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फिर जवानों की शहादत

06:05 AM Jun 25, 2024 IST
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नक्सलवाद से प्रभावित छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में नक्सलियों द्वारा आईईडी लगाकर पुलिस वाहन उड़ाए जाने से दो जवान शहीद हो गए। यह पुलिस वाहन जवानों के लिए राशन लेकर जा रहा था। इस हमले में यही संकेत है कि नक्सली अभी भी सुरक्षा बलों की गतिविधियों को डैैमेज कर हावी होना चाहते हैं। धमाके में कांस्टेबल शैलेन्द्र और ट्रक चालक विष्णु आर. की मौत हो गई। शहीद जवान शैलेन्द्र कानपुर के महाराजपुर थाना क्षेत्र के पुरवामीर गांव का रहने वाला था। तीन माह पहले ही उसकी शादी हुई थी। शहीद की पत्नी के हाथाें से अभी मेहंदी भी नहीं छुटी कि नक्सलियों ने उसकी जिंदगी उजाड़ दी। शहीद हुए जवान विष्णु आर. के घर भी मातम का माहौल है। शहीद जवान कोबरा फोर्स का​ हिस्सा थे। कोबरा फोर्स के जवानों को जंगल का योद्धा माना जाता है। इन जवानों को नक्सलियों से गुरिल्ला युद्ध करने में दक्षता हासिल होती है। इस वर्ष जनवरी से लेकर अब तक हुए नक्सली हमलों में लगभग 9 जवान शहीद हो चुके हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि राज्य सरकार और केन्द्र की नक्सलवाद को खत्म करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञा है और लाल आतंक पूरी तरह से दम तोड़ चुका है। अप्रैल माह में कांकेर में हुई मुठभेड़ में सुरक्षा बलों ने कई नक्सलवादियों को मौत के घाट उतार दिया था। छत्तीसगढ़ में भाजपा की वापसी के बाद 80 से ज्यादा नक्सली ढेर किए जा चुके हैं। 150 से ज्यादा नक्सली आत्मसमर्पण कर चुके हैं।

जिन जिलों में नक्सलवाद का प्रभाव है इसमें सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य झारखंड जहां 16 जिले हैं। वहीं छत्तीसगढ़ में नक्सल प्रभावित 14 जिले शामिल हैं। छत्तीसगढ़ में नक्सल प्रभावित जिलों की बात करें तो बस्तर, बलरामपुर, गरियाबंद, दंतेवाड़ा, कांकेर, नारायणपुर, सुकमा, बीजापुर, धमतरी, कोंडागांव, महासमुंद, राजनांदगांव, कवर्धा और मुंगेली शामिल हैं। छत्तीसगढ़ में पिछले 14 सालों में हुए नक्सली हमलों की बात करें तो यहां अन्य राज्यों की अपेक्षा सबसे ज्यादा नक्सली मुठभेड़ की खबरें सामने आती रहती हैं। जानकारी के मुताबिक छत्तीसगढ़ में पिछले 14 सालों के भीतर 1582 नक्सली मुठभेड़ हुई हैं। इन मुठभेड़ाें के दौरान 1452 नक्सली मारे गए हैं। इस बीच 1002 आम नागरिकों की भी मौत हुई है। वही इन हमलों में 1222 जवान शहीद हो चुके हैं।

नक्सलवाद के विरुद्ध लगातार सफलताओं के बावजूद इस पर पूरी तरह लगाम लगाने के बावजूद हमारा तंत्र पूरी तरह से कामयाब नहीं हो पाया है। इसमें कहीं न कहीं चूक हो जाती है। नक्सली जब भी कमजोर होते हैं वह इधर-उधर बिखर जाते हैं और अपनी शक्ति संग्रहित कर फिर हमले शुरू कर देते हैं।इन तमाम सवालों को समझने के लिए नक्सलवाद के संक्षिप्त इतिहास एवं इसके राजनीतिकरण की वजहों को समझना जरूरी होगा। इसमें कोई शक नहीं कि 60 के दशक में चारु मजुमदार के नेतृत्व में हक और हकूक की लड़ाई के नाम पर पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से नक्सल आन्दोलन शुरू हुआ था। शुरूआती दौर में इसे एक राजनीतिक आन्दोलन बताया गया था। मगर समय के साथ-साथ यह आन्दोलन अपने मूल चरित्र के साथ सामने आता गया और आज इसका असली चरित्र सबके सामने है। पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ वह तथाकथित आंदोलन आज आंदोलन भी कहा जाना चाहिए कि नहीं यह बात आज बहस के घेरे में है। हक और हकूक की लड़ाई कब और किस तरह आंदोलन से भटक कर आतंकवाद का रूप पकड़ लेती इसका प्रमाण पिछले कुछ सालों में हुई नक्सली वारदातों से मिलता रहा है।

हालांकि इस हिंसा की प्रवृति को जनता आंदोलन का नाम देकर बौद्धिक पोषण देने का काम भी होता रहा है लेकिन हिंसा की शर्तों पर एक लोकतांत्रिक राज्य को चुनौती देना किसी भी नजरिये से न तो लोकतांत्रिक कहा जा सकता है न ही मानविक ही कहा जा सकता है। नक्सल प्रभावित राज्यों में हुए पिछले तमाम चुनावों ने यह साबित किया है कि वहां की स्थानीय जनता, जिनकी आड़ लेकर नक्सलवादी इस हिंसाचार को अंजाम दे रहे हैं, ने नक्सलवाद को पूरी तरह से खारिज किया है।

छत्तीसगढ़ विधानसभा और लोकसभा चुनाव में लोगों ने जबर्दस्त विरोध किया। यह समझना जरूरी है कि नक्सलवाद विकास में बाधित है। नक्सलवाद जाएगा तो विकास होगा। सुरक्षा बलों को नक्सलवाद के नासूर से देश को छुटकारा दिलाने के लिए बिना किसी चूक के अभियान चलाने होंगे ताकि किसी जवान का खून न बहे और फिर कोई दुल्हन विधवा न हो।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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