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एनडीए दलों की साझा सरकार

03:46 AM Jun 11, 2024 IST
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प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की तीसरी नई सरकार पिछली दो सरकारों से कई मायनों में अलग हट कर है। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में म​​न्त्रिमंडलों की संख्या बहुत बड़ी-बड़ी पहले भी होती रही है किन्तु पहली बार 71 मन्त्रियों ने एक किश्त में शपथ ली है। बड़े मन्त्रिमंडलों की कई किश्तों में जाकर संख्या 90 से ऊपर पहुंची थी। ऐसा 1999 से 2004 तक चली वाजपेयी सरकार में हुआ था। 2014 में जब श्री मोदी ने पहली बार शपथ ली थी तो उनके मन्त्रिमंडल की प्रारम्भिक संख्या 45 थी औऱ दूसरी बार 2019 में यह 54 थी। 2014 में श्री मोदी ने नारा दिया था कि न्यूनतम सरकार अधिकतम प्रशासन परन्तु दोनों ही बार भाजपा को अपने बूते पर लोकसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ था हालांकि चुनाव गठबन्धन एनडीए के छाते तले ही लड़े गये थे। पिछली सरकारों में भी भाजपा ने अपने एनडीए के सहयोगी दलों को सरकार में जगह दी थी परन्तु सांकेतिक अधिक थी क्योंकि भाजपा अपने ही बूते पर सरकार बनाने में सक्षम थी। परन्तु इस बार स्थिति एेसी नहीं है। भाजपा को अपने बूते पर बहुमत नहीं मिला है और लोकसभा में उसकी केवल 240 सीटें ही आयी हैं। अतः सहयोगी दलों को उसे उनका वाजिब बड़ा हिस्सा देना पड़ा है।

इस बार एक सांसद वाले सहयोगी दल हिन्दुस्तानी अवामी मोर्चा के नेता जीतन राम मांझी को भी एक केबिनेट स्तर का मन्त्री पद देना पड़ा है। इसी प्रकार दो सांसद वाली पार्टी जनता दल (एस) को भी एक केबिनेट स्तर का मन्त्री पद देना पड़ा है। जबकि सात सांसद वाली शिवसेना (शिन्दे ) को एक राज्यमन्त्री स्वतन्त्र प्रभार से भी सन्तुष्ट करने का प्रयास किया गया है। गठबन्धन सरकारों में इस प्रकार के विरोधाभास प्रायः देखने को मिल जाते हैं परन्तु इस बार भाजपा को कुल 11 मन्त्री सहयोगी दलों से लेने पड़े हैं जिनमें से पांच केबिनेट स्तर के मन्त्री हैं। 2014 में अपने मन से भाजपा ने सहयोगी दलों को कुल पांच मन्त्री पद दिये थे जिनमें से चार केबिनेट स्तर के मन्त्री थे। इसी तरह 2019 में कुल चार पद दिये गये थे जिनमें से तीन केबिनेट स्तर के मन्त्री थे। ये मन्त्री भाजपा ने एनडीए के प्रति शुभेच्छा व्यक्त करते हुए बिना किसी मजबूरी के दिये थे परन्तु इस बार 2024 में स्थिति ऐसी नहीं है। भाजपा की सरकार इन सहयोगी दलों पर ही निर्भर करती है। क्योंकि उनके साथ मिल कर ही उसका लोकसभा में पूर्ण बहुमत का आंकड़ा बनता है अतः कम संख्या में होने के बावजूद इस सरकार की चाबी उनके हाथ में है परन्तु गठबन्धन रुआब से नहीं बल्कि सहकार और सहयोग से चलते हैं। इसमें एक सांसद वाले दल का भी महत्व होता है। क्योंकि सभी के जमा-जोड़ से बहुमत बनता है। इसका अपना धर्म भी होता है।

