दुनिया में किसी के पास इतने उत्सव नहीं
मैंने अभी-अभी पर्यूषण पर्व मनाया और अब गणेशोत्सव के आनंद से निहाल हो रहा हूं। यदि मैं किसी और देश में पैदा हुआ होता तो क्या यह सुख मुझे मिल पाता? खुद के भीतर से जन्मे इस सवाल का जवाब मुझे गर्व से भर देता है कि ईश्वर ने मुझे भारतीय नागरिक बनाया,अपनी संस्कृति से मैं गौरवान्वित हो उठता हूं।
मुझे दुनिया के ढेर सारे देशों में जाने का अवसर मिला है और बहुत से देशों में मेरे मित्र भी हैं जिनमें विभिन्न संस्कृतियों, विभिन्न धर्मों और अलग-अलग मान्यताओं के लोग रहते हैं। वे मुझसे एक ही सवाल करते हैं कि भारत में आखिर कितने उत्सव मनाए जाते हैं और इतने सारे उत्सव आप भारतीय क्यों मनाते हैं? इतने प्यार से कैसे मना पाते हैं। मैं उन्हें बताता हूं कि वास्तव में कितने उत्सव हैं, इसका हिसाब लगाना मुश्किल है। हम कुछ उत्सव राष्ट्रीय स्तर पर मनाते हैं तो कुछ बिल्कुल ठेठ स्थानीय स्तर पर मनाते हैं लेकिन इतना तय है कि हमारे सारे उत्सव प्रकृति से जुड़े हुए हैं। सारे उत्सव विज्ञान की कसौटी पर खरे उतरते हैं,पर्यूषण पर्व के अंतिम दिन संवत्सरी पर्व पर मैंने प्रतिक्रमण कर, पूजा कर 84 लाख जीवों से जाने-अनजाने में हुई गलती के लिए क्षमा मांगी। यदि मेरे मन में कटु वचन के भाव भी आए हों तो झुक कर और हाथ जोड़ कर मैंने न केवल वरिष्ठों बल्कि खुद से उम्र में छोटे, अपने सहकर्मियों और मेरे यहां साफ-सफाई करने वाले लोगों से भी समान भाव से क्षमा मांगी।
हमारी संस्कृति कहती है कि क्षमा मांग सको और क्षमा कर सको इससे अच्छी बात और कुछ हो ही नहीं सकती। भगवान महावीर ने तो जिंदगी में हर पल में क्षमा के साथ ही अहिंसा, अपरिग्रह और अचौर्य का ऐसा मंत्र दिया कि दुनिया यदि इसका पालन करने लगे तो हर व्यक्ति इंसानियत का प्रतीक बन जाए, भगवान महावीर ने अनेकांत का सूत्र दिया कि हर चीज के अनेक पहलू होते हैं। आप जिस पहलू से देख रहे हैं वह भी ठीक है और मैं जिस पहलू से देख रहा हूं वह भी ठीक है। विज्ञान की दृष्टि में इसे आप थ्री डायमेंशनल एप्रोच कह सकते हैं। यदि ऐसा हो जाए तो सारे विवाद ही खत्म हो जाएं. भगवान बुद्ध ने बुद्धत्व की बात की। यानी चेतना को जागृत करने की बात की। सोचिए, यदि हम सभी की चेतना जागृत हो जाए तो हमारा समाज कितना विवेकशील हो जाएगा। मैं अभी गणेशोत्सव के आनंद में अभिभूत हूं, एक बेहतरीन संदेश ने मेरा ध्यान खींचा है...
हे रिद्धि-सिद्धि के दाता
प्रेम से भरी हुई आंखें देना,
श्रद्धा से झुका हुआ सिर देना,
सहयोग करते हुए हाथ देना,
सन्मार्ग पर चलते हुए पांव देना,
सुमिरन करता हुआ मन देना,
सत्य से जुड़ी हुई जिव्हा देना,
हे ईश्वर...
