद हुआ है। वह लम्बे समय तक राज्यसभा के सदस्य भी रहे जिसे भाजपा की धर्मनिष्ठ राजनीति का दौर भी कहा जा सकता है। श्री येचुरी ने राज्यसभा में ही धर्म का विरोध नहीं किया बल्कि यह कहा कि धर्म किसी भी व्यक्ति का नितान्त निजी मामला है क्योंकि आत्मा व परमात्मा के बीच जो पवित्र सम्बन्ध होता है उस पर केवल किसी व्यक्ति का निजी अधिकार ही होता है। इस मामले में कोई दूसरा व्यक्ति उसके बीच नहीं आ सकता क्योंकि धर्म का मतलब ही परमात्मा से मिलन का होता है।
अतः राजनीति में धर्म का प्रवेश किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता। ये 21वीं सदी के किसी मार्कसवादी कम्युनिस्ट नेता के विचार थे जबकि कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम की संज्ञा दी थी और इसे व्यक्ति के पिछड़े व ग्यवादी बन कर गरीब बने रहने का प्रमुख कारक बताया था। सीताराम येचुरी ने भारत के सन्दर्भ में इसमें संशोधन किया और मार्क्स के विचारों को नया आयाम दिया। मार्क्स के धार्मिक विचारों की आलोचना करते हुए हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि 1957 की सैनिक विद्रोह या गदर अथवा क्रान्ति को भारत का स्वतन्त्रता संग्राम बताने वाले भी पहले व्यक्ति कार्ल मार्क्स ही थे जिन्होंने 1857 में लन्दन में बैठ कर अमेरिका के वाशिंगटन पोस्ट में लिखे अपने लेखों में यह स्थापित किया था कि 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ भारत के लोगों व देशी राजाओं ने जो विद्रोह किया वह अंग्रेजों द्वारा भारत के बेहिसाब शोषण के विरुद्ध जन जागरण था।
इसमें मार्क ने भारत के कफहा उद्योग का वेष रूप से जिक्र किया था क्योंकि अंग्रेजों ने अपने मैनचेस्टर में बने कपड़े से भारतीय बाजारों को लाद दिया था और इसके लिए भारत से ही कच्चा माल लेकर वे जाते थे। जिसकी वजह से भारतीय बुनकर व कारीगर बेकारी के कगार पर पहुंच गये थे। मगर स्वतन्त्रता के बाद कम्युनिस्टों ने भारत के तीन राज्यों पं. बंगाल, केरल व त्रिपुरा में शानदार सफलता प्राप्त की थी। और एक समय 1996 में एेसा भी आया था जब इसके नेता स्व. ज्योति बसु भारत के प्रधानमन्त्री बनने वाले ही थे। ज्योति बसु उस समय पं. बंगाल के मुख्यमन्त्री थे औऱ उनके पास लम्बा प्रशासनिक अनुभव था।
यह दौर वह था जब केन्द्र में भाजपा की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार केवल 13 दिन बाद ही बहुमत के अभाव में गिर गई थी और उसके बाद गैर कांग्रेसी व गैर भाजपाई दलों का संयुक्त मोर्चा बना था। तब इस सरकार का नेतृत्व मार्क्सवादी पार्टी के नेता ज्योति बसु को देने का निर्णय किया गया था मगर इस योजना को स्वयं मार्क्सवादियों ने ही असफल कर दिया और इस पार्टी के तत्कालीन महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने इसके विरोध में प्रस्ताव रखा जिसका समर्थन स्व. येचुरी ने भी किया था। इससे यह तो साबित हुआ कि कम्युनिस्टों को सत्ता लोभ नहीं था मगर यह भी साबित हुआ कि वे लोकतन्त्र की अन्तर्पार्टी वैचारिक सामंजस्यता को पचा नहीं पाये। अतः स्वतन्त्र भारत में कम्युनिस्टों की भूमिका कुछ इसी प्रकार मिलीजुली है।