इसमें सभी बड़े-छोटे दल बराबर होते हैं। संसद के भीतर सरकार को पग-पग पर परीक्षा देनी होती है। मोदी सरकार में सबसे बड़ा सहयोगी दल आन्ध्र प्रदेश की तेलगू देशम पार्टी है जिसके 16 सदस्य हैं। यह पार्टी यदि लोकसभा अध्यक्ष चाहती है तो इसमें किसी प्रकार की बुराई नहीं है। लोकतन्त्र में गठबन्धन सरकारों के बीच इस प्रकार लेना-देना होता है जिसे सौदेबाजी नहीं कहा जा सकता बल्कि यह सत्ता का सन्तुलन होता है जो अन्ततः गठबन्धन सरकारों के स्थायित्व का प्रेरक होता है। पिछली वाजपेयी सरकार के दौरान भी तेलगू देशम पार्टी एनडीए के साथ थी और इसने वाजपेयी सरकार को बाहर से समर्थन देकर अध्यक्ष पद पर अपने नेता जी.एम. बालयोगी को बैठाया था। हालांकि श्री बालयोगी की बीच में ही 2002 में एक विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी परन्तु वाजपेयी सरकार को कोई खटका नहीं रहा था क्योंकि श्री योगी की मृत्यु के बाद अध्यक्ष पद शिवसेना के मनोहर जोशी को दे दिया गया था। वाजपेयी सरकार पूरे पांच साल चली थी। इसी प्रकार 2004 में जब यूपीए की डा. मनमोहन सिंह की सरकार बनी तो अध्यक्ष पद इस सरकार को बाहर से समर्थन करने वाले वामपंथी समूह के प्रत्याशी श्री सोमनाथ चटर्जी को दिया गया। श्री चटर्जी मार्क्सवादी पार्टी के सदस्य थे परन्तु जब वह लोकसभा अध्यक्ष पद पर बैठे तो ‘विक्रमादित्य’ हो गये।

तेलगू देशम के बाद मोदी सरकार का सबसे बड़ा घटक दल बिहार की नीतीश बाबू की जनता दल (यू) पार्टी है जिसके 12 सदस्य हैं। इन दोनों पार्टियों ने चार मन्त्री पद लिये हैं जिनमें दो केबिनेट स्तर के मन्त्री हैं और दो राज्य मन्त्री हैं। इसका मतलब यह है कि ये दोनों पार्टियां इतने मन्त्री पदों से सन्तुष्ट हैं मगर अध्यक्ष पद चाहती हैं। इसका मुख्य कारण यह लगता है कि ये दोनों पार्टियां मूल रूप से जमीनी स्तर की लोकतन्त्रवादी पार्टियां हैं औऱ उन्हें लोकसभा का पिछला इतिहास याद है जिसमें संसद की कार्यवाही को पुराने अध्यक्ष जिस अंदाज से चलाते थे उसकी आलोचना उस समय इन दलों के नेताओं ने भी की थी। अतः ये पार्टियां अपना दामन पाक-साफ रखने की गरज से अध्य़क्ष पद पर इसरार करती दिखाई पड़ती हैं। पिछली लोकसभा बिना उपाध्यक्ष पद के ही समाप्त हो गई। उपाध्यक्ष पद का चुनाव कराना अध्यक्ष की जिम्मेदारी होती है। अध्य़क्ष यदि इन पार्टियों में से किसी एक का होगा तो उपाध्यक्ष पद पर सदन की परंपरा के अनुसार विपक्षी गठबन्धन इंडिया का कोई सांसद बैठेगा। अतः इंडिया गठबन्धन भी परोक्ष रूप से तेलगू देशम व जनता दल (यू) की अध्यक्ष पद की मांग का समर्थन कर रहा है क्योंकि अध्यक्ष पद पर लोकसभा की परंपरानुसार सर्वसम्मति से ही चुनाव कराया जाता है। अतः गठबन्धन सरकारों में लोकतान्त्रिक मर्यादाओं व पंपराओं का सम्मान सबसे ज्यादा होते हुए हम देखते हैं जो कि संसदीय लोकतन्त्र के स्वास्थ्य के लिए राम औषधि का काम करता है।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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