अकाली दल का क्षरण और पंजाब
कांग्रेस के बाद देश की दूसरी सबसे पुरानी पार्टी शिरोमणि अकाली दल, का क्षरण लगातार जारी है। यह इतने निचले स्तर पर पहुंच गया है कि उसके पतन के पंजाब के लिए निहितार्थ को लेकर चिन्ता हो रही है। विपक्ष भी चिन्तित है कि अकाली दल जो जगह ख़ाली कर रहा है कहीं उसे उग्रवादी न भर दें, जैसे संकेत लोकसभा चुनाव में अमृतपाल सिंह और सरबजीत सिंह खालसा की जीत से मिलते हैं। पर यह बाद में। इस वक्त तो अकाली दल दोफाड़ हो चुका है। जिन्हें ‘टकसाली’ नेता कहा जाता है, उनमें से 60 के क़रीब ने प्रधान सुखबीर सिंह बादल के इस्तीफ़े की मांग को लेकर पूरी बग़ावत कर दी है। वह चाहते हैं कि सुखबीर बादल 'त्याग दी भावना’ प्रकट करें और इस्तीफ़ा दे दें, जो सुखबीर प्रकट करने से इंकार कर रहें हैं।
सुखबीर बादल को अधिकतर हलका इंचार्ज और एसजीपीसी के सदस्यों का समर्थन हासिल है पर इसके अधिक मायने नहीं हैं क्योंकि साफ़ है कि यह पार्टी लोगों, विशेष तौर पर सिखों, का समर्थन खो बैठी है। हाल के लोकसभा चुनाव में उसे केवल एक सीट और 13.4 प्रतिशत वोट ही मिले थे और उसके 13 में से 10 उम्मीदवार अपनी ज़मानत ज़ब्त करवा बैठे हैं। सुखबीर बादल ने 'पंजाब बचाओ यात्रा’ भी निकाली थी पर अकाली दल, कांग्रेस, आप और भाजपा के बाद चौथे नम्बर पर आया है। दशकों भाजपा के केन्द्रीय नेताओं ने भाजपा को अकाली दल की पूंछ बना कर रखा था। जब पंजाब भाजपा के नेता अरुण जेटली से मिले कि उन्हें सीटों का अधिक हिस्सा मिलना चाहिए, तो दिवंगत नेता ने एक प्रकार से कह दिया कि तुम्हारी औक़ात इतनी ही है। आज वही भाजपा अकाली दल से 5 प्रतिशत वोट अधिक ले जाने में सफल रही है, चाहे सीट एक नहीं मिली।
अकाली दल का यह हश्र क्यों हुआ? मूल कारण है कि दल में आंतरिक लोकतंत्र समाप्त हो गया। जिस दल में बहुत आक्रामक और महत्वाकांक्षी नेता रहे हैं वह एक परिवार के इर्द गिर्द सिमट कर रह गया। 2022 में झुंडा पैनल ने सिफ़ारिश की थी कि अकाली दल को सामूहिक लीडरशिप और एक -परिवार एक- सदस्य की नीति अपनानी चाहिए पर अकाली नेतृत्व ने गौर नहीं किया। अकाली दल से नाराज़गी का बड़ा कारण 2015 की बेअदबी की घटना है। जिस तरह अकाली नेतृत्व उससे निबटा है उसके लिए उसे माफ़ नहीं किया गया। पर कुछ समीक्षक अकाली दल की कमजोरी के लिए पंथ को छोड़ कर ‘पंजाबियत’ को अपनाना मानते हैं। किसान आन्दोलन के समय भी अकाली नेतृत्व की प्रतिक्रिया देर से आई जिसका नुक़सान हुआ। मैं नहीं समझता कि ‘पंजाबियत’ को अपनाना ग़लत था। वास्तव में सरदार प्रकाश सिंह बादल और अकाली दल की सबसे बड़ी उपलब्धि पंजाबियत को अपना कर पंजाब को उग्रवाद से निकालना था। इसके लिए उन्होंने भाजपा को साथ ले ग़ैर- सिखों के लिए अपने दरवाज़े खोल दिए। पंजाब को साम्प्रदायिक टकराव से बचा लिया। इसके लिए प्रकाश सिंह बादल को सदैव याद रखा जाएगा। लोगों की समस्या सीनियर बादल की राजनीति से नहीं है, समस्या जूनियर बादल की लीडरशिप से है।
