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Gandhi and Ambedkar in Parliament: संसद में गांधी और अम्बेडकर

05:38 AM Jun 21, 2024 IST
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Gandhi and Ambedkar in Parliament: समाजवादी नीतियों के प्रबल समर्थक और गांधीवाद के संवाहक नेता स्व. शरद यादव पुरजोर तरीके से कहा करते थे कि संसद कोई मन्दिर नहीं है बल्कि देश के करोड़ों लोगों की आजादी की ललक की जीती-जागती तस्वीर है जिसमें भारत की जनता की समस्याओं का निदान किया जाता है। यह ऐसी इमारत है जिसके भीतर समाज के सबसे गरीब व मुफलिस नागरिक की अपेक्षाओं को उड़ान देने की अद्भुत क्षमता है। इस इमारत के भीतर करोड़ों इंसानों की आकांक्षाओं की प्रतिध्वनी गुंजायमान रहती है। शरद यादव गांधीवाद के अहलकार के रूप में गांधी के स्वप्नों का भारत बनाना चाहते थे। अतः संसद परिसर के भीतर उसके मुख्य प्रवेश द्वार के ठीक सामने लगी महात्मा गांधी की प्रतिमा प्रत्येक सांसद को यह याद दिलाती रहती थी कि लोकतन्त्र की उस मर्यादा व प्रतिष्ठा की अनुपालना हो जिसका लक्ष्य देश में लोक कल्याणकारी राज स्थापना करना है। बेशक आजादी के समय से पहले ही संसद की पूरी इमारत तैयार हो चुकी थी परन्तु इसके भीतर महात्मा गांधी व संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर की प्रतिमाएं लगा कर देशवासियों को यह आश्वासन दिया गया था कि जब भी इसके भीतर सत्ता व विपक्ष के बीच किसी मुद्दे पर बहस होगी तो उसके मूल में जनहित की भावना सदैव उपस्थित रहेगी। गांधी जी यही कर गये थे कि सरकार को हर काम करने से पहले यह सोचना चाहिए कि उसके निर्णय का समाज के अन्तिम गरीब आदमी पर क्या असर पड़ेगा परन्तु संसद के भीतर लगी इन दोनों राष्ट्र निर्माताओं की मूर्तियों को अपने मूल स्थान से स्थानान्तरित कर दिया जिसकी भनक विपक्षी दलों को भी मूर्तियां हटने के बाद लगी।

दरअसल गांधी जी वह व्यक्ति थे जिन्होंने अंग्रेजों के गुलाम भारत में 1934 में ही कह दिया था, आजाद होने पर भारत संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली अपनाएगा और हर मजहब व जाति तथा जातीय वर्ग के लोगों को वयस्क आधार पर एक वोट का अधिकार दिया जायेगा जिसकी मार्फत सरकार का गठन होगा। गांधी ने लोगों को अपनी सरकार चुनने का अधिकार पाने का आश्वासन 1934 में ही दे दिया था जिस पर लन्दन स्थित ब्रिटिश संसद के दोनों सदनों में भी जमकर बहस हुई थी। संसद परिसर में भारत के बहुत से जननायकों की प्रतिमाएं लगी हुई हैं जिनमें जवाहर लाल नेहरू से लेकर मार्क्सवादी पार्टी के नेता ए.के. गोपालन की प्रतिमाएं भी शामिल हैं। भारत की युवा पीढि़यों को सर्वदा लोकतन्त्र की गरिमा का ध्यान दिलाने के लिए ये मूर्तियां लगाई गईं जिससे केवल सांसदों को ही अपना कर्त्तव्य निभाने की प्रेरणा न मिले बल्कि संसद परिसर में आने वाले विशिष्ट विदेशी मेहमान यह भावना लेकर जायें कि भारत के लोग अपने राष्ट्र नेताओं को सर्वोच्च सम्मान देते हैं। इन राष्ट्र नेताओं के योगदान पर शक की अंगुली नहीं उठायी जा सकती क्योंकि भारत के लोकतन्त्र में आम गरीब आदमी के लिए इन नेताओं ने हमेशा रौशन ख्याली और विकास का काम किया। यह गांधी की प्रेरणा ही थी कि भारत में एेसा लोकतन्त्र स्थापित हुआ जिसमें सभी राजनैतिक दलों को संविधान के अनुसार लोगों द्वारा चुने जाने पर संसद में बैठ कर चर्चा और निस्तारण करने का अधिकार मिला था।

