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मोदी मंत्र : राष्ट्रीय मुद्दे पर सब निकट आएं

06:25 AM Jun 12, 2024 IST
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नरेंद्र मोदी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेकर इतिहास रच दिया है। नया मंत्रिमंडल शपथ ले चुका है और विभागों का बंटवारा भी हो चुका है। मोदी सरकार के सामने चिंता और चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं जिनसे उन्हें निपटना होगा। असल में एनडीए की सरकार में भाजपा की स्थिति पिछले दो बार की मोदी सरकार से कमजोर है। इस बार भाजपा अपने दम पर पूर्ण बहुमत हासिल नहीं कर पाई। उसे बहुमत के लिए घटक दलों की मदद की जरूरत पड़ी। पिछली सरकारों में मंत्रिमंडल में घटक दलों को स्थान मिला था लेकिन इस बार हालात बदले हुए हैं। इसका असर मंत्रिमंडल के गठन में साफतौर पर दिखाई दे रहा है। गठबंधन का परिदृश्य भारत के लिए कोई नई बात नहीं है। हालांकि बहुमत से दूर गठबंधन सरकारों के लिए सरकार चलाना चुनौती भरा होता है। सीटों के कम होने से गठबंधन सहयोगियों की सौदेबाजी करने की ताकत बढ़ जाती है जिससे शासन करना और नीतियों का कार्यान्वयन जटिल हो जाता है। नई सरकार के समक्ष आने वाली चुनौतियों की बात की जाए तो मोदी को गठबंधन सहयोगियों को संभालने के लिए अपने राजनीतिक करियर में सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा।

वहीं मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल में सरकार में शामिल दलों के एजेंडे के हिसाब से चलने की भी चुनौती होगी। खासकर तेलगू देशम पार्टी और जनता दल यूनाइटेड के एजेंडे मोदी सरकार की नीतियों को प्रभावित करेंगे। गठबंधन में ही बहुमत और राजधर्म निहित हैं। चूंकि यह गठबंधन की सरकार है, किसी एक दल के पक्ष में बहुमत का जनादेश नहीं है तो उसके मायने ये नहीं है कि गठबंधन की निरंतरता और स्थिरता का ही रोना रोया जाए अथवा बहानों के लिए गठबंधन की आड़ में छिपा जाए। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में ही यह एनडीए-3 सरकार है और 2014 की निरंतरता में ही है। फर्क सिर्फ इतना है कि भाजपा को बहुमत नहीं मिला है और सरकार की स्थिरता गठबंधन के घटक दलों के सहारे ही है। बिल्कुल ऐसा भी नहीं है, क्योंकि जब 1991 में नरसिम्हा राव सरकार बनी थी तब कांग्रेस के 232 सांसद ही थे। सरकार पूरे पांच साल चली, यह दीगर है कि कुछ कलंक और दाग लग गए थे जो लोकतंत्र को बदनाम करते हैं। कमोबेश अब भाजपा के पास 240 सांसद हैं और कुछ निश्चित समर्थक भी हैं।

