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कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे...

02:34 AM Jan 16, 2024 IST | Sagar Kapoor
कारवां गुजर गया  गुबार देखते रहे

अपने हावभाव में जमाने भर की शिकन लिए हुए उनींदी आंखों वाले उस शख्स को रात ढले सुनना हमेशा ही कम पड़ जाया करता था, वो बस थोड़ी सी और सुना देते...हम थोड़ी सी और सुन लेते..! यही तो उस कवि, उस शायर और उस गीतकार का कमाल था! अनूठी शख्सियत वाले गोपालदास सक्सेना को न वक्त कभी दरकिनार कर पाया और न उनके जाने के बाद कोई उन्हें भुला पाया। वे हमारे दिलों में गोपालदास नीरज के रूप में सदाबहार हैं, उन्होंने ठीक ही तो लिखा था...
इतना बदनाम हुए हम तो इस जमाने में
तुमको लग जाएंगी सदियां हमें भुलाने में
इसी महीने की चार तारीख को उनका जन्म शताब्दी वर्ष प्रारंभ हुआ है तो उनकी यादें फिर से जगमगाने लगी हैं, उनसे मेरी मुलाकात कराई थी डॉ. हरीश भल्ला ने, नीरज का स्नेह और मुलाकातों के अनगिनत दौर के साथ फुर्सत के क्षण में उनकी फलसफे वाली कहानियां और खरज वाली आवाज में गुनगुनाना-सब यादों के आंगन में उतर आया है, उस शख्स ने प्रेम गीत लिखे तो ऐसे लिखे कि मदहोशी छा गई।
शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब/उसमें फिर मिलाई जाए थोड़ी सी शराब/होगा यूं नशा जो तैयार, वो प्यार है...
प्रेम और शृंगार को उन्होंने जिस तरह से शब्दों में पिरोया वैसा कमाल देखने को कम ही मिलता है..
देखती ही रहो आज दर्पण न तुम
प्यार का ये मुहूर्त निकल जाएगा..
चूड़ियां ही न तुम खनखनाती रहो
ये शरमसार मौसम बदल जाएगा..
मुस्कुराओ न ऐसे चुराकर नजर
आइना देख सूरत मचल जाएगा...
जमाना उन्हें प्रेम रस में डूबे कवि, शायर और गीतकार के रूप में याद करता है लेकिन मैंने उनसे बतियाते हुए कई शामें गुजारी हैं... उनसे किस्से भी खूब सुने और उन्हें पढ़ा भी खूब, मेरी नजर में उनकी रचनाएं जिंदगी के हर मर्म को परिभाषित करती लगती हैं। इसका कारण भी है उन्होंने फर्श की धूल को फांका तो अर्श का भी भरपूर लुत्फ उठाया। टाइपिस्ट से लेकर प्राध्यापक तक की नौकरी की। मुफलिसी भी देखी और महफिलों की शान भी बने। मगर जिंदगी को कभी खुद से दूर नहीं होने दिया, समाज की विडंबना को वे बेधड़क नग्न करके सामने रख देते हैं उन्होंने लिखा...
है बहुत अंधियार अब सूरज निकलना चाहिए
जिस तरह से भी हो ये मौसम बदलना चाहिए
रोज जो चेहरे बदलते हैं लिबासों की तरह
अब जनाजा जोर से उनका निकलना चाहिए...
नीरज इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि प्रेम के रथ पर सवार होकर अन्याय के खिलाफ अस्त्र फेंका जा सकता है, उन्होंने लिखा...
अब तो मजहब कोई ऐसा चलाया जाए
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए...
नीरज की रचनाओं में प्रेम और दर्द घुला मिला हुआ है, 1958 में आकाशवाणी लखनऊ से उनकी रचना प्रसारित हुई...
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे...
...तो युवा उनके दीवाने हो उठे, हर महफिल के लिए नीरज की मांग सिर चढ़कर बोलने लगी। इस रचना ने उनकी शख्सियत को नया अंदाज दिया, एक दिन नीरज ने मुझे देवानंद के साथ मुलाकात का किस्सा सुनाया था। देवानंद से मेरी भी बहुत निकटता थी, देवानंद एक मुशायरे में अतिथि बनकर कोलकाता गए थे। उन्होंने नीरज को गीत पढ़ते सुना, उस जमाने में भी देवानंद बड़ी शख्सियत थे लेकिन उन्होंने नीरज के पास आकर कहा कि कभी फिल्मों के लिए लिखना चाहो तो बताना। काफी वर्षों बाद नीरज को देवानंद याद आ गए।
उन्होंने एक पत्र लिखा और देवानंद का बुलावा आ गया। नीरज मुंबई पहुंचे तो देवानंद ने पांच सितारा होटल में रुकवाया, सचिन देव बर्मन से मुलाकात होते ही शर्त रख दी कि गीत के बोल ‘रंगीला रे’ से शुरू होने चाहिए, उसी रात नीरज के जेहन से फिल्म प्रेम पुजारी का गीत उपजा...
रंगीला रे... तेरे रंग में यूं रंगा है मेरा मन, छलिया रे...ना बुझे है किसी जल से ये जलन!
मैं तो इस गीत की कुछ पंक्तियां ही यहां लिख रहा हूं लेकिन एक बार फिर से इस गाने को जरूर सुनिएगा। जिंदगी का पूरा फलसफा इसमें आपको मौजूद मिलेगा, नीरज से जब भी मुलाकात होती थी तो लगता था जैसे उन्हें सुनते ही रहें, न केवल गीत, गजल, शायरी या कविता बल्कि उनकी बातें इतनी रूहानी होती थीं कि आप उनके मुरीद हुए बिना न रह पाएं। वे जिंदगी से जुड़े हर विषय को बिल्कुल अलग अंदाज में देखते थे। अंदाज ऐसा कि इस जहां में रह रहे हैं और हर जहां की खबर रख रहे हैं। उनकी रूह बड़ी आध्यात्मिक सी लगती थी और वे कहते भी थे कि मैं प्रेम का नहीं अध्यात्म का कवि हूं, वे हरिवंशराय बच्चन के बड़े मुरीद थे। एक दिन बस से सफर कर रहे थे और उसी दौरान उन्होंने हरिवंशराय बच्चन से कहा था कि आप जैसा मशहूर होना चाहता हूं, वाकई नीरज बेइंतहा मशहूर हुए, आज उनकी कुछ और पंक्तियां याद आ रही हैं...
जब चले जाएंगे हम लौट के सावन की तरह
याद आएंगे प्रथम प्यार के चुम्बन की तरह...
आज की रात तुझे आखिरी खत और लिख दूं
कौन जाने यह दिया सुबह तक जले न जले?
बम बारूद के इस दौर में मालूम नहीं
ऐसी रंगीन हवा फिर कभी चले न चले...
नीरज को वाकई हम कभी भुला न पाएंगे..!

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Sagar Kapoor

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