संसद परिसर में तो हमने राणा प्रताप व शिवाजी महाराज की प्रतिमाएं भी स्थापित कर रखी हैं। बेशक इन दोनों महान व्यक्तित्वों के समय में कोई लोकतान्त्रिक प्रणाली नहीं थी और भारत राजशाही से चल रहा था परन्तु इन दोनों ने स्वराज के लिए समाज के पिछड़े लोगों को जोड़कर तत्कालीन बादशाहों की ताकत से टकराने के प्रयास किये थे। बेशक कुछ ज्ञानी कह सकते हैं कि उनकी लड़ाई अपनी-अपनी रियासतों को बचाने की थी मगर उस दौर में किसानों,मजदूरों व आदिवासियों को जोड़कर शाही ताकत से टकराना एक जन आन्दोलन जैसा ही था। अतः संसद की मूर्ति व सांस्कृतिक समिति ने उन्हें महत्वपूर्ण इन स्थानों पर लगाया था जिससे विदेशी मेहमानों से लेकर भारतीय आगन्तुकों को भारत की लोकशक्ति का अंदाजा हो सके। महात्मा गांधी की प्रतिमा तो 1993 में ही स्व. नरसिम्हा राव के कार्यकाल के दौरान लगी थी जबकि डा. अम्बेडकर की प्रतिमा 1967 में ही लगा दी गई थी। इन प्रतिमाओं को लगाने से पहले विभिन्न राजनैतिक दलों के बीच खुल कर राय-मशविरा हुआ था परन्तु इन्हें हटा कर दूसरे किसी एक कोने में स्थापित करने के बारे में कोई विचार-विमर्श ही नहीं हुआ। संसद भवन परिसर में लोकसभा अध्यक्ष का फरमान चलता है। उनकी मर्जी के बिना पूरे परिसर में पत्ता तक नहीं हिल सकता अतः अध्यक्ष को ही इस मामले में सभी दलों के नेताओं से विचार-विमर्श करना चाहिए था।

आखिरकार गांधी जी राष्ट्रपिता कहलाये जाते हैं और डा. अम्बेडर संविधान निर्माता। प्रख्यात समाजवादी चिन्तक डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे कि लोकतन्त्र लोकलज्जा से चलता है। हमारी संसद की परंपरा है कि लोकसभा अध्यक्ष का चुनाव प्रायः सर्वसम्मति से ही होता है। महात्मा गांधी का यह कथन भी हर दौर में सामयिक रहेगा कि मैं अपने विरोधी के विचार उसे अपने से ऊपर सिंहासन पर बैठा कर सुनना पसन्द करूंगा । अतः सर्वसम्मति से चुने गये अध्यक्ष का यह दायित्व हो जाता है कि वह कोई भी महत्वूर्ण निर्णय लेने से हर प्रमुख दल की राय संसदीय समितियों की मार्फत जाने। भारत के लोकतन्त्र की पूरी दुनिया में साख इसी वजह से बनी हुई है इसमें संसद की मार्फत जो भी निर्णय लिये जाते हैं वे एक पक्षीय नहीं होते हैं क्योंकि संसद में बैठने वाले सांसदाें में विपक्ष के नेता भी होते हैं। उन्हें भी भारत की जनता ही चुनकर संसद में भेजती है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों से कुछ राजनैतिक दल असहमत हो सकते हैं मगर इससे कोई असहमत नहीं हो सकता कि गांधी जी को राष्ट्रपिता का दर्जा पहली बार नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने ही दिया था जबकि उन्होंने गांधी के अहिंसात्मक तरीकों से मतभेद रखते हुए सैनिक मार्ग से भारत की आजादी के आन्दोलन में अपना योगदान दिया था। गांधी का सबसे बड़ा हथियार ही अहिंसा थी। जिसका अनुसरण आज विश्व के बहुत से देशों तक में हो रहा है। गांधी और अम्बेडकर ऐसे दो राष्ट्र नायक हैं जिन्होंने लोकतन्त्र को सर्वदा सहमति से ही चलाने का विश्वास प्रकट किया।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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