India WorldDelhi NCR Uttar PradeshHaryanaRajasthanPunjabJammu & Kashmir Bihar Other States
Sports | Other GamesCricket
Horoscope Bollywood Kesari Social World CupGadgetsHealth & Lifestyle
Advertisement

नीतीश, नायडू और विशेष राज्य

03:05 AM Jun 15, 2024 IST
Advertisement

भारतीय सं​विधान में किसी प्रान्त को विशेष राज्य का दर्जा दिये जाने का प्रावधान कुछ खास शर्तों के साथ है। इन शर्तों में सबसे प्रमुख शर्त यह है कि वह राज्य अत्यन्त पिछड़ा हुआ होना चाहिए और उसके राजस्व के स्रोत नाम मात्र के होने चाहिए। परन्तु भारत में जीएसटी (माल व सेवाकर) प्रणाली शुरू होने के बाद अब राज्यों के राजस्व स्रोतों में समरूपता आयी है जिसकी गारंटी केन्द्र सरकार ने दी थी। यह समरूपता इस प्रकार लाई गई है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई राज्य मुख्य उत्पादक राज्य है अथवा मुख्य खपत करने वाला राज्य है। केन्द्रीय फार्मूले के अनुसार प्रत्येक राज्य को उसका माल व सेवा कर में हिस्सा मिलेगा। अतः आन्ध्र प्रदेश व बिहार की यह मांग कि उन्हें विशेष राज्य का दर्जा दिया जाना चाहिए बदले हुए आर्थिक तर्कों के विपरीत बैठती है। मगर इसके बावजूद ये राज्य इस दर्जे की मांग कर सकते हैं क्योंकि 2000 में बिहार से कटकर झारखंड के अलग हो जाने के बाद से इस राज्य के राजस्व स्रोत लगभग सूख से गये हैं। इसकी वजह यह है कि खनिज सम्पदा व उद्योग धन्धों का केन्द्र झारखंड अलग राज्य बन चुका है। बिहार में नाम मात्र के ही उद्योग लगे हुए हैं। एक जमाने में इसके रोहतास जिले में लगा डालमिया उद्योग अब पूरी तरह अनुत्पादित है। सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियां भी इस राज्य में नाम चारे भर की हैं अतः यह राज्य विशेष दर्जे की मांग कर रहा है। इसी प्रकार 2014 में आन्ध्र प्रदेश से कटकर अलग तेलंगाना राज्य बना और इसके साथ हैदराबाद शहर भी चला गया। हैदराबाद को सूचना प्रौद्योगिकी (आई टी) के क्षेत्र में तेलुगू देशम के नेता श्री चन्द्र बाबू नायडू ने ही मुख्यमन्त्री रहते हुए भारत का सिरमौर बनाया था। इसके तेलंगाना में चले जाने के बाद आंध्र प्रदेश खुद को अब लावारिस समझता है।

जिस वजह से केन्द्र में एनडीए सरकार के प्रमुख घटक दल तेलुगू देशम के नेता इसे विशेष राज्य का दर्जा दिये जाने की मांग कर रहे हैं। पहले इस दर्जे को देने का काम योजना आयोग किया करता था परन्तु 2014 में ही इसे भंग कर दिया था और इसकी जगह नीति आयोग का गठन किया गया था। परन्तु राज्यों के राजस्व बंटवारे का काम अब मुख्य रूप से वित्त आयोग देखता है जो एक निर्धारित फार्मूले के तहत काम करता है। इसे देखकर लगता है कि केन्द्र इन दोनों राज्यों को बड़े आर्थिक पैकेज देने पर विचार कर सकता है क्योंकि विशेष राज्य का दर्जा देते ही अन्य राज्यों से भी ऐसी मांग आने लगेगी। परन्तु वर्तमान राजनैतिक समीकरणों के चलते केन्द्र की एनडीए की मोदी सरकार पर इन राज्यों के नेता निरन्तर दबाव बनाने में सक्षम रह सकते हैं। जहां तक बिहार का सवाल है तो वहां 2025 में विधानसभा चुनाव होने हैं और इन चुनावों में अपना व अपनी पार्टी जद(यू) का परचम ऊंचा रखने की गरज से मुख्यमन्त्री श्री नीतीश कुमार प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के सामने कड़ी शर्तें रख सकते हैं। वैसे भी एनडीए सरकार का दारोमदार तेलगूदेशम के 16 व जनता दल (यू) के 12 सांसदों पर टिका हुआ माना जाता है। बिहार देश के सबसे गरीब राज्यों में से एक माना जाता है। इसकी 34 प्रतिशत आबादी छह हजार रुपए मासिक से कम आय में गुजर- बसर करती है। अर्थात 34 प्रतिशत लोग गरीबी की सीमा रेखा से नीचे जीते हैं। यही वजह है कि बिहार में चाहे लालू यादव हों या नीतीश कुमार इसे विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग करते रहते हैं। परन्तु भारत में ऐसे और भी कई राज्य हैं जिनकी सामाजिक-आर्थिक व वित्तीय स्थिति बिहार से भी गई-गुजरी है। यदि इसे विशेष राज्य का दर्जा दे दिया जाता है तो अन्य राज्य भी उठ खड़े होंगे।

विशेष राज्य के दर्जे का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि जो केन्द्र की स्कीमें या योजनाएं होती हैं उन्हें लागू करने पर राज्य सरकार को केवल दस प्रतिशत धन ही देना पड़ता है जबकि शेष 90 प्रतिशत केन्द्र से आता है। अन्य राज्यों में यह अनुपात 60 व 40 का होता है। इसके साथ ही विशेष राज्य को केन्द्र सरकार जो भी मदद देती है उसका 90 प्रतिशत मदद के रूप में दिया जाता है और केवल 10 प्रतिशत ऋण रूप में जबकि अन्य राज्यों को मदद 30 प्रतिशत मिलता है व ऋण 70 प्रतिशत मिलता है। जहां तक आंध्र प्रदेश का सवाल है तो इसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति बिहार के मुकाबले बेहतर मानी जाती है मगर इसे अपनी नई राजधानी अमरावती बनाने के लिए विशेष आर्थिक मदद की जरूरत है। अतः केन्द्र दोनों राज्यों को बड़ा आर्थिक पैकेज अनुदान व ऋण का देने पर विचार कर सकता है। यदि हम गौर से देखें तो 2000 में जब बिहार का विभाजन मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश के साथ किया गया था तो यह फैसला पूर्णतः राजनैतिक था। इसी प्रकार 2014 में आन्ध्र प्रदेश का विभाजन भी राजनैतिक फैसला था। विभाजन से पूर्व की तत्कालीन उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश व बिहार की राज्य सरकारें क्रमशः उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ व झारखंड के अंचलों के विकास पर विशेष ध्यान भी दे रही थीं। इसी प्रकार तेलंगाना का विकास भी 1956 के प्रथम राज्य पुनर्गठन आयोग के बाद से ही जारी था। परन्तु राजनीति के चलते इन सभी राज्यों का विभाजन हुआ था। दिक्कत यह है कि मूल राज्यों को ही विशेष राज्य का दर्जा देकर विवादों का पिटारा कैसे खोला जाये।

Advertisement
Next Article