अपने सभी भक्तों को अपनी
कृपा दृष्टि से निहाल कर देना।
हमारी संस्कृति की खासियत यही है कि हम सबके लिए मांगते हैं, सोच की इतनी व्यापकता हमारी संस्कृति की ही देन है जो हर चर-अचर में जीवन देखती है। हम पशु-पक्षियों को तो पूजते ही हैं, पत्थर भी पूज लेते हैं क्योंकि हमारा मानना है कि सृष्टि में जो भी है वह पूजनीय है। हमारे लिए जीवन के पंचतत्व पृथ्वी, गगन, हवा, पानी और आग सभी पूजनीय हैं। अभी गणेशोत्सव चल रहा है तो मुझे एक प्रसंग याद आ गया। मेरे एक विदेशी साथी गणेशोत्सव के दौरान ही मुंबई आए हुए थे, वे गणेशोत्सव की उमंग देखकर हतप्रभ थे। उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा था कि ये कैसी प्रतिमा है जिसमें शरीर तो मनुष्य का है लेकिन सिर हाथी का है? क्या ऐसा संभव है? उन्होंने मुझसे यह सवाल पूछ लिया। मैंने अपने मित्र को गणेश जी के धड़ पर हाथी का सिर लगाने की पौराणिक कथा सुनाई और कहा कि वे गणेश जी की आकृति को, हमारी संस्कृति में हर जीव को दिए जाने वाले समान दर्जे के रूप में देखें, इसीलिए तो हम गणेश जी के वाहन के रूप में चूहे को भी पूजते हैं। मैंने उन्हें होली से लेकर दशहरा और दिवाली तक के प्रसंग सुनाए, मैंने उन्हें रावण के व्यक्तित्व के बारे में बताया कि वह कितना प्रकांड विद्वान और कितना शक्तिशाली व्यक्ति था, इतना शक्तिशाली और बलशाली था कि देवता भी उसके आगे नतमस्तक रहते थे लेकिन केवल अपने अहंकार के कारण वह बुरा व्यक्ति माना गया।
भारतीय संस्कृति में रावण दहन का प्रसंग वास्तव में अपने जीवन से बुराइयों को समाप्त करने का प्रसंग है। मैंने उन्हें पोला से लेकर लोहड़ी और बिहू तक के त्यौहार से जुड़े कई और प्रसंग सुनाए और अंतत: उन्होंने हाथ जोड़ लिए। उन्होंने माना कि भारतीय त्यौहारों में प्रकृति के प्रति आदर भाव, मानव कल्याण और इंसानियत के गहरे संदेश छिपे हैं, हमारे यहां समरसता की धारा बहती है। मैं बच्चा था तो मोहर्रम के ताजिए के सामने शेर बन कर नाचता था। क्रिसमस पर घर में खुशियां भर जाती थीं और आज भी हम धूमधाम से क्रिसमस मनाते हैं, यही हमारी संस्कृति और शक्ति है।
विदेशी भी जब हमारी संस्कृति का लोहा मानते हैं तो गर्व होता है लेकिन जब मैं ऐसे भारतीयों से रूबरू होता हूं जो आधुनिकता की आंधी में कुछ इस तरह बहते जा रहे हैं कि उन्हें अपनी मान्यताएं पिछड़ापन लगने लगी हैं तो बहुत दु:ख होता है। वे अपने बच्चों को ठीक से अपनी संस्कृति से परिचित ही नहीं करा रहे हैं, उन्हें यह समझना होगा कि जो समाज अपनी संस्कृति से दूर होता जाता है वह जीवन रूपी महल की नींव को तहस-नहस कर लेता है। मैं आप सभी से यही कहना चाहता हूं कि त्यौहारों का मौसम शुरू हो गया है। उत्सव लोगों को पास लाता है, जोड़ता है और हर किसी के लिए आर्थिक अवसर भी उपलब्ध कराता है, त्यौहारों के उत्सव को जिंदगी का उत्सव बनाकर आनंद लीजिए..! आप खुद को ऊर्जा से भरपूर महसूस करेंगे, त्यौहारों का असली मकसद भी यही है।