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‘शांतता संसद चालू आहे’

05:45 AM Jun 25, 2024 IST
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18वीं नई लोकसभा का पहला सत्र शुरू हो चुका है और नवनिर्वाचित सांसद सदस्यता की शपथ ले रहे हैं। नये सांसदों को संसद की नियमावली के अनुसार व्यवहार व आचरण करना सीखना होगा तब जाकर वे इस सर्वोच्च सदन में जनता के मुद्दे उठा सकेंगे। दुनिया के सबसे बड़े संसदीय लोकतन्त्र के सर्वोच्च सदन में पहुंचने वाले सभी सांसदों को बधाई देते हुए पंजाब केसरी अपेक्षा करता है कि वे सभी अपने चुनाव क्षेत्रों की जनता की उम्मीदों पर खरा उतरेंगे। संसद का सबसे पहला अलिखित नियम लोकतन्त्र में यह होता है कि जब देश की सड़कों पर कोहराम मचा होता है तो संसद किसी भी तरीके से चुप नहीं बैठ सकती। अतः हम देख सकते हैं कि संसद के इस सत्र में देश के युवाओं की बेचैनी की झलक देखने को मिले, क्योंकि राष्ट्रीय परीक्षाओं के लिए जिम्मेदार नेट ने जिस गैर जिम्मेदारी का परिचय दिया है उससे लाखों युवकों के भविष्य पर सवालिया निशान लग गया है। नीट की परीक्षा रद्द कर दी गई है और अन्य परीक्षाओं के भविष्य के बारे में भी इत्मीनान से कुछ नहीं कहा जा सकता। इसकी वजह से सड़कों पर कोहराम है। जगह-जगह युवा प्रदर्शन कर रहे हैं।

चुने हुए सांसदों को दलगत हितों से ऊपर उठ कर इसका संज्ञान लेना होगा और सत्ता पर काबिज हुई सरकार को चेताना होगा कि 21वीं सदी के टैक्नोलॉजी युग में पेपर लीक होने का क्या मतलब होता है। पेपर लीक होना जिस तरह सामान्य घटना बनती जा रही है उससे लगता है कि हमने जितना विकास किया है उतना ही अधिक हम बेइमान हो गये हैं। विकास की अंधी दौड़ में सामाजिक चेतना जब मर जाती है तो वह विकास ​निरर्थक माना जाता है। संसद के सामने सबसे यक्ष प्रश्न देश में बढ़ती हुई बेरोजगारी है जिसका हल इसी संसद को ढूंढना होगा। चुनाव में जो भी मुद्दे थे वे केवल जनता को रिझाने के लिए नहीं थे बल्कि उनके हल के लिए भी इसी संसद को रास्ते खोजने होंगे। ऐसे सभी मुद्दों व समस्याओं को दलगत भावना से ऊपर उठ कर हल करना होगा जो सीधे राष्ट्रीय हितों से जुड़े हुए हैं। सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि फौजदारी कानूनों में जो बदलाव किये गये हैं वे 1 जुलाई से लागू होने हैं। नई संसद को यह देखना होगा कि इन तीन नये कानूनों को लागू करने से देश में लोकतन्त्र की व्यवस्था पर कोई विपरीत प्रभाव न पड़े। यह राष्ट्रीय महत्व का मुद्दा है जिसके साथ लोकतन्त्र का भविष्य जुड़ा हुआ है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बदलाव की ललक में हम कहीं एेसे बदलाव न कर बैठें जो हमारे लोकतन्त्र के लिए घातक सिद्ध हों।

लोकतन्त्र में जितने नागरिक ज्यादा मजबूत होंगे देश भी उतना ही अधिक मजबूत होगा। लोकतन्त्र नागरिक को सशक्त बनाते हुए चलता है जिससे देश खुद-बखुद मजबूत होता चला जाता है। यदि ऐसा न होता तो हम आज इतनी तरक्की न कर पाते और विश्व की पांचवीं अर्थव्यवस्था होने का दम्भ न भर रहे होते। भारत ने 1947 के बाद से जो भी तरक्की की है वह इसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में लोगों की मदद से की है। लोगों ने समय-समय पर ऐसी सरकारों का चयन किया जिन्होंने उनकी अपेक्षाओं को पूरा करने का प्रयास किया। विकास अचानक कभी नहीं होता बल्कि इसका एक क्रम होता है।

आजादी के बाद सुई तक न बनाने वाले भारत ने आज कृषि के क्षेत्र से लेकर विज्ञान तक के क्षेत्र में अभूतपूर्व तरक्की की है। इसका अन्दाजा इस बात से आसानी से लगाया जा सकता है कि भारत जब आजाद हुआ था तो इसके किसानों के पास कुल साढे़ पांच हजार ट्रैक्टर थे। आज इनकी संख्या लाखों में पहुंच चुकी है। हमने समुद्र विज्ञान से लेकर अंतरिक्ष विज्ञान तक के क्षेत्र में अपने झंडे गाड़े हैं। हम आज दुनिया की छठी वैधानिक परमाणु शक्ति बन चुके हैं। यह सब काम सतत् प्रक्रिया के दौरान हुआ है। लोकतन्त्र में सरकार एक सतत् प्रक्रिया होती है। हर सरकार लोगों द्वारा चुनी गई सरकार होती है और वह लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करने का प्रय़त्न करती है। अतः हर दौर में जो भी नीतियां बनती हैं वे सभी लोगों के कल्याण के लिए होती हैं। जब लोग देखते हैं कि उनके द्वारा चुनी गई सरकार का कामकाज सन्तोषजनक नहीं है और वह लोक कल्याण के भाव से काम नहीं कर रही है तो लोग उसे पांच साल बाद बदल देते हैं।

भारत चाहे किसी भी अर्थव्यवस्था के तहत चले मगर यह लोक कल्याणकारी राज ही बन कर रह सकता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि अभी भी भारत मेें 33 प्रतिशत के लगभग परिवार छह हजार रुपए प्रति महीने की आमदनी पर जीते हैं। (बिहार के जातिगत-आर्थिक सर्वेक्षण ने यह साफ कर दिया है) अतः लोकतन्त्र का मतलब केवल हर पांच साल बाद चुनाव में हार- जीत का नहीं होता बल्कि लोक कल्याणकारी राज की तर्ज को आगे बढ़ाना होता है। यह देश गांधी का है और गांधी का सपना यही था कि आजाद भारत एक लोक कल्याणकारी राज बने। अतः नई संसद का यह पहला कर्त्तव्य है कि जो 33 प्रतिशत लोग हैं उनकी आमदनी में इतना इजाफा हो कि वे समाज में सम्मान के साथ जी सकें और कह सकें कि वे भी आत्मनिर्भर हैं। भारत तभी आत्मनिर्भर देश बनेगा जब इसके लोग आत्मनिर्भर होंगे। गांधी का यही सिद्धान्त है। इसलिए किसी भी सरकार को सर्वव्यापी आत्मनिर्भरता के लिए सबसे पहले लोगों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना होगा। अपनी नीतियों से सरकारें यही सुनिश्चित करती हैं और तभी लोक कल्याणकारी राज स्थापित होता है। संसद का पहला काम यही देखना होता है। लोकसभा के पहले अध्यक्ष स्व. जी.वी. मावलंकर ने बहुत सोच-विचार कर ही यह कहा होगा कि संसद इसलिए नहीं जानी जायेगी कि उसने कितने कानून बनाये बल्कि इसलिए जानी जायेगी कि उसकी मार्फत कितने लोगों के जीवन में बदलाव आया।

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