बहुमत के लिए खरीद-फरोख्त की नौबत शायद न आए। बहरहाल मौजूदा संदर्भ में हमें तेलगू देशम पार्टी (टीडीपी) और जद-यू की ही चिंता नहीं करनी चाहिए। उन्हें भी समविचारक भारत सरकार की जरूरत है जो उनकी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति कर सके। दोनों ही दलों के राज्य गरीब और विपन्न हैं। दोनों ही राज्य कर्जदार हैं। अन्य सरकार उनकी जरूरतों को संबोधित नहीं कर सकती। प्रधानमंत्री मोदी की सरकार का राजधर्म यह है कि जब भी कोई बड़ा और गंभीर फैसला लेना हो तो विमर्श की मेज पर सभी सहयोगी दलों के नेता मौजूद हों और फैसला सर्वसम्मति से किया जाना चाहिए। खुद प्रधानमंत्री ऐसी भावना व्यक्त कर चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने एनडीए को ‘ऑर्गेनिक’ और ‘सफलतम’ गठबंधन करार दिया है। वह जनादेश के मर्म को जानते हैं और अलग-अलग राज्य और दल की भिन्नता महसूस करते हैं, लिहाजा कुछ समझौते परस्त होना भी अपेक्षित है। गठबंधन सरकारों के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ. मनमोहन सिंह भी थे, जिन्होंने अपने कार्यकाल बखूबी निभाए। डॉ. मनमोहन सिंह तो 10 साल तक गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री रहे। दूरसंचार, पेंशन, सरकारी घाटे पर लगाम कसने की व्यवस्था, बिजली और बीमा क्षेत्र के कई बड़े सुधारवादी फैसले वाजपेयी सरकार के दौरान लिए गए। मनमोहन सरकार के दौरान अमेरिका के साथ असैन्य परमाणु करार जैसे संवेदनशील फैसले के अलावा मनरेगा, खाद्य सुरक्षा, अनिवार्य-मुफ्त प्राथमिक शिक्षा, सूचना के अधिकार, भूमि अधिग्रहण कानून आदि पारित कराए गए। इनके अलावा पैट्रोलियम उत्पादों को बाजार के हवाले करने सरीखे बड़े फैसले भी लिए गए। चूंकि अब भाजपा अल्पमत में है, लिहाजा एनडीए की गठबंधन सरकार, गठबंधन धर्म और मोदी सरकार के राजधर्म की अग्निपरीक्षा का यह दौर है। हालांकि हमें कोई बड़ा संकट या राजनीतिक दरारों के हालात नहीं लगते, क्योंकि आर्थिक विकास और आर्थिक सुधारों के पक्षधर चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार भी हैं। फिर भी असली चुनौती तब सामने आएगी जब प्रधानमंत्री टीडीपी और जद-यू दोनों को ही निर्णय की मेज पर बुलाएंगे और सर्वमत नहीं बन पाएगा।

विपक्ष ने अग्निवीर योजना पर सवाल खड़े किए हैं जिसकी समीक्षा की जरूरत हो सकती है, खासकर ऐसी स्थिति में जब कई सेवानिवृत्त जनरलों ने सेना के लिए उनकी दीर्घकालिक उपयोगिता को लेकर अपनी आशंका जताई हो। विदेश नीति के मुद्दों को लिया जाए तो मालदीव, नेपाल जैसे पड़ोसी भारत से दूर हो गए हैं। इस पर मुद्दे पर ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि उनका रुख चीन की ओर हो गया है। चीन क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए उनका उपयोग कर रहा है। पाकिस्तान के साथ रिश्तों में राजनीतिक मुद्दों को एक तरफ रखते हुए भारत को व्यापार संबंध बनाने की पहल पर प्रतिक्रिया देनी चाहिए। शरीफ बंधुओं को इससे कोई आपत्ति नहीं होगी। अतीत की जिन गठबंधन सरकारों को अस्थिर करने के पीछे सबसे ज्यादा क्षेत्रीय पार्टियों और उनके नेताओं के अपने स्वार्थों और राजनीति की भूमिका बड़ी रही। चूंकि इस बार बीजेपी को खुद का बहुमत नहीं मिला है। इसके साथ ही उसके गठबंधन के साथी नीतीश कुमार और एन. चंद्रबाबू नायडू बड़ी ताकत बनकर उभरे हैं, इसलिए यह आशंका जताई जाने लगी है कि क्या डबल इंजन की सरकार की बात पुरानी हो जाएगी? क्या ये क्षत्रप भारतीय जनता पार्टी की सरकार को आराम से चलने देंगे? अतीत के इन नेताओं के कदमों को देखें तो यह आशंका भी बेमानी नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ऐसे केंद्र की कल्पना कर रहे हैं जो राज्यों को अपने साथ लेकर आगे बढ़े और उनकी बात गौर से सुने। उन्होंने प्रतिस्पर्धी और सहकारी संघवाद के मॉडल की भी बात की है। राष्ट्र के मुद्दे पर सभी करीब आएं और एक साथ काम करें। इसी संदर्भ में विपक्ष की भूमिका की नई परिभाषा प्रधानमंत्री मोदी ने दी है।

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