सीनियर बादल पुत्र मोह में फंस गए। सब कुछ पुत्र और परिवार के हवाले कर दिया। एक समय तो सीनियर बादल सीएम थे, पुत्र डिप्टी सीएम, बहू केन्द्र में मंत्री, दामाद और बेटे का साला पंजाब में मंत्री। अकाली दल का जो हाल हुआ है इसका बड़ा कारण परिवारवाद है। पार्टी अपनी जड़ों से कट गई। चाहे एसजीपीसी और उसके द्वारा अकाल तख्त पर नियंत्रण हो गया पर पंजाब के लोगों का मोहभंग हो गया। उनके शासन के दौरान ही पंजाब के नौजवान ड्रग्स में झोंक दिए गए। युवा अब कट गए और रेडिकल तत्वों की तरफ़ झुकाव हो गया। ड्रग्स और बेरोज़गारी ने भी इस झुकाव में मदद की।
आज कोई भी ऐसा नेता नहीं जो अकाली दल में जान डाल सके, बाग़ियों में भी नहीं है। जिन्हें मॉडरेट सिख लीडर कहा जाता है उनके कमजोर होने का पंजाब को बहुत नुक़सान होने जा रहा है क्योंकि नरमख्यालियों की जगह गर्मख्याली ले रहे हैं जो खडूर साहिब और फ़रीदकोट के लोकसभा चुनाव परिणाम से पता चलता है।चार विधानसभा उपचुनाव भी होने है जहां से और कट्टरपंथी चुनाव लड़ सकते हैं। हालत ऐसे बनते जा रहे हैं कि विरोधी भी अकाली दल का और क्षरण नहीं चाहते। पूर्व कांग्रेसी सुनील जाखड़ जो अब भाजपा अध्यक्ष हैं और जो सदैव अकाली-भाजपा गठबंधन के समर्थक रहे हैं,ने एक इंटरव्यू में कहा है, “पंजाब में कट्टरपंथ के बढ़ते ख़तरे से निपटने के लिए अकाली दल, सुखबीर बादल के साथ या बिना, सेफ्टी वैल्व था...कमजोर अकाली दल के कारण जो शून्य पैदा हो रहा है...बहुत अधिक ख़तरनाक है”। जो जगह अकाली दल छोड़ रहा है उसे इस बॉर्डर स्टेट में तेज़ी से कट्टरपंथी तत्व भर रहे हैं जिनका वही एजंेडा है जिसने1980 के दशक में पंजाब को हिंसा की गर्त में धकेल दिया था। अकाली दल का फिर भी पंजाब में जहां राजनीति और धर्म का घालमेल रहता है, संयमित प्रभाव रहा है। अकाली नेताओं को सम्भालना भी आसान है क्योंकि अधिकतर बड़े ज़मींदार और पूंजीपती हैं। जिनके पास कुछ नहीं उन्हें सम्भालना मुश्किल होता है। कट्टरपंथी की ताक़त किस तरह बढ़ रही है यह इस बात से पता चलता है कि अकाली दल से बाग़ी लीडर अमृतपाल सिंह के घर सलाम बजा आए हैं। उनकी मजबूरी बताती है कि ज़मीन कैसे खिसक रही है।
क्या इतिहास दोहरा रहा है? क्या पंजाब फिर एक गम्भीर मोड़ पर है? पूर्व वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ग़ुरबचन जगत जो मणिपुर में राज्यपाल भी रह चुके हैं, ने एक लेख में लिखा है, “उस पंजाब में जिसने एक दशक हिंसा की सुनामी देखी है की सतह के नीचे चिन्ता की तरंगें नज़र आ रही हैं। क्या अतीत, वर्तमान और भविष्य बनने जा रहा है?” इसका उत्तर तो समय ही देगा, पर संकेत तो गम्भीर हैं। जैसे गुरबचन जगत ने भी सवाल किया है, अचानक यह दो आदमी कहां से आ गए और सांसद बन गए? दोनों, जैसे जम्मू-कश्मीर में इंजीनियर रशीद, ने संविधान और देश की एकता और अखंडता क़ायम रखने की शपथ ली है, पर इसका कोई महत्व नहीं है। अमृतपाल की माता ने इस बात का खंडन किया था कि अमृतपाल खालिस्तानी है पर अगले ही दिन अमृतपाल ने अपनी माता का खंडन कर दिया। ‘एक्स’ हैंडल पर उसके नाम से लिखा गया है कि, “खालसा राज का सपना देखना कोई अपराध नहीं, बल्कि गर्व की बात है..पीछे हटने के बारे मैं सोच भी नहीं सकता”। मालूम नहीं कि यह अमृतपाल सिंह का अपना बयान है या नहीं क्योंकि वह डिब्रूगढ़ जेल में राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के नीचे गिरफ्तार है। अगर उसके पास अपनी बात सार्वजनिक कहने की ताक़त है तो यह गम्भीर मामला है। क्या अमृतपाल सिंह का भी ‘बिल्ड-अप’ हो रहा है, जैसे भिंडरावाले का हुआ था ?
