पापा-आप बहुत याद आये
कभी अभिमान तो कभी स्वाभिमान है पिता
कभी धरती तो कभी आसमान है पिता
जन्म दिया है अगर मां ने
जानेगा जिससे जग वो पहचान है पिता
कभी कंधे पे बिठाकर दुनिया दिखाता है पिता
कभी बन के घोड़ा घुमता है पिता
मां अगर पैरों पे चलना सिखाती है
तो पैरों पे खड़ा होना सिखाते हैं पिता।
पिता एक शब्द नहीं संसार है जिन्होंने हमें सम्मान और परम्पराओं के दायरे में चलना सिखाया और हमें मजबूत बनाया। आज मेरे पापा स्वर्गीय अश्विनी कुमार का जन्मदिवस है। भावनाओं का प्रवाह बहता चला जा रहा है। मेरी मां किरण चोपड़ा और मेरे अनुज अर्जुन, आकाश उदास जरूर हैं लेकिन हम सब में ऊर्जा के साथ उनके पद चिह्नों पर चलने का संकल्प बहुत मजबूत है। जीवन में पिता की भूमिका को शब्दों में उतारना बहुत मुश्किल है। इसलिए अहसास के साथ जीवन जीने का अभ्यास होना ही चाहिए। मुझे याद आ रहे 2014 के संसदीय चुनावों के दिन जब पूरे देश में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लहर चलनी शुरू हुई थी तब पिताश्री ने कल्पना भी नहीं की होगी कि उन्हें चुनाव लड़ना पड़ेगा। उनकी प्रतिबद्धता पूरी तरह से कलम के साथ जुड़ी हुई थी, तब केन्द्रीय मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज और अरुण जेतली का फोन आया कि अश्विनी तुम्हें हरियाणा की करनाल संसदीय सीट से भाजपा अपना उम्मीदवार बना रही है तो पिता ने साफ इंकार कर दिया लेकिन बाद में राजनीति में सक्रिय मित्रों के दबाव में उन्होंने चुनाव लड़ना स्वीकार कर लिया। तब हम सब ने करनाल सीट के अंतर्गत शहरों के साथ-साथ ग्रामीण इलाकों का भी चुनाव प्रचार के लिए दौरा किया।
नामांकन पत्र भरने से लेकर चुनाव परिणाम आने तक के सारे दृश्य मुझे याद हैं। पिताजी भारी मतों के अंतर से चुनाव जीते और जब वे पहली बार संसद में प्रवेश कर रहे थे तब भी मैं उन्हें संसद भवन तक छोड़ने गया था। बतौर सांसद उन्होंने अपने क्षेत्र की समस्याओं को संसद में उठाया, बल्कि अनेक ‘ज्वलंत प्रश्न’ भी लोकसभा में पूछे। सबसे विशेष बात यह रही कि सांसद होते हुए भी वह सम्पादक बने रहने का मोह छोड़ नहीं पाए क्योंकि सच लिखने की उनकी आदत उनके जीवन का हिस्सा थी। व्यवस्था तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा आम आदमी की ‘बोनसाई’ बनाने वाली सत्ता संस्कृति के विरुद्ध वे आजीवन संघर्ष करते रहे। उनकी कलम से निकले शब्द मन-मस्तिष्क को केवल झकझोरते ही नहीं थे बल्कि एक नई सोच भी पैदा करते थे। आम आदमी उनके लेखन के केन्द्र में था। भ्रष्टाचार, शोषण विकृति और अन्याय पर उनकी कलम प्रहार करने का कोई मौका नहीं छोड़ती थी। उनके सम्पादकीय लेख पाठकों के लिए आदत बन गए थे। उनके लेखन की निरंतरता कभी नहीं टूटी। अगर एक दिन उनका संपादकीय नहीं छपता तो पाठकों के फोन की बाढ़ ऑफिस में आ जाती थी। कोई और होता तो राजनीति में पदार्पण करने के बाद पत्रकारिता करने का मोह छोड़ देता लेकिन वे अंतिम सांस तक लिखते रहे। इच्छाएं तो बहुत थी लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था।
पिताजी अक्सर कहा करते थे-"सत्य के पथ पर चलने के रास्ते में कांटे चुभते ही हैं, अतः साहसी वही होता है जो न सत्यमार्ग छोड़े और न ही कभी प्रलोभन में आए।" वह स्वामी विवेकानंद के प्रशंसक थे और उनकी पंक्तियों को कहते थे-दूसरे तुम्हारा क्या मूल्यांकन करते हैं, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि तुम स्वयं को कितना महत्वपूर्ण मानते हो। पिताजी के सम्पादकीयों की आलोचना भी हुई और विरोध भी लेकिन उन्होंने न कलम से न खुद से कभी कोई छल नहीं किया। यही उनकी सबसे बड़ी तपस्या थी। उन्होंने भगवान कृष्ण के इन वचनों को जीवन दर्शन माना- "हे अर्जुन जिस तरह मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़ कर नए वस्त्र धारण कर लेता है, ठीक उसी तरह आत्मा पुराने शरीर को छोड़ कर नए शरीर को अपना लेती है, उसके लिए मृत्यु कैसी?
“जब हाथ में कलम हो,
हो जेहन में उजाला
हर सुबह नववर्ष है
हर शाम दीपमाला।”
धीर, गम्भीर, शांत, विमर्श के लिए पिताजी एक स्तम्भ थे। डांट, फटकार के बावजूद वह हमारी आसानी से काउंसलिंग कर लेते थे। वह हमारे दोस्त की तरह थे। दोस्ती का आधार रहा संवाद। पिता और बच्चों के रिश्ते में संवेदना, स्नेह और संस्कार मूल हैं, वह है अनुशासन जो बच्चों का जीवन संवारता है। उन्होंने हमें ऐसे तराशा जैसे कुम्हार माटी को तराशता है। आज उनके जन्म दिवस पर मेरी परम पिता परमात्मा से प्रार्थना है कि मेरे हाथों में इतनी शक्ति बनाए रखना कि कलम पकड़ कर मैं अपने विचारों को पंजाब केसरी के लाखों पाठकों तक पहुंचाता रहूं। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी मैं अपने पथ से विचलित न होऊं। पंजाब केसरी के पाठकों का जो आशीर्वाद और सहयोग हमें मिल रहा है वह हमेशा हमारे साथ रहे। पापा का आशीर्वाद तो हमेशा हम पर रहेगा। एक बार फिर पापा को जन्मदिन मुबारक।