स्थिति को सम्भालने की बहुत ज़रूरत है कि कहीं फिर वहां न पहुंच जाए जहां से वापिस आना कठिन हो। बहुत ज़िम्मेवारी सिख नेतृत्व और बुद्धिजीवियों की है कि वह सिख राजनीति को कट्टरपंथी मोड़ लेने से बचाएं। पिछली बार सब ख़ामोश रहे जिसके विनाशकारी परिणाम निकले। अब फिर अमृतपाल सिंह जैसों को सही रास्ते पर रखने का कोई प्रयास नहीं हो रहा, उल्टा प्रोत्साहित किया जा रहा हैजैसे बाग़ी अकाली नेताओं के उसके घर जाने से पता चलता है। एसपीजीसी के प्रधान हरजिनदर सिंह धामी का कहना है कि केन्द्र और प्रदेश सरकारें सिखों के साथ भेदभाव कर रही हैं। यह पुराना विलाप बेबुनियाद है कि इस देश में सिखों के साथ भेदभाव किया जा रहा है। ज्ञानी ज़ैल सिंह राष्ट्रपति रह चुके हैं, डा. मनमोहन सिंह दस साल प्रधानमंत्री रहे। सेना के उच्च पदों पर सिख तैनात रहे। एयर मार्शल अर्जुन सिंह और लै.जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा का नाम तो इतिहास में दर्ज है। कुछ महीने पहले तक अमेरिका में हमारे प्रभावशाली राजदूत तरनजीत सिंह संधु थे। अर्शदीप सिंह को उसकी लाजवाब गेंदबाज़ी के लिए सारे देश ने सर पर उठाया है। और बताने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि सिख भारत के समाज का गौरवशाली हिस्सा है। फिर यह झूठा प्रचार क्यों किया जाए कि सिखों से ‘धक्का’ हो रहा है? अपनी दुकान क़ायम रखने के लिए यह लोग अनावश्यक टकराव पैदा करने की कोशिश क्यों करते रहते हैं?
जहां सिख नेतृत्व को आत्म चिंतन करना चाहिए वहां केन्द्र को पंजाब केप्रति अधिक गम्भीरता दिखानी चाहिए। कश्मीर में फिर से आतंकवाद सर उठा रहा है इसलिए ज़रूरी है कि पंजाब को शांत रखा जाए। देश से बाहर बहुत लोग हैं जो पंजाब को अस्थिर करना चाहते हैं। कनाडा सरकार की भी शह लगती है। समस्या की जड़ है कि पंजाब तरक्की नहीं कर रहा, वह ठहर गया है। यहां केन्द्र सरकार की सक्रिय भूमिका चाहिए। किसानों से फिर बात शुरू करनी चाहिए। नए कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान संवेदनशील इंसान लगते हैं। उन्हें पंजाब की तरफ़ गम्भीरता से गौर करना चाहिए। किसानी का संकट पंजाब की हर समस्या की जड़ है। रोज़गार के साधन कम हो गए हैं इसीलिए युवा बाहर भाग रहे हैं। अग्निवीर योजना के कारण सेना का आकर्षण कम हो रहा है। उद्योग के लिए पंजाब आकर्षक नहीं रहा। रोज़ के धरने निवेश को निरुत्साहित कर रहे हैं। ऊपर से अमृतपाल सिंह और सरबजीत सिंह खालसा की भारी जीत से सारे देश में बहुत ग़लत संदेश गया है। पंजाब सरकार को भी बेहतर प्रदर्शन दिखाना होगा। लुधियाना में सरे बाज़ार हथियारबंद निहंगों द्वारा शिवसेना के नेता पर हमला बताता है कि क़ानून और व्यवस्था की हालत कितनी नाज़ुक है। केन्द्र और पंजाब सरकार दोनों को मिल कर सामने आ रहे ख़तरे का सामना करना चाहिए। यह राजनीति करने का मौक़ा नहीं है। कुछ तत्व बुझी हुई राख को हवा देने की कोशिश कर रहे हैं। यह पंजाब और देश दोनों की शान्ति और भाईचारे के लिए ख़तरा है। अतीत को भविष्य बनने से रोकना है।